Sunday, May 22, 2022

चाय को चाय ही रहने दो भाग-१



Lemon and Tulsi Tea
चाय को चाय ही रहने दो भाग 2
चाय को चाय ही रहने दो भाग 3

कल अंतरराष्ट्रिय चाय दिवस था। भला हो सोशल मिडिया का नहीं तो इतने अंतरराष्ट्रिय दिवसों का पता ही नहीं चलता। अपन को तो सिर्फ गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस ही पता था। खैर यदि चाय दिवस आने ही वाला था तो दो तीन दिन पहले ही बता देते हम एक original यानि शुद्ध , खालिश पत्ती वाली चाय पी कर चाय दिवस मना भी लेते वर्ना हम तो रोज तुलसी अदरक चाय ही पीते है। हमारे यहाँ चाय तो कोई कोई ही पीता है, पर बुलाते सभी को चाय ही है। ईलायची चाय, जास्मीन चाय, नीली चाय, हरी चाय, फूल पंखुड़ी की चाय, हर्बल चाय और सबसे प्रसिद्ध काली नमक, चाट मसाले वाली लेमन टी। चाय, चहा, चा, टी भारत का सबसे लोकप्रिय पेय है चाहे जैसे पीऐ । पर मै कहता हू हर गरम पेय को चाय तो न बोलो । पहले ब्राउन रंग की पेय को (coke को छोड़ कर) चाय बुला लेते थे तब तक ठीक था अब तो नीली, पीली,हरी लाल सभी को चाय बुला लेते है। कोई और नाम रख लो भई, चाय को चाय ही रहने दो। खैर देर से ही सही पता लग ही गया कि कल अंतररष्ट्रीय चाय दिवस था, तो एक ब्लॉग तो बनता है चाय पर। हाजिर हैं ।



Blue Aprajita Flower Tea

सबसे पहले मै बताना चाहता हूँ कि जब 2007 में जर्मनी में आयोजित एक औद्योगिक प्रदर्शनी में भाग लेने वाली टीम के सदस्य के रूप में मुझे चुना गया तो मैं खुश था यह मेरी पहली ऑफिशियल विदेश यात्रा थी जिसमें मैं काम करने नहीं बस कुछ देखने जा रहा था। अन्य सभी विदेश यात्राओं में कमोबेश कुछ करना ही पड़ा था। ऐसे प्रदर्शनी में भाग लेने आए कई अन्य कम्पनी से बहुत से पुराने मित्र, और कुछ सिनियर से interact करने और दोस्ती renew करने का मौका मिला। कुछ नयी तकनीक देखने, सीखने का मौका भी मिला । शायद मेरी कम्पनी भी यहीं चाहती थी । प्रदर्शनी में भारतीय और चाईनीज कम्पनियों के बहुत सारे स्टॉल थे और विजिटर भी ज्यादा इन्हीं दो देशों से आए थे। हम लोग कुछ ग्राहकों के जैसे SAIL के सलाहकार थे, इसलिए विजिटिंग कॉर्ड देखते ही हर काऊंटर पर हमारी खातिर खूब होती । और चाय या कॉफी तो हर जगह जरूर पूछते ही थे लोग । मेरा चॉइस हर बार चाय ही होता। घूमते घूमते मै एक चाईनीज कंपनी के काउंटर पर पहुंच गया और चाय या कॉफी पूछने पर चाय की मांग कर डाली । पहली बार टी बैग की जगह फूल के पत्तियों वाली टी बैग मिला । एक सिप लेते ही कहीं थूक आने का मन करने लगा। Embarassed चीनी अगल बगल के स्टॉल से असली टी बैग लाने का कोशिश में लग गए, चीनी लोग कैंटीन से लाने में लगते उसके पहले हम उन्हें मना कर आगे बढ़ गए तांकि दूसरे स्टॉल पर मुंह का स्वाद दुरुस्त कर सकें।


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Tea factory and tea garden in Shri Lanka 2009, Munnar 2013

आइए अब चाय के इतिहास के बारे में कुछ जानने की कोशिश करते हैं और यह भारत में इतना लोकप्रिय कब और कैसे हुआ इस पर भी गौर करने की कोशिश करते हैं । 1820 के दशक की शुरुआत में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने असम, भारत में बड़े पैमाने पर चाय का उत्पादन शुरू किया, जो पारंपरिक रूप से बर्मा की एक किस्म थी। चीनी चाय को अलग समझा जाता था । अब असम की चाय एक मिक्स वैरिएटी की चाय हैं। चीन का चाय पर एकाधिकार करीब हज़ार वर्ष का था और इसे वे किसी तरह अपने देश के बाहर नहीं जाने देना चाहते थे पर सन १८०० के आस पास एक स्कॉटिश बॉटनिस्ट, चीनी रईस का भेष बना कर धोखे से चाय का पौधा चीन से बाहर ले आने मे सफल हो गए, और फिर यह पौधा सारी दुनिया में फ़ैल गया । इसके हज़ारों पौधों को दार्जीलिंग के ढलान पर लगाए गए और बहुत सारे बर्बाद हो गए पर कुछ बच भी गए । दार्जिलिंग की चाय मे सिर्फ चीन से लाए पौधों या उनके वंशजों का ही इस्तेमाल किया गया और यह अपनी किस्म की अकेली सुगन्धित चाय हैं ।


आज भारत दूसरा सबसे ज्यादा चाय उत्पादन करने वाला देश है पर अपने उत्पादन का ७०-८० % देश में ही खपत हो जाती हैं । जबकि शुरूआती दिनों में महात्मा गाँधी ने चाय की तुलना कोको और तम्बाकू से करते हुए लोगों इसे नहीं पीने की सलाह भी दी थी।



पुराने प्रचार -चाय के

लेकिन स्थानीय खपत यू ही नहीं बढ़ी । ब्रिटिश चाय कंपनी और ब्रिटिश सरकार को बहुत यत्न करने पड़े लोगों के बीच चाय की तरफ झुकाव पैदा करने में । पुराने समय में मैं जब भी नवादा (बिहार) से 70 KM दूर अपने शहर जमुई बस से आता जाता था तो बस पकड़ी-बरांवा में जरूर रूकती थी लोग वहाँ का मशहूर बाड़ा (बालूशाही) खरीदने को उतरते ही थे । वहाँ एक पुराना प्रचार बोर्ड पर लिखा था "मैं और मेरा भाई पीते है रोज़ चाई " । ऐसे कई पोस्टर जिसमे कुछ चाय के लिए दूसरा मैसेज होता था, गाहे बेगाहे दिख जाते थे महात्मा गाँधी के चाय नहीं पीने की अपील के बावजूद चाय आज भारत में सबसे लोकप्रिय पेय है ।
1920 के दशक की शुरुआत में, प्रख्यात रसायनज्ञ और उत्साही राष्ट्रवादी आचार्य प्रफुल्ल रे ने चाय की तुलना जहर से करने वाले कार्टून प्रकाशित किए। बाद में, महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक, A key to health में एक अध्याय लिखा, जिसमें बताया गया कि चाय को कसैला बनाने वाला यौगिक टैनिन मानव उपभोग के लिए खराब क्यों था। उन्होंने तंबाकू जैसे पदार्थों के समान वर्ग में चाय को "नशीला" कहा। जब मैं बच्चा था चाय घर में रोज रोज नहीं बनती थी । सिर्फ मेहमानों के लिए चाय बनाई जाती । अब की बात करे तो बापू की बात लोगों ने नहीं मानी और आज शायद ही कोई भारतीय होगा जो चाय नहीं पीता हो ।

चाय या टी ?

