Wednesday, September 1, 2021

मेरी स्वाद यात्रा - जगह जगह का खाना भाग-२

मेरी स्वाद यात्रा भाग-1 के आगे

सबसे पहले पिछले भाग में हुई टाईपिंग की गलतियों के लिए क्षमा करें । अब ठीक कर दिया है। कुछ तकनीकी कारणो से हो जाती है ये गलतियाँ। लैपटॉप में हिंदी टाईप करने के लिए मै online converter प्रयोग में लाता हूँ और गलतियाँ बाद में मोबाईल (जिसमें हिंदी कीबोर्ड है) से सुधारता हूँ। लेकिन कुछ बाते छूट भी गई थी, जैसे माँ का बनाया घी भात और भर्ता वास्तव में परीक्षा के दिनों का Brunch होता था क्योंकि इन दिनों स्कूल में टिफिन या Lunch break नहीं होता था। अन्य दिनों में हम लंच में घर आ कर खाना खा कर जाते थे। दूसरी बात जो बताना भूला वो था बेगुसराय के मक्की की रोटी का साईज। मै तो एक चौथाई या ज्यादा से ज्यादा आधी रोटी खा पाता था जबकि बड़ों के लिए भी पूरी एक रोटी भारी पड़ती थी। मुझे दूध रोटी का नाश्ता भाता था और दूध के साथ यह मक्की की रोटी भी पसंद थी। मक्की की रोटी चने के साग जिसमे सरसो का कच्चा तेल डाला गया हो और धूप में अचार की तरह रखा गया हो के साथ भी मजे ले कर खाया जाता था ।
मैं कोई फूडी नहीं हूँ न हीं जगह जगह के सभी तरह के व्यंजन को चख कर स्वाद लेता हूँ न ही मुझे यह पता चलता है की किस खाने में क्या डाला गया हैं । मैंने बिना कोई फरमाईश के परोसे गए सभी तरह के खाने खाये है और ज्यादातर लोगों द्वारा खाये जाने वाले खाना ही होटलों में भी खाया हैं । यह ब्लॉग मेरे द्वारा साधारणतः खाये खाने के अनुभव मात्रा हैं । कुछ गलत लिखा हो तो माफ़ करे ।

अवसरों पर बिहारी व्यंजन

सबसे पहले बताना चाहूंगा कि हमारे देश में और बिहार में भी हर मौसम / महीने के क्या खाना या क्या करना चाहिए यह हमारे शास्त्रों में बताया हुआ हैं । "चैते चना, बैसाखे बेल, जैठे शयन, आषाढ़े खेल, सावन हर्रे, भादो तीत। कुवार मास गुड़ सेवै नित, कार्तिक मूल, अगहन तेल, पूस में करे दूध से मेल। माघ मास घी-खिचड़ी खाय, फागुन उठ नित प्रात नहाय।" इसके सिवा शादी और दूसरे अवसरों पर भी क्या खाना है उसके भी नियम हैं । यहा तक कि किस महिने मे क्या नहीं खाना चाहिए वह भी बताया गया है।

बिहार/ झारखण्ड में भी अवसरों पर और हर मौसम में अलग अलग तरह के व्यंजन खाये जाते हैं । जो शायद उपर लिखे सुत्र पर आधारित है। मैं इस भाग में सबसे पहले इसी बात पर अपना अनुभव या स्वाद यात्रा शेयर करना चाहता हूँ । साल के प्रारम्भ में ही आ जाता हैं पौष का महीना और यह महीना है पिठ्ठा खाने का । माँए अवश्य अपने बच्चो को पूष में पिठ्ठा बना कर खिलाती है। पिठ्ठा चावल के आटे में फिलिंग कर बनाया जाता है और किसी न किसी रूप में पूरे भारत में बनाया खाया जाता है पर बनाने का बिहारी तरीका थोड़ा अलग है । मैंने एक ब्लॉग पिट्ठा पर लिखा था पिठ्ठा पौषाहार उसे भी पढ़ सकते हैं । दूसरा मौका तुरंत बाद माघ के महीने में आ जाता है मकर संक्रांति जिसे बिहार में कहते ही है दही चूड़ा या तिला संक्रांति यानि वो पर्व जिसमे दही चूड़ा तिल के साथ खाया जाता हैं । हम जब बच्चे तो इस पर्व का इंतज़ार करते थे क्योंकि तिलकुट के आलावा भी कई प्रकार की तिल से बनी मिठाईयां खाने को मिलता है जैसे तिल का लड्डू, तिल कतरी, तिलवा, रेवाड़ी तो खाने मिलता ही है कई और चीज़े भी मिलती है जैसे मुढ़ी, चुड़े की लाई,अनरसा , लट्ठो चिनिया बादाम (मूंगफली) के चक्की वैगेरह। इतने तरह की मिठाईया आती थी की सभी को खा भी नहीं पाते। मिथिला में चूड़ा दही खाने का एक अलग अनुभव मिला । यदि आप कही खाने पर बुलाये गए हो तो चूड़ा जितना लेना वो एक ही बार ले ले क्योंकि परसन में सिर्फ दही , मिठाई परोसी जाती हैं ।

