Thursday, August 24, 2023

झारखण्ड और बिहार के कुछ स्थानीय धर्म स्थान - भाग -१

इस भाग में झारखण्ड

२०१८ हमारे भटक वासना (wander lust) के लिए बहुत अच्छा साल था। फरवरी में हज़ारीबाग़ -रजरप्पा , मार्च में अंगराबारी, पटना और उत्तर पूर्व इंडिया , मई में काठमांडू - चंद्रगिरि , जुलाई में मधुबनी - मंगरौनी - उच्चैठ , सेप्टेंबर में शिरडी । सप्तश्रृंगी , अक्टूबर में जमुई , लछुआर , नेतुला भवानी, दिसंबर में उदयपुर-कुम्भलगढ़ , चित्तौरगढ़ । मैं इन जगहों में से उन धार्मिक जगहों के बारे में लिख रहा हूँ जो स्थानीय लोगों में लोकप्रिय और प्रसिद्द है पर बाहर वालों को कम ही पता हैं । जैसे अमरेश्वर धाम (अंगराबारी) - खूंटी , रजरप्पा- रामगढ , नेतुला भवानी- कुमार गावं -जमुई और उच्चैठ- मधुबनी । ऐसे ही एक धर्मस्थान अशोक धाम - लखीसराय (बिहार) पर मैं एक ब्लॉग पहले ही लिख चुका हूँ और उसका लिंक मैं नीचे दे रहा हूँ :
अशोक धाम - लखीसराय (बिहार)




आम के पेड़ को घेरकर उसके नीचे श्यंभू अमरेश्वर शिव लिंग और मंदिर, अन्य मंदिर



अमरेश्वर धाम
हम रांची - खूंटी के रास्ते में पड़ने वाले अमरेश्वर धाम दो बार गए। पहली बार सबसे छोटी बहन बहनोई के साथ और दूसरी बार मेरी दूसरी बहन बहनोई के साथ। पहली बार हम वहां से लापुंग स्थित साई मंदिर भी गए थे और पांच छह मोटर साइकिल पर काले कपड़े में शायद आतंकवादियों ने कुछ दूर हमारे जीप / SUV का पीछा भी किया। २०१८ में बहन बहनोई के साथ अचानक प्रोग्राम बन गया और हम एक टैक्सी ठीक कर चल दिए। हमारे निवास से ५० KM पर स्थित अमरेश्वर धाम हम २ घंटे से भी काम समय में पहुंच गए।

अंगराबाड़ी या अमरेश्वर धाम, झारखंड के खूंटी के पास स्थित, एक मंदिरों का समूह है जो शिव जी को समर्पित है। मंदिर का निर्माण और रखरखाव अमरेश्वर धाम प्रबंध समिति द्वारा किया जाता है। ऋषि शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा इसका नाम बदलकर अमरेश्वर धाम कर दिया गया। एक मान्यता है कि यह शिवलिंग आम के पेड़ के नीचे अवस्थित है, इसलिए इसका नाम आमरेश्वर धाम पड़ा। रांची से खूंटी रोड या खूंटी-तोरपा रोड NH-20 होकर यहाँ पंहुचा जा सकता है। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग ४५-५० किमी दूरी पर यह स्थित है।

इस मंदिर के पीछे एक कहानी छुपी है। रांची से सिमडेगा जाना एक ज़माने में जीवट का काम थे । कई जगह पूल नहीं थे। गाड़ियों को नदी नालों पर बने डायवर्सन होकर जाना पड़ता था। एक ही बस चलती था । और कितना समय लगता होगा इसका अनुमान आप लगा सकते है। यदि बस ख़राब हो गयी तो भागवान बचाये। कहानी है कि एक बार बस ख़राब हो गय। बस मालिक को रात में लघु शंका लगी तो वह पास के कुछ झाड़ियों में चले गए। उस रात उसे सपना आया कि उन झाड़ियों को साफ़ करवाओ। जब झाड़ियां साफ करवाई गयी तो आम के पेड़ के नीचे एक श्यंभू शिव लिंग दिखा। बस मालिक ने वहां पूजा अर्चना की । उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब बस स्टार्ट हो गयी। इसके बाद बस समय पर पहुंचने भी लगा। लोगों की आस्था जगी और एक मंदिर बन गयी। आम को पेड़ को कोई हानि नहीं पहुचाई गयी। इसे चारो तरफ से घेर दिया गया।
कालांन्तर में मंदिर स्थल में गणेश, राम, सीता और हनुमान सहित कई अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां और मंदिर भी स्थापित हो गयी । सावन के महीने में बड़ी संख्या में कावरियों यहाँ जल अर्पित करने आते है। महा शिवरात्रि के दिन भी यहां शिव भक्तों की भारी भीड़ होती है।