चाय को आधी दुनिया चा,चाई या चाय के नाम से जानती है और बाकी आधी दुनिया टी, टा या टे। इसका कारण भी दिलचस्प है। चीन में नौवीं शताब्दी में चाय के लिए एक नया अल्फाबेट जोड़ा गया जो पहले व्यवहार में लाने वाले अक्षर (tu) के एक सोयी लाईन हटाने से बनी थी। जिसे इतने बड़े चीन के कुछ राज्यों में टा या टे पढ़ा गया और कुछ में चा पढ़ा गया। अब कुछ देशों में सड़क मार्ग से चाय भेजे गए और चीन के उन स्थानों पर इसे 'चा' कहा जाता था इसलिए इन देशों में इसे चा, चाई या चाय के नाम से जाना जाता है और उसी तरह जहाँ भी समुद्र मार्ग से भेजा गया, वहाँ नाम पड़ा टे, या टी। और हमारी दुनिया टी और चाय में बंट गई।
और अंत में चाय बनाने का तरीक़ा :
दार्जीलिंग चाय
एक छोटे, गर्म चायदानी में 1 चम्मच अच्छी गुणवत्ता वाली ढीली पत्ती वाली दार्जिलिंग चाय डालें। उसके ऊपर ताजा उबला हुआ पानी डालें जिसे एक या दो मिनट के लिए ठंडा होने दिया गया हो । 3 मिनट के लिए प्रतीक्षा करे । दूध, चीनी या नींबू के बिना पिएं, चाय के अनूठे और नाजुक स्वाद और सुगंध का असली मजा ले ।
अदरक वाली चाय - चा ,चाहा : घर पर भारतीय चाय बनाने का तरीका:
चूल्हे पर एक छोटे सॉस पैन में पानी, दूध अदरक और अन्य मसाले को उबाल लें। गर्मी कम करें और काली चाय डालें। चाय के उबलने का इंतज़ार करें। इस मिश्रण को मग या कप में छान लें; इससे सारे मसाले और चायपत्ती छन्नी में रह जाएगी।अपनी चाय में चीनी डालकर स्वादानुसार मीठा करें।
ऐसे जाते जाते याद दिला दूँ चाय को चाय ही रहने दो नया स्वाद न दो ।

Thursday, May 19, 2022

बेबी को बेस पसंद है


बेबी को बेस पसंद है" या "डी जे वाले बाबु मेरा गाना चला दो" मजेदार गाने है और हिंदुस्तान में हर अवसर पर फिल्मी गाने सुनने का रिवाज है या फिर ढ़ोल की धाप। आप पूछेगें "कहना क्या चाहते हो" तो कुछ कहानियाँ सुनाता हूँ।

हमारे जमाने में कोई शुभ अवसर हुआ नहीं कि ढ़ोल वाले पहुंच ही जाते थे। बड़े बड़े मोर पंख लगे ढ़ोल बजाते और ढ़ोल घुमा घुमा कर नाचते। एक खूबसूरत सा समा बंध जाता। बिहार, झारखंड या बंगाल के दुर्गा पूजा पंडाल में ढोल की थाप पर होने वाले आरती नृत्य तो बहुतों ने देखा होगा प्रत्यक्ष या फिल्मो में । दुर्गा पूजा पंडालों मे तो ऐसी आरती की प्रतियोगिता भी होती है। पर यह सब मै क्यो बता रहा हूँ ? लोक कला का ही रूप था बच्चे का जन्म हो या अन्य अवसर पमरिया के ढ़ोलक तो बजते ही थे। इन अवसरों पर होने वाला यह शोर सभी लोग पसंद करते थे क्योंकि तब लाउड स्पीकर्स या तो नहीं थे या इतने पावरफुल नहीं होते थे और सिर्फ छतों मुड़ेरो पर बाधें जाते थे कान के इतने करीब नहीं ।

आइए हम चलते है 2005 जब मै हिसार में था। मेरे एक जूनियर साथी के पहले बच्चे का पहला जन्मदिन था। मुझे भी बुलाया था और पार्टी एक बैक्येट हॉल में था। करीब 75 लोग थे पार्टी में और डी०जे० का भी इंतजाम था। केक कटने के तुरंत बाद लोगो ने डी०जे० से नृत्य संगीत बजाने फरमाईश कर दी। हम स्टेज से थोड़ी दूर बैठे थे लेकिन फुल वोल्युम संगीत से बहरे गूंगे से हो गए। जिस बच्चे के जन्मदिन पर हम जुटे थे वह लगातार रोता जा रहा था हमें पता था उसके रोने का कारण तेज शोर ही था पर उसके माता पिता उसे खिलौनो से बहलाने की बेकार कोशिश कर रहे थे। खैर खैर डिनर सर्व होने लगा और हम खा कर वापस घर पाए।
हाल में मैं एक रिश्तेदार के बिटिया की शादी में गया था । सब ठीक ठाक ही चल रहा था । शादी हो गयी थी और रिसेप्शन की पार्टी चल रही थी । म्यूजिक भी धीरे चाल रहा था इतना की सभी मेहमान आपस में बात कर सके । फिर अचानक किसी ने DJ को वॉल्यूम बढ़ने को कहा क्योंकि डांस फ्लोर पर दूल्हा दुल्हन को लाया जा रहा था । बस फिर क्या था आपस में बातें बंद हो गयी और सब खाने में जुट गए । खाने के काउंटर वाले से ठीक से पूछना भी मुश्किल था । मैं रांची में जहां रहता हूँ वह पास ही दो बैंक्वेट हॉल हैं । शादी के मौसम हो या कोई राजनितिक आयोजनों का काल हो या पर्व त्योहार कोई न कोई आयोजन रोज ही होते है। हमें रोज़ ही तेज़ म्यूजिक, बैंड बजा, आतिशबाजी को देर रात तक झेलना पड़ता हैं । एक सीनियर सिटिज़न के लिए यह सब कितना मुश्किल होता हैं जब वे ढंग से सो भी नहीं पाते । इस तरह के बैक्वेट हाल रिहाईशी ईलाकों में होने नहीं चाहिए, या फिर शोर कम करने का कोई नियम होना चाहिए और पालन भी किया जाना चाहिए। जब जर्मनी में एक एपार्टमेंट मे था तो बगल वाले पड़ोसी के मेरे रेडियो बजाने पर भी आपत्ती थी। शोर पैदा करने वाले रिपेयर भी सिर्फ शनिवार,रविवार को ही allowed था।