पिठ्ठा गुड़ और दाल भरा हुआ

तीसरा अवसर जो आता हैं वो है फागुन - चैत में ( होली पर मेरा ब्लॉग भी देख सकते हैं )होली का मौका । कहना न होगा की ये मौका है पिडुकिया , मॉल पुआ, सूखा पुआ, और दही बड़े का । सभी बहुत पसंद है मुझे ।
फिर मौका आता हैं मेष संक्रांति का जिसे बिहार, झारखण्ड में कहते हैं सतुआनी और मिथिला में जुड़ शीतल । यह मौका है सत्तू (Powdered roasted Bengal gram ) में प्याज़, कच्चे आम और नमक को मिला कर पानी से सान (गूंध) कर खाने का । इसमें अचार के तेल मिला लेने से मज़ा १० गुना हो जाता हैं । ये तो स्वादिष्ट होता ही हैं पर मैं खाता था चने और जौ की सत्तू को दूध से सान कर उसमे घी, चीनी डाल कर - मजेदार होता था। सत्तू बिहार का एक फ़ास्ट फ़ूड हैं जो स्वास्थ्यकर भी हैं । अब तो यह पूरी दुनिया में मिलता हैं पर मैंने देखा था कैसे कोर्ट की तारीख पर आने वाले लोग अंगोछे में ही सत्तू सान कर मुठ्ठल्ले बना कर खा लेते थे मेरे स्कूल के कुएं की जगत पर । मिथिला में इस दिन बासी खाते कहते हैं क्योंकि इसका तासीर ठंडा होता है ।

गर्मियों में कई तरह के फल मिलते है और खाये जाते हैं और मैं भी खाता हूँ और पसंद करता हूँ । जिस चीज़ का जिक्र सबसे पहले करना चाहूंगा वो है आम । बचपन में बेगूसराय में नाना के कलम बाग़ से बैल गाड़ी भर आम आ जाते और पच्छिम वाले रूम में रखा जाता । धीरे धीरे वे पकते और एक बाल्टी आम रोज़ निकाले जाते और पानी में डाल दिए जाते । तब आम काट कर नहीं खाये जाते थे। पूरे आम को थोड़ा चूस कर और फिर मुंह से ही छील कर खाये जाते। दोपहर खाना खाने के बाद हम खाना शुरू करते ३-५ आम हर बड़ा बच्चा (मेरे मौसेरे भाई बहन) खा लेता पर मैं सबसे छोटा था और एक खाते खाते ही बाल्टी खाली हो जाता। मालदह, चौसा, जर्दालु, गुलाब खास वैगेरह तरह तरह के आम आते थे और हर महीने में अलग अलग वैरायटी। सीपिया, सुकुल के आते आते आम का मौसम ख़तम पर आ जाता । उस रूम में ताला लगा रहता एक बार हमारे मौसेरे बड़े भाई ने रूम की नाली में डंडा डाल कर फुलबारी के तरफ से आम निकलने की कोशिश के थी पर सफल नहीं हो सके थे । आम नाली के छोटे छेद में अटक गया और अगले दिन चोरी की कोशिश पकड़ी गयी । कलम बाग से ही लीची भी आता। थोड़े समय के लिए ही आता पर अत्यंत रसीला और मीठा था यह सुपरहिट फल।