रजरप्पा रजरप्पा के पास भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर मां छिन्नमस्तिका का मंदिर स्थित है।इस मंदिर को 'प्रचंडचंडिके' के रूप से भी जाना जाता है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर रुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है।पुराणों में रजरप्पा मंदिर का उल्लेख सिद्धपीठ के रूप में मिलता है। मंदिर के निर्माण काल के बारे में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। कई विशेषज्ञ का कहना है कि इस मंदिर को महाभारतकालीन हैं। यहाँ कई मंदिर हैं जिनमें 'अष्टामंत्रिका' और 'दक्षिण काली' प्रमुख हैं। यहां आने से तंत्र साधना का अहसास होता है। यही कारण है कि असम का कामाख्या मंदिर और रजरप्पा के छिन्नमस्तिका मंदिर में समानता दिखाई देती है।मंगलवार और शनिवार को रजरप्पा मंदिर में विशेष पूजा होती है।

मुख्य मंदिर


मंदिर , दामोदर नदी का एक दृश्य , मंदिर में स्थित बहूत बड़ा शिव लिंग

क्यों काट लिया भगवती ने अपना सर ? एक बार मां पार्वती अपनी दो सहचरियों के साथ भ्रमण पर निकलीं. इस दौरान माता पार्वती की रास्ते में मंदाकिनी नदी में स्नान करने की इच्छा हुई. मां पार्वती ने अपनी सहचारियों से भी स्नान करने को कहा, परंतु दोनों ने स्नान करने से इनकार कर दिया और कहा कि उनको भूख लग रही है.इस पर माता पार्वती ने उनको कुछ देर आराम करने को कहा और स्नान करने चली गईं. मां काफी देर तक स्नान करती रहीं, इसी बीच दोनों सहचरी कहती रही कि उनको भूख लग रही है. लेकिन माता ने दोनों की बात को अनसुना कर दिया.इस पर दोनों सहचरियों ने माता से कहा कि मां तो अपने शिशु का पेट भरने के लिए अपना रक्त तक पिला देती है. परंतु आप हमारी भूख के लिए कुछ भी नहीं कर रही हैं. यह बात सुनकर मां पार्वती को क्रोध आ जाता है और नदी से बाहर आकर खड्ग का आह्वान करके अपने सिर को काट देती हैं, जिससे उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएं निकलती हैं. दो धाराएं दोनों सहचरों के मुख में और एक भगवती ने अपने मुख में डाल लिया। बाद में भगवान शिव कबंध का रूप धारण कर देवी के प्रचंड रूप को शांत करते हैं. तब से मां पार्वती के इस रूप को छिन्नमस्ता माता कहा जाने लगा।
हम लोग कई बार रजरप्पा जा चुके है। पिछली बार २०१८ में गए था और एक VIP साथ थे इसलिए मंदिर पूरा खाली कर के पूजा करने का अवसर भी मिला। सबसे पहले १९६६ में गया था । मेरी स्व बड़ी दीदी का ससुराल नज़दीक के शहर गोला में है। मै और मेरे बड़े फुफुरे भाई मुन्ना भैया शादी के बाद पुछारी (पगफेरे) के लिए गोला गए थे। दीदी के ससुर जी अपने समय के पुलिस इंस्पेक्टर थे और काफी रौब उनका उस क्षेत्र में था। उन्होंने छिन्मस्तिका के दर्शन पूजा और पाठा (बकरी के बच्चा ) की बलि के लिए चलने को कहा। हम स्टेट ट्रांसपोर्ट के बस से गए थे , एक बस जाती थी और शाम तक लौट जाती थे। गोला के तरफ से जाने पर भैरवी (भेरा) नदी के उस पार तक ही तब जा पाए और नदी को पार कर मंदिर तक गए।


छिन्नमस्तिका मंदिर ६० के दशक में

तब रजरप्पा प्रजेक्ट बना नहीं थे इसलिए भैरवी के पार यानि चितरपर के तरफ से कोई रास्ता ही नहीं था। अब रजरप्पा जाने का रास्ता चितरपुर हो कार ही है और इस एक ट्रिप को छोड़ हम चितरपर हो कर ही गए है। कोई मेहमान आने से यह सबसे नज़दीक और सुविधा जानका आउटिंग होता है। रांची से सिर्फ ७०-८० किलोमीटर पार है रजरप्पा। मेरी पोती का मुंडन भी रजरप्पा में ही हुआ।
बिहार के धर्मस्थान अगले भाग में
क्रमशः

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