मुझे ऐसा लगता है कि हम लोग सिर्फ शोर ही नहीं करते है, हम लोगों को दूसरे को परेशान करने का या यह दिखाने कि हम किसीकी परवाह नहीं करते है का additional kick भी मिलता है। बारात यदि आपके कार के आगे आगे चली जा रही है तो आपको निकलने की जगह नहीं देगें। यू,तो हम खुद ही कहते रहते है पब्लिक रोड पर ये न करो वो न करो encroach न करो, गंदगी न फैलाओ, लेन में चलों इत्यादी, पर खुद पर आती है तो बारात के आगे घंटो नागिन डांस कर रोड ब्लॉक कर देते है। लोग भी आदी हो गए है, इतने कि जब कभी कोई बारात आपको निकलने की जगह दे देता है तो आप कितने आभारी महसूस करते हैं जबकी यह आपका हक है। सोच के देखिए अनेकों ऐसी घटनाएँ आपको भी याद आएगी। फिर भी भरोसा है कि कभी तो तो लोग दूसरों को होने वाली असुविधा को समझेंगे। देखूं कब तक शोर इतना कम होगी कि इसे pollution नहीं माना जाएगा, कभी होगा क्या ? पर तब तक क्या करे ? बेबी को बेस पसंद है और वह DJ वाले बाबू को अपना गाना चलाने को कह जो रही है ।

बस प्रतिक्षा किजिए।

कुकुर मुत्ता


आप शायद सोच रहे होगें कि मै Mushroom के बारे में कुछ लिखने वाला हूँ पर नहीं एकदम नहीं...पर कुकुरमुत्ता को कुकुरमुत्ता क्यो कहते है यह तो आप जानते ही होगें ।



हम दो महीने पहले रांची से दिल्ली एनसीआर गये थे और इसलिए बहुत दिनों बाद ही मैने फिर ब्लॉग लिखना शुरू किया हूँ । रांची में मैं रोज़ाना मॉर्निंग वाक पर जाता रहा हूँ और वहाँ (Gaur Saundaryam (ग्रेटर नॉएडा वेस्ट ) या इंदिरापुरम पर भी मेरा यह रूटीन जारी रहा । Gaur Saundaryam में काफी हरियाली है कई पार्क, खेल के कोर्ट / एरिया, स्विमिंग पूल और एक मंदिर है और सफाई का भी अच्छा इंतेज़ाम हैं । मेरा पुत्र यही रहता हैं मेरी पुत्री भी नज़दीक ही इंदिरापुरम में रहती हैं । खैर अब मैं आता हूँ आज के टॉपिक पर। एक सुबह मेरे साथ एक सज्जन लिफ्ट में मिले जो एक कुत्ते को "कुकुरमुत्ते" के लिए ले जा रहे थे यानि कुत्ते को सुबह की वाक पर ले जा रहे थे । पालतू कुत्तों की यह मजबूरी हैं की उन्हें दिन में सिर्फ एक ही बार, किसी किसी को 2 बार मौका मिलता हैं हल्का होने के लिए । और जरूरी नही की जगह उसके choice का ही हो। शायद ही पोल, खम्भे, कार टायर उन्हे मिले श्रद्धा सुमन चढ़ाने को। इस सोसाइटी में कुत्ते के मालिक को ही कुत्ते के पूप को उठाना पड़ता । यह एक अच्छा सिस्टम हैं जो मैंने काफी पहले 2007 में USA में देखा था । जबकि 1983 के जर्मन ट्रिप में कहीं कहीं dog shit दिख जाता था।
अब वापस लिफ्ट में चलते हैं । मैंने पाया की डॉगी कुछ अलग था और उसके ब्रीड को मैं पहचान नहीं पा रहा था । ऐसे बहुत कम ब्रीड को ही मै पहचानता भी हूँ इसलिए मैंने कुत्ते के मालिक को उसके ब्रीड के बारे में पूछ लिया उसका उत्तर बहुत ही चौकां देने वाला था। "मुझे भी नहीं मालूम" ज्यातादर डॉगी के foster parent को उसके ब्रीड पर घमंड सा होता है और गुगल से पढ़ कर भी पता कर लेते है। और इतने घने बालो वाले आकर्षक कुत्ते के बारे में मालिक को ही नहीं पता ? खैर कुत्ता पालने के 'पलटन' का नया रंगरूट होगा। ऐसा नहीं कि कुत्ता मुझे पसंद नहीं , लेकिन मुझे वे तभी तक पसंद है जब तक पट्टे में हो और मालिक के कन्ट्रोल में हो। छुट्टे कुत्ते से मै डरता हूँ (एक बार धोखे से एक कुत्ते नें कांट लिया था) और मोती हो, ड्यूक हो या व्हिस्की दोस्ती की पहल मै नहीं करता। यदि खुद पूंछ हिलाने लगे तो हिम्मत कर थप थपा सकता हूँ। भई माना यह आपके बेटे जैसा है पर मैं इससे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता। ऐसे सुना है इन street dogs को भी property rights होते है। क्योंकि ये territorial होते है। गाहे बे गाहे कोर्ट पुलिस भी हो जाती है इनके चलते (पूछता हूं बकरी की कोई right नहीं होती क्या ? उसके बच्चों को तो खुद तो खाते ही हो ईन कुत्तो को भी खिलाते हो) खैर इस सोसाईटी में कोशिश की जीती है कोई राह चलता डॉगी अंदर न आ जाय और अपने रिहायशी हक का दावा न कर बैठै। खैर वापस लिफ्ट की ओर चलते हैं। मैने उस सज्जन को लानत भेजी और आगे निकल लिया। लेकिन मेरा मन उस बेचारे बेजुबान पर ही अटका पड़ा था। इसके बाल क्यो नहीं ट्रिम करवाते है इस गर्मी में ? एक बार नजदीक के Pet care shop के पास कुछ काम से जाना पड़ा तो उन लोगों का एक leaflet सरसरी निगाह से देखने का मौका मिला। Dog grooming का दाम लिखा था 400-800 रूपया। शायद यह एक कारण हो। जहाँ कोविड काल में लोग अपने बाल घर पर काटने के आदी हो गए है वो कुत्ते का बाल तो खुशी खुशी खुद काट ही लेगे।
मै रोज लोगों को कुत्तों को सुबह शाम घुमाने ले जाते देखता हूँ। कुछ आलसी लोग इस काम के लिए अपने घर में काम करने वाली maid को भी लगा देते है। मै सोचता इनकी bonding कैसे बनेगी। कभी कभी किसी उम्र दराज व्यक्ति को भी कुत्ते को चराने sorry टहलाने ले जाते देखता हूँ। एक बार एक छोटा से कुत्ते को एक sr citizen औरत टहला रही थी..अरर कुत्ता ही उसे टहला रहा था क्योंकि कुत्ता ही उन्हें घिसियाते ले जा रहे थे जहाँ तहाँ और वे सिर्फ यह कहते उसे खींच रहीं थी "पगली कहाँ ले जा रही हमें इधर चल इधर। " बेचारी ! उस डॉगी की दादी कितनी लाचार थी। खैर मै अब राँची में हूँ। मेरे दो पड़ोसी के पास भी कुत्ते है, एक तो भेड़िया ही है, और दूसरा next door neighbour का लैब्राडोर है जो हमें देखते ही भूंकना शुरू कर देता है और कोई response नहींं मिलने पर थक कर चुप हो जाता है। शायद हमसे दोस्ती करना चाहता होगा। दूसरे दो कुत्तों को लेकर दो नौकर भी सुबह टहलाने निकलता है और कभी कभी हमारी टाईमिंग भी मिल जाती है। मुझे यदि दिख जाता है तब मै रोड के दूसरे तरफ चला जाता हूँ। मैने देखा है जिन लोगों ने उन कुत्तों से दोस्ती करने की कोशिश की वे उनके बदन पर सीधा चढ़ ही जाते है। डरता हूँ कहीं हमें भी नजदीक पा कर दोस्त ही नहीं समझने लगे।