आम, लीची खरीद कर खाने में कहाँ आता है वो स्वाद और वो संतोष ! जब कॉलेज में था तब दीघा का दूधिया मालदह आम का तो चस्का ही लग गया था पतला छिलका पतला आठी वाला यह आम गूदे से भरा होता है । और इसलिए लोग कहते है " आम फलों का राजा हो न हो मालदह आम आमों का राजा आवश्य हैं ।" कई आम बहुत ज्यादा मीठे होते पर सुंगध नहीं होती tang नहीं होती । मालदह और लंगड़ा आम में यह सब होता है । इसलिए यह है राजा आमों का । एक और फल जो गर्मी में अभी भी पसंद आता है वह हैं रांची के हरे छोटे साइज वाले लाल गूदे वाले मीठे तरबूज । यह पटना, जमुई में मिलने वाले तरबूज से ज्यादा मीठे होते है और ऊपर से चीनी नहीं डालनी पड़ती थी। बेल भी गर्मियों में खाये जाते पर इसके बीज निकलना एक कठिन कार्य है और इसीलिए यह उतना पसंद नहीं था मुझे । पर मेरे बच्चो को पसंद था इसलिए धीरे धीरे मुझे भी अच्छा लगने लगा । अब मेरी पोती को बहुत पसंद हैं तरबूज़ ।

बारिश के समय पकोड़ा नंबर वन पर आता हैं बहुत तरह के पकोड़े खाये पर मुझे जो पसंद आये वह है प्याज़ के पकोड़े जिसे बिहार में प्याज़ी कहते है इसके सिवा कोहरा ( PUMPKIN ) के फूल का पकोड़ा भी मझे पसंद हैं । दादू को अगस्त के फूल का पकोड़ा , सब्जी पसंद थी और मुझे भी इसका पकौड़ा पसंद था दादू अक्सर मुझे पारस बाबू के यहाँ से अगस्त का फूल लाने भेजा करती थी । दशहरा, दिवाली, भाई दूज और छठ में खाने के व्यंजन तो सभी को पता हैं । दशहरा पर तो मैंने एक ब्लॉग पहले भी लिखा था । मिठाई और मिठाई खा कर अघा जाना दशहरा ऐसा ही होता था मेरा । दिवाली के दो दिन बाद होने वाले भाई दूज का खाना हमेशा मंझली फुआ के होता था और उनके और बेबी दी लिली दी के बनाये खाने के स्वाद के क्या कहने । जैसी परंपरा है खाना परोसने के बाद घी को बहुत ऊंचाई से परोसा जाता - जितना ऊँचा उतनी होगी भाई की उम्र ।

विवाह का खाना - बिहार, दक्षिण और बंगाल का

अब एक ही है अवसर जिसका मैं जिक्र करना चाहता हूँ । वह है विवाह के अवसर पर बनाने वाला खाना । जिस दो रस्मों के बात मैं करूँगा वह हैं तिलक और कच्ची या मड़वे पर का खाना । तिलक में दाल पूरी और खीर खाया जाता है । साथ में सब्जी और मिठाई तो होती ही है । मड़वे पर कच्ची या भात (Boiled rice ) खिलाया जाता हैं । ऐसी मान्यता हैं कि भात अपने सम्बन्धियों के साथ ही खाया जाता है और विवाह के बाद तो दोनों परिवार एक सम्बन्ध में जुड़ जाते हैं । मेरे यहाँ तब नॉन वेज शादी में परोसा नहीं जाता था और कच्ची खाने में लाल साग और कोहरे (pumpkin ) कि सब्जी must होती है । तेल मसले वाले खाना खाने के बाद यह सात्विक खाना बहुत ही स्वादिष्ट लगता हैं। अब मछली भी बनता है पर मंडप पर परोसा नहीं जाता । मंडवे पर दूल्हे के नजदीकी सम्बन्धी बैठाये जाते सम्बन्धी (दूल्हे और दुल्हन के पिता) एक ही थाली में साथ साथ खाते हैं । खाना दही रसगुल्ले के साथ ख़त्म होता । कई लोग जैसे दूल्हे के जीजा फूफा मछली का लोभ छोड़ नहीं सकते और मछली खाने खाना ख़त्म होने से पहले मंडप से बहार आ कर मछली खाते है, दही मिठाई भी मंडप के बाहर ही खा लेते ।