भालू

ऐसा नहीं है कि मुझे किसी कुत्ते से दोस्ती ही नहीं थी। मेरे ससुराल में एक कुत्ता था भालू, उसका नाम था भई। तब काठमांडू (मेरा ससुराल) के लिए बीरगंज से सुबह सवेरे बसें चलती थी। और शाम तक ही काठमांडू पहुंचती थी, पर 1975-76 में एक बार मै अकेले यात्रा कर रहा था और 11-12 बजे तक बीरगंज पहुचां फिर भी बोर्डर पर ही एक बस मिल गई और मैं रात के 11 बजे काठमांडू पहुंचा। तब रिक्शा भी चलता था पर कोई रिक्शा या टैक्सी नहीं मिला और मजबूरन मुझे पैदल ही घर तक जाना पड़ा। जैसा डर था गली में घुसते ही कसाई टोल के खतरनाक कुत्ते पीछे पड़ गए । मै डर रहा था पर बिना panic में आये घर के नजदीक तक पहुँच गया। तब ही भालू आ गया और महीनों बाद मिलने पर भी मुझें पहचान गया। फिर तो गली के सारे आवारा कुत्ते भाग गए क्योंकि ये वाला एरिया भालू का था । भालू के बारे में बहुत सी कहानियाँ है कभी उस पर ही ब्लॉग लिखूगां। अभी के लिए बस इतना ही।

Tuesday, May 17, 2022

सुल्लूरपेट और आस पास २००३... भाग २ (#यात्रा)


पिछले भाग में मैंने लिखा था की अपने सुल्लुरपेट प्रवास के दौरान हम लोग नजदीक के कुछ और भी जगहें घूमनें गए जैसे नालपट्टू पक्षी विहार, एक गाँव जहाँ सिल्क और हैन्डलूम का काम हर घर में होता है, नैल्लोर का एक प्रमुख मंदिर । उनके बारे में प्रस्तुत हैं यह ब्लॉग ।
मेरे सहकर्मियों की पत्नियां एक छोटे गॉव के दुकान से हैंडलूम और रेशम की साड़ियां खरीदने जाया करती थी और उन्हें पता चला की नज़दीक के एक गावं में हर घर में कपड़े बुने जाते हैं । एक दिन हमने उस गावं को देखने का फैसला किया । पता चला वह बुनकरों गॉव सुल्लुरपेट से करीब १६ km दूर हैं नाम है करिपक्कम। बस क्या था एक रविवार हम चल पड़े । रास्ते में देखा (२००२ की बात हैं ) हर गांव में स्कूल थे बिजली थी । फख्र की बात थी आंध्र प्रदेश के लिए । खैर करिपक्कम पहुंचने पर वहां के मुखिया से मिले और उन्होंने सारे गॉव का सैर करवाया । शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहां कपड़ें बुनने का करघा न हो । सूती और रेशमी दोनों तरह के कपडे बुने जाते थे वहां । एक दुकान भी थी वहां जहाँ कपड़े ख़रीदे जा सकते थे और हमने ख़रीदे भी बहुत सारे । यहाँ बुने सिल्क या कॉटन साड़ी को पतुर साड़ी कहते हैं , क्योंकि पतुर नज़दीक का एक ऐसा ही बुनकरों का एक गावं हैं ।



दूसरी जगह जिसका ज़िक्र मैं करने वाला हूँ वह हैं नालपट्टु पक्षी विहार यो तो हम रोज़ पुलिकट लेक क्रॉस कर साइट जाते और रोज़ जल पक्षी देखते पर नेलपट्टु का अलग महत्त्व था । यह हमारे मकान से करीब २० km दूर नेल्लोरे के रास्ते में था और हम वहां दो बार गए । इस अभयारण्‍य में कई प्रकार के अनोखे पक्षी देखने को मिलते है जैसे - लिटिल कोरमोरंट, पेंटेड स्‍टॉर्क, वहइट आईबिस और स्‍पॉटेड बिल्‍ड पेलीकन आदि। इस अभयारण्‍य की यात्रा का सबसे अच्‍छा समय अक्‍टूबर से मार्च के दौरान होता है। इस अवधि में कई सुंदर चिडियों को निहारा जा सकता है। टी स्पॉट-बिल पेलिकन के लिए एक महत्वपूर्ण प्रजनन स्थल है। नेलापट्टू में दो प्रमुख plant समुदाय हैं, बैरिंगटनिया दलदली वन और दक्षिणी शुष्क सदाबहार झाड़ियाँ। नेलापट्टू पक्षी अभयारण्य में लगभग 189 पक्षी प्रजातियां पाई जा सकती हैं, जिनमें से 50 प्रवासी हैं। स्पॉट-बिल्ड पेलिकन के अलावा, यह ब्लैक-हेडेड आइबिस, एशियन ओपनबिल, ब्लैक-क्राउन नाइट हेरॉन और लिटिल कॉर्मोरेंट के लिए एक महत्वपूर्ण प्रजनन स्थल है। अभयारण्य में आने वाले अन्य प्रवासी जल पक्षियों में यूरेशियन कूट, भारतीय स्पॉट-बिल्ड डक, ग्रे हेरॉन वैगेरह शामिल हैं।



तीसरी जगह जिसके बारे में मैं बताना चाहता हूँ वह नेल्लोर का एक प्रमुख मंदिर हैं । श्री रंगंथास्वामी मंदिर भगवान रंगनाथ को समर्पित है जो भगवान विष्णु के विश्राम स्वरूप हैं। यह मंदिर, जिसे तलपागिरी रंगनाथस्वामी मंदिर या रंगनायकुलु भी कहा जाता है, नेल्लोर के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। यह पेन्ना नदी के तट पर स्थित है और माना जाता है कि इसका निर्माण 12वीं शताब्दी में हुआ था। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक पहले एक गोपुरम है, जिसे गैलीगोपुरम कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "हवा का गोपुरम"। यह गोपुरम लगभग 70 फीट ऊंची है और इसके ऊपर 10 फीट सोने की परत चढ़ा हुआ है, जिसे कलशम कहा जाता है। गोपुरम का निर्माण येरागुडीपति वेंकटचलम पंथुलु ने करवाया था। हर साल मार्च-अप्रैल के महीने के दौरान एक भव्य त्योहार मनाया जाता है। इन्हें ब्रह्मोत्सवम कहा जाता है।



जब बात निकली है तो उस समय चेन्नै के साप्ताहिक ट्रिप के बारे में जरूर बताऊंगा। सबसे पहले तब की बात जब हमारे छोटे बहनोई चेन्नै शिफ्ट किए। अकेले आए थे। एक उपनगरीय मोहल्ले में एक घर किराए पर ले लिया था। एक दिन रविवार को उनके बुलावे पर हम लोकल ट्रेन पकड़ कर उनके यहाँ पहुच गए । वे हमें स्टेशन लेने आए और हम दस मिनट में मकान के दरवाजे पर खड़े थे। दरवाजा pull to lock वाला था। और अब शुरू हुआ चाभी खोजने का episode. जब सारे पॉकेट ढ़ूढ लिया तब यह कनफर्म हो गया कि चाबी घर के अंदर ही रह गया। बहनोई जी ने कहा पड़ोसी के यहा डुप्लीकेट चाभी रखा है। पर भगवान जाने क्या चाहता था। पड़ोसी के यहाँ सिर्फ बुढ़ी सास घर पर थी और उन्हें पता ही नही था कि चाबी कहाँ है। बहुत सारी चाबियाँ हमारे पास ला कर रख दी उन्होंने । उसमें कोई घर की चाभी नहीं थी। खैर जब हम घर के अंदर न जा सके तो हम लोगों ने समय बिताने के लिए फिल्म देखने और बाहर खाने का निश्चित किया और एक बेकार सी फिल्म देखी और अगली ट्रेन से सुल्लुरूपेट लौट गए। बहनोई साहब ने चिकन बना कर रखा था जो शायद बर्बाद ही हुआ होगा क्योंकि उनका फ्रिज तब तक आया नहीं था। हम लोग अपने चेन्नै ट्रिप में सर्वणा मार्केट जरूर जाते जहाँ तकरीबन सभी घरेलू चीजें बहुत कम दाम में मिल जाते थे और लूट जैसा माहौल बन जाता था। फुड कोर्ट में खाना भी सस्ता और स्वादिष्ट होता था और आईस क्रीम भी गजब का मिलता था। आग लगने की एक दुर्घटना और उससे उपजे कानूनी दिक्कत के कारण सर्वणा स्टोर तब बंद हो गया था। शायद अब खुल गया है जैसा गुगल बाबा बता रहे है।



मेरा ये ब्लॉग पूरा नहीं होगा यदि मैने पंजाबी ढ़ाबा के बारे में नहीं बताया। यह ढ़ाबा 3-4 km दूर नेल्लोर के रास्ते में था और आटा की (तवे वाली या तंदूरी रोटी) और उत्तर भारतीय स्वाद वाली veg, पनीर की सब्जी, दाल तड़का वैगेरह के लिए हमारे सहकर्मियों ने इस ढ़ाबे को खोज निकाला। हम गाहे बेगाहे रात का खाना यहाँ खाने आ जाते अक्सर एक ग्रुप में और चारपाईयो पर या कुर्सी पर बैठ कर खाते। ढ़ाबा का मालिक दाढ़ी बढ़ाए और सर पर पगड़ी बांधे पंजाबी जैसा दिखता। हम बहुत दिनों तक इसे authentic पंजाबी ढ़ाबा ही समझते रहे। लाजवाब पनीर की सब्जी, गरम गरम रोटी और दाल तड़का हमारा विश्वास मजबूत ही करता। पर एक दिन उसे किसी ने भोजपुरी में अपने नौकर को डांटते सुना तो हम उससे पूंछ बैठे। हमारा अनुमान सही निकला जब उसने बताया कि वह बिहार से है और पंजाबी ट्रक ड्राईवर को आपने ढ़ाबे पर रोकने के लिए ही उसने ढ़ाबे का नाम और अपनी हुलिया पंजाबी की भांति कर रखा है। पता नहीं यह ढ़ाबा है या नहीं क्योंकि रोड एक्सप्रेस हाई वे में तब्दील हो रहा था और एक्सप्रेस हाई वे किनारे ढ़ाबा तो नहीं रख सकते।



पंजाब ढाबा. सुलुरुपेट नेल्लोरे रोड

Saturday, May 14, 2022

सुलुरपेटा के आस पास या थोड़ी दूर तक 2003- प्रथम भाग ( #यात्रा)


मेरी घुमक्कड़ी में सुल्लुरपेट का बड़ा स्थान हैं। 2000-2003 के बीच मै श्रीहरिकोटा में पोस्टेड था। श्रीहरिकोटा में family accommodation नहीं था इसलिए हम और कई सहकर्मी सुलुरपेट में किराए के मकानों में रहते थे। हम भी स्टेशन से सिर्फ 200-300 मीटर दूर एक किराए के मकान में रहता था। हमारे श्री हरिकोटा ऑफिस के हेड श्री राजेश गुप्ता जी भी नजदीक ही रहते थे। हमलोग कम्पनी कार से ही साथ साथ रोज 25 km दूर श्रीहरिकोटा स्थित प्रोजेक्ट ऑफिस जाते और कुछ ही दिनों में पारिवारिक रिश्ता बन गया उन लोगों से और हमारा 4 लोंगों का एक घुमक्कड ग्रुप बन गया। चैन्नै का तो हर रविवार को प्रोग्राम बन ही जाता था, वहाँ मेरी छोटी बहन जो रहती थी। दूसरे मैरी बेटी-दामाद हैदराबाद में थे जबकि बेटी की पोस्टिंग बैंगलोर में थी, यानि घूमने फिरने की काफी जगहें तो थी ही बहाने भी कम नहीं थे। खैर अपने श्रीहरिकोटा - सुलुरपेटा प्रवास के दौरान चेन्नै के सिवा पांडिचेरी, श्रीकालहस्ती, तिरुपति, नेल्लोर, श्रीशैलम, हैदराबाद भी घूमने गए । नज़दीक के मदिर और सिल्क साडी बनाने वाली एक गॉव भी गए थे हम लोग । धीरे धीरे सभी यात्राओं के बारे में लिखूंगा अभी सिर्फ सलुरुपेट - श्रीहरिकोटा के बारे में बताऊंगा ।
सबसे पहले सुलुरपेट (जैसा हमने तब देखा था ) के बारे में कुछ बातें । १९९८-९९ में मेरी कंपनी, जो साधारणतया स्टील प्लांट के कार्य करती हैै, - ISRO के नए उपग्रह के लॉन्च पैड के डिज़ाइन, सप्लाई से लेकर उसके सिविल कार्य, उसे स्थापित / कमिशनिंग के काम का tender भरती है और मैं पहली मीटिंग में presentation देने भेजा जाता हूं और उस टीम का हिस्सा बन जाता हूँ । सुलुरपेट स्टेशन एक्सप्रेस ट्रैन के लिए चेन्नै से एक पहले वाला स्टेशन है । दूरी 80 km ! Site के लिए लोकल purchase या ispection हो या काम से मुम्बई, पूना वैगेरह जाना हो चैन्ने ही सबसे नजदीक शहर, स्टेशन या airport था। और वहाँ का श्रावना भवन घरेलू समानो का लोकप्रिय मार्केट। सुलुरपेट से चेन्नै के लिए लोकल ट्रैन भी चलती है । सुलुरपेट एक छोटा सोया हुआ सा क़स्बा हैं जहा तब रात में रुकने के लायक सिर्फ एक लॉज था वह भी शायद ही पसंद आये किसीको। अब सुनते है कुछ ठीक ठाक हॉटल खुल गए है । सारा क़स्बा स्टेशन के आस पास के ३-४ वर्ग की मि के दायरे में बसा हैं । कोई ३ km दूर इसरो की कॉलोनियां हैं । इसरो का "SHAR केंद्र" रेलवे स्टेशन से 20-25 km दूर श्रीहरिकोटा द्वीप पर है । जब तक यहाँ पोस्टिंग नहीं हुई थी यानि डिजाईन सप्लाई के समय टूर पर ही आते थे और इसरो के SHAR केंद्र के अंदर बने गेस्ट हाउस में रुकते थे । यह बताना जरूरी है की श्रीहरिकोटा भारत के दूसरे सबसे बड़े brackish water lagoon पुलिकट झील में है और प्रवासी पक्षियों का पसंदीदा जगह है। मैं पहली बार रास्ते में इतने सारे पिंक फ्लेमिंगो देख कर आश्चर्य चकित हो गया था ।