विवाह के खाने की बात चली है तो एक बात जो जेहन में आती है वह है परोस कर खिलाने का चलन समाप्त प्राय: हो गया है। अब तो बस Buffet लगा देते है। लोग अपने पसंद का खाना ढ़ूढते रहते है। बच्चे इस कंपीटीशन में लग जाते है कि किसने कितने बोतल कोल्ड ड्रिंक पिया या कितने आईस क्रीम खाए और बड़े लोग नन भेज के स्टॉल पर भीड़ लगा देते है। किसी लेखक ने ऐसे पार्टी को नाम दिया था चील झपट्टा पार्टी। सब तरह के खाने छोटे से प्लेट में एक दूसरे में मिल भी जाते हैं । किस खाने का स्वाद कैसा था न पता चलता हैं न ही याद रहता हैं । पर लोगों के साथ मजबूरी है कि अब घर में इतने लोग नही होते जो अपना Enjoyment, सजना संवरना छोड़ कर खाना परोसे जैसा मैने अपने बहनों के विवाह में किया था । पर मै भी बिटिया की शादी में कैटरर पर आश्रित था और buffet का इंतेज़ाम ही किया । ऐसे में बंगालयों के पारंपरिक भोज की बात करूंगा जिसका आनन्द मैनें दो बार लिया है मेरे मित्र सुधांशु मुखर्जी के रिशेप्शन में और भांजे संजय की पहली शादी में। यहाँ कभी आपके प्लेट में दो से ज्यादा item नहीं होगें। यदि पूरी और दाल की सब्जी पहले आई तो जब ज्यादा लोग यह खा लेगें तब शायद माछ भात आए। फिर पुलाव मीट । इसी तरह साधारण से खाना और गरिष्ट स्वादिष्ट होता जाएंगा और यदि आपने पहले ज्यादा ले लिया तो अफसोस करेंगे जब मछेर पातुरी, चिंगरी माछ, छेना पायस, या रबड़ी परोसी जाएगी। मिष्टी दोई भी must item होता है।और अंत में आता हैं मीठी चटनी जो ज्यादातर टमाटर और खजूर कि बानी होती है ।


बागुन भाजा और रसोगुल्ला


दक्षिण भारतियों के विवाह

अक्सर सुबह या दिन में ही होता है। ज्यादा आडंबर नहीं होता है यहाँ। 2 ऐसे ही विवाह में भोज खाने का अवसर मिला है मुझे। श्री हरिकोटा में ISRO के एक ईंजिनियर के यहाँ और गुरू वीयूर में मेरी भांजी की सहेली सारण्या के विवाह में। एक प्लेट के उपर गोल कटा केले का पत्ता रखते है । ऐसा करने से पहले वाली एक मुश्किल दूर हो गयी जब साभार, रसम केले के पत्ते से टपक कर टेबल या ज़मीन पर आ जाता था । हर आइटम का जगह निश्चित है इस प्लेट पर । परोसने वाले एक एक कर आते है और ठीक ठीक जगह पर सभी आइटम डालते जाते है । जिस गति से वो परसते है वो कबीले तारीफ होता है। और खाना सही समय पर समाप्त हो जाता है । खाने में वाइट राइस (भात), येलो राइस (लेमन राइस), रेड राइस (टोमेटो राइस) या इसी तरह के चावल के डिश होते है । साभार, रसम, चटनी, अप्पम (पापड़), केला के साथ कई कटोरियों में मोर (मठ्ठा) , ३-४ सब्जी (करी), पायसम और अंत में आता हैं curd rice और पान के बीड़ा ।