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सुल्लुरपेट - मन्नार पोल्लुर मंदिर - चेंगलम्मा मंदिर MAP

२००० में इसरो के दूसरे लांच पैड को स्थापित करने का कार्य ठीक-ठाक शुरू हो गया और मेरी पोस्टिंग यहाँ हो गई । मैंने अपने एक सहकर्मी जो पहले से वहां posted था को एक घर किराए पर FIX करने अनुरोध कर, राँची से मय सर सामान सुलुरपेट ट्रेन से पहुँच गए। हमारी ट्रेन रात में पहुंची, जब कोई कुली नहीं होता है इस स्टेशन पर, 1 मिनट के स्टापेज मे 19-20 नग समान मै उतार न पाता यदि मेरे मित्र न आ गए होते। घर स्टेशन के पूर्व की तरफ था और इतना करीब था की ट्रैन के आने की सिटी सुनने के बाद भी घर से चले तो चेन्नै जाने वाली गाड़ी पकड़ सकते थे । स्टेशन के आस पास से ही हम सारे सामान खरीदते थे रेल लाइन के पश्चिम की तरफ ही मुख्या बाजार था । सुलुरपेट में सब्जी और फल बहुतायत में और कम दामों में मिल जाते थे । एक थोक भाव वाला सब्जी का मार्किट था वहाँ जहाँ हर रविवार हम हो आते । आस पास फलों के 30-40 बगीचे थे और केला, नारंगी, निम्बू, सपाटू, अनार , पपीता, आम बहुत सस्ते में मिल जाते थे । "दक्षिण के आम मीठे नहीं फीके होते है" हमारी ये धरना यहाँ ख़त्म हो गई । रसपुरी सहित अन्य आम के बगीचे आंध्र तमिल बॉर्डर TADA के पास थे । रसपुरी एक बेढंगे गोल आकर के आम था और इसके रेशा रहित मीठे गूदे और पतली आठी का क्या कहना । शायद यह मैसुर कर्नाटक का एक आम है। सपाटपल्ली या चीकू भी बहुत अच्छे और सस्ते मिल जाते थे और हम प्रायः रेलवे क्रोसिंग के पास से 5-6 रू का चिकू रोज ही ले आते । ज्यादा फल सब्जी खरीद कर रखने का साधन न था। पोस्टिंग टेम्पोरॉरी था फ्रिज लेकर नहीं आए थे हम।
ब्लॉग के इस प्रथम भाग में सुल्लुरपेट के आस पास के ही कुछ जगहों की बातें करना चाहता हूँ । सबसे पहली जगह जो हम कई बार गए वो हैं
चेंगलम्मा मंदिर जो एक देवी मंदिर हैं । यहाँ हर छुट्टी के दिन पहुंच ही जाते थे। हमारे घर से सिर्फ २ की मि दूर था ये मंदिर । चौथी शताब्दी में बने इस मंदिर में स्थापित प्रतिमा के बाएं भाग में पार्वती दाएं भाग में सरस्वती और बीच में लक्ष्मी को दर्शया गया हैं । इसलिए इसे त्रिकाल चेन्गली भी कहते हैं । हर शुक्रवार को बहुत भीड़ होती हैं यहाँ पर और दिनों में दर्शन आसानी से हो जाता था । भक्तगण मुंडन और अन्य रीति रिवाज़ों के लिए यहाँ आया करते थे ।


चेंगलम्मा मंदिर सुल्लुरपेट


दूसरी जगह जिसके बारे में बताना चाहता हूँ वह हैं

मन्नार पोल्लुर
मन्नारपोलुर आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में सुल्लुरपेटा के पास ’कालिंदी’ नदी के किनारे एक छोटा सा गाँव है। इस गाँव में एक बहुत प्राचीन मंदिर है, जो एक छोटे से गाँव के बीच है। कभी यह एक महत्वपूर्ण गाँव रहा होगा, निश्चित रूप से सुल्लुरपेटा जो कि काफी बाद का settlement है से कहीं अधिक महत्वपुर्ण होगा। मन्नारपोलुर के बारे में यह कहने का आधार यह है कि यह मंदिर 10 वीं शताब्दी यानि चोला साम्राज्य काल का है। इस मंदिर के अलावा चित्तूर जिले में श्रीकालहस्ती तक या नेल्लोर तक कोई अन्य महत्वपूर्ण मंदिर नहीं है।
इस मंदिर (अलघु मल्लारी कृष्णा स्वामी मंदिर) की एक छोटी सी कहानी है। सत्राजित नमक व्यक्ति भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। उसके भक्ति से प्रसन्न हो कर सूर्य देव ने उसे स्मयन्तक मणि भेंट में दे दी । सूर्य के सामन चमक वाली मंदिर में स्थापित कर दी गया । ये मणि रोज़ आठ भर सोना दिया करती और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक दिन कुछ प्रसंगवश श्री कृष्ण ने सत्राजित को उस मणि को राजा उग्रसेन को दे देने के लिए कहाँ पर सत्राजित ने उनका कहा लोभ वश नहीं माना। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को गले में धारण कर शिकार खेलने चला गया जहाँ सिंह ने उसके घोड़े और उसे मार कर खा गया और उससे मणि ले लिया । सत्राजित ने कृष्णा पर दोष लगाया तब भगवान् खुद मणि खोजते वन में गया पता चला सिंह को एक ऋक्ष ने मार डाला था और अब मणि ऋक्षराज जाम्ब्वान के पास था और मणि के लिए श्रीकृष्ण और जाम्ब्वान के बीच भीषण मल्ल युद्ध हुआ और जब जाम्ब्वान ने भगवान को पहचान लिया तो मणि तो लौटाया ही अपनी कन्या का विवाह भी कृष्ण के साथ कर दिया । कहते है वह युद्ध यहीं हुआ था। उधर जब सत्राजित को अहसास हुआ की उन्होंने कृष्णा पर झूठा कलंक लगाया था तो उसने भी कलंक दूर करने के लिए अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह कृष्णा से कर दिया । इस कारण इस मंदिर में कृष्णा के साथ जाम्ब्वती और सत्यभामा की मूर्ति की पूजा होती हैं और द्वार पाल के रूप में सुग्रीव और जांबवान है । एक अलग मंदिर रुक्मिणी (सौंदरावल्ली थायर के रूप में) । वेंकटेश्वरा की मूर्ति बायें तरफ हैं । राम दरबार भी हैं यहाँ ।