अन्य राज्यों का खाना

भारत के अन्य राज्यों में खाए खाने का लंबा लिस्ट है। सक्षेप में सिर्फ कुछ बातें बताना चाहता हूँ। 1979 में पहली बार मै टूर पर तब के बंबई गया तो कई छोटे पर साफ सुथरे रेस्त्रां में नाश्ता करने जाता था तब देखा था कि वहां निगम द्वारा एक तख्ती लगाई गई थी। इस पर उस रेस्त्रां का ग्रेड लिखा होता जो शायद साफ सफाई, खानाnऔर सर्विस की quality के अनुसार दिया जाता होगा। सैंडविच एक लोकप्रिय नाश्ता था यहाँ और चटनी सैंडविच पहली बार यहीं खाया था। खार के ओरियंटल पैलेश हॉटल में २- ३ बार रुका था । जब भी यहाँ रुकता खाना बाहर सामने लगे एक स्टॉल पर जा कर खता था । पहली बार मक्की की रोटी सरसों की साग के साथ यहीं खाई थी। तब एक बार बेगुसराय की मक्की की रोटी और बूंट की साग याद आ गई थी। बंबई जो अब मुंबई है पहले 1969 में आया था और तब पहली बार एक जगह 4 course डिनर खाने गया । गोद में रखने को एक कपड़ा (नेपकिन) और चम्मच, कांटे सजे हुए थे । सभी धीरे धीरे बात कर रहे थे। हम लोगों के सिवा। बेयरा पहले बर्तनो के धोवन जैसा सूप और सूप ब्रेड स्टिक्स लाया। अगल बगल के लोंगों को देख कर पता लगा कि इसे किस चम्मच से खाना है। नमक भी नहीं था पर चिकन के छोटे टुकड़े थे इसमें। बाद में पाया नमकदानी और सॉस टेबल पर ही रखा था। फिर कुछ उबली सब्जियॉ, वाइट पास्ता और ब्रेड आया और फिर आया ब्याल्ड चिकन देख कर दिख धक से रह गया। बहुत बेस्वाद खाना। लोंगों के घूरने से पता चला कि चम्मच प्लेट से टकराने की आवाज हम ज्यादा निकाल रहे थे। इसके बाद आइस क्रीम और अंत में कॉफी SERVE गया । अजीब सा कॉम्बिनेशन ।आखिर में आया गरम पानी और निंबू। तब तक बगल वाले टेबल देख कर हम जान गए थे कि इसका करना क्या है वर्ना शायद पी गए होते। अब वैसा फार्मल रेस्त्रां 5 स्टार में भी नहीं दिखता। डिनर काफी महंगा था 110 रू शायद कुछ मेंबरसिप फीस भी था इसमें जो किसीने पहले बताया नहीं था। मुंबई की भेल पुरी सुन चुका था और 1969 में जुहू बीच पर खाया भी,मैने सोच रखा था शायद पूरी के साथ भेल नाम की सब्जी खिलाते होंगें पर ये तो अपने झाल मुढ़ी का भाई निकला। प्रसिद्द पाव भाजी और बड़ा पाव भी अलग अलग टाइम पर खाया । बड़ा पाव बहुत पसंद आया जबकि किसी लोकल स्टेशन के प्लेटफार्म पर खाया था । मुंबई और नासिक में पहली बार पोहा, शीरा और श्रीखंड भी खाया । पोहा तो अब हमारे नाश्ते में शामिल भी है, शीरा या हलवा तो पहले से ही खाते आ रहे है पर यहाँ ज्यादा घी और ज्यादा चीन डालते हैं । श्रीखंड मुझे तो पसंद है पर मेरी पत्नी को इसलिए नहीं पसंद की ज्यादा मीठा होता हैं यह ।

मालवा का खाना

मालवा यानि इंदौर के आस पास का खाना । मैंने इंदौर के दो जगह में खाने का आनंद लिया है। पहला राजवाड़ा के पास का सराफा और दूसरा छप्पन । क्योंकि मेरी बिटिया ने यही से पोस्ट ग्रेजुएशन किया मैंने इन दोनों जगह जा कर कुछ न कुछ खा आया हूँ । मालवा के खाने और सब जगह से अलग होता हैं जैसे पोहा के साथ जलेबी, हर खाने की चीज़ के ऊपर डाले गए रतलामी सेव यहाँ तक की केक के ऊपर भी । दाल बाटी से लेकर गुलाब जामुन तक, मसाला डोसा से लेकर चाट तक या आइसक्रीम से लेकर लस्सी तक इन दो जगहों में सभी कुछ मिल जाता हैं और लोग खान पान के बहुत शौक़ीन भी है यहाँ । छप्पन में मिलने वाला आग के साथ पान हो या तवा आइस क्रीम । weirdest फ़ूड आइटम यहाँ मिल जायेगा।
इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद के वैभव खंड में एक ऐसा ही फ़ूड कोर्ट हैं जहाँ नार्थ इंडियन, साउथ इंडियन, चीयनीज़, पिज़्ज़ा, बेकरी आइटम सभी मिल जाता हैं । रसगुल्ला हो या केक, वेज थाली हो या गलावटी कबाब, मोमो हो या मसाला डोसा सभी यहाँ भी मिल जाता हैं ।