मल्लार पोल्लूर मंदिर

तीसरी जगह जिसके बारे में मै कुछ बताना चाहता हू वह है एक दरगाह। यही वो दरगाह है जहाँ A.S. दिलीप कुमार ने अपने बहन की बीमारी ठीक होने की दुआ मांगी और वो कूबूल हो गई और दिलीप कुमार ने इस्लाम कबूल किया और बन गए A.R. RAHMAN । भारत के ऑस्कर जीतने वाले संगीतकार। कहा जाता है दरगाह स्थित कब्र हर साल कुछ इंच बड़ी हो जाती है। जब हम गए थे यह 100 फीट से भी ज्यादा लंबी थी। दरगाह वेनाडू द्वीप पर है। जाने का रास्ता तब बहुत ही खराब था । सुना है ए आर रहमान ने कच्चे दरगाह को पक्का करवा दिया है। जाने का रास्ता भी उन्होंने ही बनवायााथ , शायद ठीक भी करवा दिया हो अबतक।


photo curtsey viharadarshani.in अन्य सभी फोटो लेखक के कैमरे से

हम लोग नजदीक के कुछ और भी जगहें घूमनें गए जैसे नालपट्टू पक्षी विहार, एक गाँव जहाँ सिल्क और हैन्डलूम का काम हर घर में होता है, नैल्लोर का एक प्रमुख मंदिर । उसके बारे में अगले ब्लॉग में।

Thursday, May 12, 2022

सप्तश्रृंगी की एक स्मरणीय #यात्रा




2018 में शायद साईं ही हमारी घुमक्कड़ी पर मेहरबान थे कि कई यात्राओं का अवसर इस साल मिला। उन्हें पता था कि अगले दो साल कोरोना (Covid 2019) और अन्य व्यक्तिगत कारणों से हम कहीं घूम नहीं पाएगें। शिर्डी चलने का बुलावा हमारे घुमक्कड़ बहनोई कमलेश जी का आया तो हम आनन फानन में तैय्यार हो गए। प्रोग्राम दुर्गा पूजा के तुरंत बाद चलने का था। पूजा के समय शिर्डी में बहुत अधिक भीड़ होती है और पूजा के समय हम पैतृक शहर जमुई जहां जैन तीर्थांकर भगवान महावीर का जन्मस्थान भी है जाने वाले थे जिसका यात्रा विवरण का लिंक मैंने नीचे दे रखा है। जिस भी ट्रेन में जगह मिली मैंने उसी राँची से मनमाड का टिकट बुक कर लिया। उस दिन हटिया से पुणे की स्पेशल ट्रेन थी वास्तव में बहुप्रचारित हमसफर एक्प्रेस ट्रेन थी‌ और मै ट्रेन में चढ़ने के बाद आचंभित हो गया। इस आशंका से कि किसी गलत ट्रेन में तो नहीं चढ़ गए, टीटी से कनफर्म भी कर आया। मैने ने हमसफर एक्सप्रेस से जाना है जाने बिना ही बुकिंग कर ली थी। अब समझ में आया टिकट का किराया ज्यादा क्यूं था और ट्रेन में इतनी सीटें खाली क्यो थी। राजधानी वाला टिकट मोडल के कारण देर से बुक करने पर भाड़ा बढ़ता जाता है। हमने सुविधाओं पर ध्यान दिया तो पाया कुछ promised सुविधाएं तो दी गई पर कई सुविधाएं नहीं दी गई या अधुरी थी। 3-3 घंटे के स्टाप वाले ट्रेन में पैंट्रीकार न रहना खल गया।

जैन तीर्थ लछुवार, शक्तिपीठ नेतुला, जमुई यात्रा पर मेरा ब्लॉग
हम सफर एक्सप्रेस पर मेरा ब्लॉग

इसी साल की गई उदयपुर और उत्तर पूर्व की यात्रा के बारे में बाद में लिखूंगा।
मै शुरू करता हूं मनमाड से। यानि बताता हूं मनमाड पहुंचने के बाद का किस्सा। ट्रेन घन्टे भर से भी ज्यादा लेट थी। मुझे भुसावल से ही चिंता सताने लगी थी देर होने पर मनमाड से शिर्डी के लिए टैक्सी मिलेंगी या नहीं। मनमाड पहुंचते पहुंचते रात के 8-8:30 बज गए। मैनें मनमाड में कुली ले लिया ताकि जल्दी सही जगह पहुंच सके और पूछने पाछने में समय बर्बाद न हो। लेकिन मर्फी का नियम “What may go wrong will go wrong” लागू हो गया और सारी टैक्सियाँ और औटो हमारे पहुंचने तक भर गई। मै शेयर टैक्सी safety के कारण ही लेना चाहता था ताकि हम दोनो के आलावा भी और यात्री साथ रहे।शिर्डी में होटल बुक था, नहीं तो मै रात मनमाड के किसी होटल में रात गुजार लेता। एक बस का स्टॉफ शिर्डी शिर्डी चिल्ला रहा था। उसमे बैठ गया। करीब आधे घन्टा चिल्लाने पर इक्का दुक्का सवारी ही और मिली तो बस वाले ने “बस नहीं जाएगी” की सूचना दे दी। तब तक हमारा कुली जो जिसने टैक्सी या बस पकड़ावा देने का वादा किया था चला गया। अंत में एक झंखार दिखने वाली मारुती कार वाला रिजर्व करने पर चलने को तैय्यार हुआ। सिर्फ हमें ले जाएगा का वादा कर उसने दो सवारियां और बैठा ली उनमें एक महिला थी तो मै अश्वस्त हो गया कि यात्रा safe ही होगी। हाई वे में रात में छोटी गाड़ी से चलना कितना खतरनाक है तब पता चला। जब जब कोई ट्रक और बस सामने से आ रहीं हो तेज हेड लाइट के चलते चालक कुछ देखने में असमर्थ हो जाता। या जब ओवर टेक करने वाला गाड़ी छोटी गाड़ी को रोड से नीचे उतरने को मजबूर कर देते। शायद मेरा भाग्य ही खराब था कि आधे रास्ते में गाड़ी भी खराब हो गई । ड्राईवर किसी तरह कोपरगाँव से पहले एक पेट्रेल पंप तक गाड़ी ले आया और हम चाय वाय पीते पीते गाड़ी ठीक होने का ईंतजार करने लगे। पर न गाड़ी ठीक हुई न हीं धक्का वैगेरह देना ही काम आया। अब हमारे पास किसी और गाड़ी के लिए इतंजार करने के सिवा कोई चारा न था। करीब 15-20 मिनट के बाद एक औटो रुका और हमारे ड्राइवर ने हमें उसमें बैठा दिया। खैर ॐ साई राम जपते हम शिर्डी पहुंचे। पर टैक्सी वाले ने हमें MTDC होटल तक पहुंचाने से मना कर दिया। मेरे बहस करने पर होटल का रास्ता दिखा कर बोला “वो तो रहा आपका होटल”। होटल नजदीक था। और हम पैदल ही दो मिनट में पहुंच गए। आशा है आप ऐसी स्थिति में मनमाड में ही रुक कर सुबह ही शिर्डी जाएगें। या फिर कोपरगाँव स्टेशन जो शिर्डी के करीब है उतरेंगे। कौपरगाँव शिर्डी के काफी नजदीक है। हमारी ट्रेन का स्टापेज भी कोपरगांव था पर मैं आश्वस्त नहीं था कि यहां औटो वैगेरह मिलेंगा या नहीं। ।मेरी सलाह है आप कोपरगाव ही उतरिए।

शिर्डी में 3 दिन रूकने और मंदिर में साई चरित्र का पाठ कर हमारे लौटने का दिन आ गया। पिछली शिर्डी यात्रा के दैरान मेरा सप्तश्रृगीं जाने का प्रस्ताव हमे इसलिए ड्रॉप करना पड़ा था क्योंकि कुछ 510 सिढ़िंयाँ चढ़नी पड़ती। इस बार एक दिन Free था घूमने के लिए। और मैने पढ़ रखा था कि सप्तश्रृगीं में अब रोप वे लग गया है। बस मेरा प्रस्ताव इस बार मान लिया गया और एक टैक्सी ठीक कर हम सप्तश्रृंगी की यात्रा पर निकल पड़े।


सप्तश्रृगीं जाते समय हम जल्दी पहुँचना चाहते थे क्योंकि शाम तक लौट आना था, पर ड्राइवर को अपने घर /अपने गांव जाना था , वहां जाने के बाद कुछ समय रुक कर ही आगे चला। इस अकेले ड्राइवर ने सप्तश्रृंगी के लिए हां की थी इसलिए हम चुप थे। उसे पान मशाला की आदत थी और एक खास ब्रांड के पान मशाला खोजने खरीदने कई बार दुकानों में रूका और काफी समय भी लगाया । रास्ते में कई सुंदर दृश्य मिले हरे भरे जंगल पहाड़ हमारा मन मोह रहे थे। सतपुड़ा के पहाड़ो का एक अलग मोहक रूप यहाँ दिख रहा था। हम करीब 5 घन्टे में सप्तश्रृगीं पहुंच गए। किसी होटल के पार्किंग में गाड़ी पार्क कर हम रोप वे स्टेशन पैदल चले आए। रोप वे स्टेशन में जा कर पता चला यह फनीकुलर रोप वे है और भारत का पहला फनीकुलर। फनीकुलर रोप वे में कार तीरछे बने रेल पर चलता है और एक Winch में लिपटे रोप से उपर खींचा जाता है। साधरणत: दूसरे रोप वे हिंडोले हवा में लटकी रोप पर चलता है। सप्तश्रृगीं में माता की अठारह भुजी मुर्ति है। पहाड़ के सामने मूर्ति की नक्काशी की गई है । इतनी ऊंचाई पर खड़े होने की जगह न होते हुए भी कैसे यह अदभुत मुर्ति गढ़ी गई होगी यह शोध का विषय है। ऊपर का रोप स्टेशन , मदिर परिसर-क्यू लगाने की जगह तो हाल में बनी लगती है । यह पीठ महाराष्ट्र के साढ़े तीन शक्तिपीठों में से एक है। एक अर्ध पीठ। ऐसी मान्यता है कि यहाँ देवी सती की दाहिनी भुजा गिरी थी। भीड़ के कारण और लगातार “आगे बढ़ो” सुनते देवी की मूर्ति का एकदम नजदीक से फोटो नहीं खीच पाए। पर लाईन में खड़े खड़े एक ठीक ठाक फोटो खींचा मैनें । वह मैने इस ब्लॉग में डाला है वो फोटो।
रोप वे स्टेशन साफ सुथरा आधुनिक सुविधाओ से लैश विश्व स्तरीय स्टेशन है। अंदर एक अच्छा Food Court भी है। दर्शन से लौट कर दोपहर का खाना यहीं खाया हम लोगों नें । यहाँ एक फुड काउन्टर का नाम था “आओ जी, खाओ जी” । यह एक Unique नाम था और याद रह गया। लौटते समय मै और मेरी श्रीमती जी को मनमाड उतर जाना था क्योंकि तड़के सुबह ही हमारी ट्रेन थी। मनमाड के लिए एक मोड़ से रास्ता मुड़ता था। बाकी लोगों को मनमाड से शिर्डी वापस जाना था। हम रात रिटायरिंग रूम में बिताने वाले थे। रास्ते में जोरदार बारिश होने लगी। ड्राईवर को रास्ता भी ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। बारिश और तेज हवा के कारण गाड़ी संभल कर चलानी पड़ रही थी । हमने हवा के दबाब को कम करने खिड़की खोलने का प्रयास किया तो भींगने लगे। जाहिर था कि काफी देर होने वाली थी और सभी चिंतित थे। मेरी ट्रेन सुबह 4:30 पर था ।
हम लोग रात 9 बजे तक पहुंच गए तब तक केयर टेकर रिटायरिंग रूम बन्द कर चले गए थे। हमारे कुली ने हमें वेटिंग रूम में बैठा कर रिटायरिंग रूम के केयर टेकर को खोज लाया । हम थके थे और तड़के सुबह की ट्रेन थी अत: तुरतं सो जाना चाहते थे। रिटायरिंग रूम प्लेटफार्म पर ही था। हमने उसी प्लेटफार्म पर जो भी मिला खा लिया और सोने की कोशिश करने लगे पर हर 5-10 मिनट पर कोई न कोई ट्रेन का एनाउन्समेट, चाय वाले की “चाय चाय” की पुकार और गुजरते ट्रेन के शोर में सोना नामुमकिन सा था। उसपर यह आशंका की सुबह सोए न रह जाए और ट्रेन छूट जाए। उंघते उंघते ही रात गुजर गई। रेलवे वेब साइट हमारी ट्रेन को “सही समय पर है” दिखा रहा था । हमने सुबह सामान पहुचाने के लिए कुली को कहा था । किसी और को भेजने का वादा कर वो चला गया । पर सुबह न तो कोई कुली आया न हीं कोई और कुली मिला। सब गायब थे। हार कर हम दोनोें साढ़े तीन बजे एक एक सामान कर सामने वाले प्लेटफार्म पर खुद ही ले गए। सभी गाड़ियाँ लेट हो रही थी इस कारण काफी भीड़ थी। बैठने को बेंच खाली नहीं मिला। हम खड़े खड़े ही प्रतिक्षा करने लगे। अब हमारे ट्रन का पहला अनाउंसमेट हुआ पता चला आधे घन्टे लेट है। एक दो ट्रेन निकलने पर बेंच पर बैठने की जगह तो मिल गई पर ट्रेन लेट होते होते दो ढा़ई घन्टे लेट हो गई। पहले से पता होता तो थोड़ा और सो लेते। जब ट्रेन आयी तो धूप निकल आई थी। सबसे मुश्किल तब हुई जब हमारा बोगी एकदम पीछ वाला निकला और हमें दौड़ कर पकड़ना पड़ा हमारा लोअर बर्थ था और सुबह होने पर सभी यात्री उस पर बैठे थे । हम दोपहर के पहले बर्थ पर लेट भी नहीं पाए। इतने विलंब पर चलने पर भी ट्रेन हमारे गंतव्य स्टेशन पर समय पर ही पहुंच गई और हम एक अति प्रतिक्षित यात्रा की सुनहरी यादें समेंटे घर लौट आए। आप खुश रहे दूसरा यात्रा वृत्तांत फिर कभी।