कोलकाता का खाना

खाने के जिक्र हो और कलकत्ते की ना करूं ? कलकत्ते में सस्ते से महंगा सभी तरह का खाना मिल जाता हैं। हावड़ा स्टेशन के सामने वाले झोपड़ी टाइप रेस्टोरेंट से शुरू करता हूँ । यहाँ भात माछ हो या नाश्ते में कचौड़ी जलेबी गरीब लोग लोग भी खा सकते हैं, चाहे मछली के पीस की मोटाई देख आश्चर्य ही क्यों न हो कि कैसे कटा होगा इतना पतला सा । मुझे १९८८ में कोलकाता हाई कोर्ट हर महीने जाना पड़ता था । वहां देखा दो फ्लोर के छोटे छोटे दुकान थे नीचे चाय और ऊपर पान सिगरेट या मिठाई कि दुकान । ऐसा कही नहीं देखा । कोलकाता मिठाईयों के लिए प्रसिद्द हैं । रसगुल्ले कहा के हैं ? बंगाल वाले नोबिन चंद्र दास को रसोगुल्ला के अविष्कारक मानते हैं । इसके GI टैग को लेकर बंगाल और ओडिसा के बीच थोड़ी अनबन की स्थिति भी हो गयी था । पर अब दोनी को अपने अपने वैरायटी के रसगुल्ला का GI टैग मिल गया हैं । सन्देश भी बंगाल की ही देन हैं। KC दास का रसगुल्ले तो प्रसिद्द हैं ही गंगूराम, गंगूराम एंड संस, गंगूराम ब्रदर्स या गंगूराम ग्रैंडसंस इन नामों के की मिठाई दुकान पूरे कलकत्ते में मिल जाएगी ।

बंगाली मिठाई,कोलकाता और छेना पोडा मिठाई, ओडिसा

कोलकाता में चीन टाउन नाम की जगह हैं । ऐसे तो यहाँ सभी तरह के रेस्टोरेंट हैं पर चीयनीज़ रेस्टोरेंट ज्यादा हैं । इस लोकैलिटी में चीन से आये और कई पुश्तों से रह रहे चीनी जाति के भारतीय नागरिक बसें हैं । EM बाईपास के पास स्थित इस जगह में मैं दो बार खाना खाने गया । मैं तो लज़ीज़ वेज खाना खाया पर (मैं करीब १४ वर्ष वेजिटेरियन रहा था) पर जैसा मेरे दोस्तों से बताया नॉन वेज भी काफी स्वादिस्ट था । यदि अल्कोहल लेना चाहते हैं तो वैसे रेस्टॉरटैंट भी हैं यहाँ । सर्विस भी काफी अच्छा था । मेट्रो सिनेमा के पास एक रेस्त्रां जहाँ मैं जीजाजी के साथ पहली बार गया था बाद में भी कई बार गए पर अब नाम नहीं याद नहीं हैं । उड़ीसा मे एक मिठाई मिलती है छेना पोड़। ये सिर्फ यही मिलेगा । एक बात जो याद आ गयी वो हैं पुरी के जगन्नाथ मंदिर से मिले भोग प्रसाद से । २०१७ में हमने पूजा के बाद भोग प्रसाद की रसीद कटा ली । पांडा जी ने शाम को प्रसाद होटल में पहुँचा दिया । बहुत ज्यादा था हमे डिनर ऑफ करना पड़ा । जब होटल वाले से खाने का प्लेट माँगा और उसे पता चला की हम उसमे भोग खायेगे तब उसने सिर्फ पत्तल का प्लेट दे गया । पता चला भोग को उस जगह रखना भी मना हैं जहाँ प्याज़, लहसुन या नॉन वेज कभी रखा गया हो । होटल वाले ने टेबल पर रखने से भी मना किया । भगवान के छप्पन भोग का ही हिस्सा होता हैं यह । राबड़ी तो बहुत मजेदार था और सब्जिया तो वाह ।


विशाखापत्तनम

विशाखापत्तनम के बारे में दो लाइन लिख कर मैं समाप्त करता हूँ । यहाँ मैं ९० के दशक में करीब ३ साल बिताये । पहली बात जो नोटिस किया वो था यहाँ चाय-पान दुकान से ज्यादा दारु की दुकाने थी । इन दुकानों को रेस्टौरेंट / बार की तरह कुर्सी पर बैठा पिलाने का परमिशन नहीं थी । वे एक डेढ़ पेग का सैंपल देते थे पानी मिला कर और पीने वाले को जल्दी जल्दी पानी की तरह पी लेना होता था । दूसरी बात जो याद रह गया वह हैं डॉल्फिन होटल का खाना । यह कंपनी का एप्रूव्ड होटल था और हमारे कई सहकर्मी यही रुकते थे । डॉल्फिन एक ४ तारा होटल हैं और हैदराबाद के रामोजी फिल्म सिटी वालों का हैं यह होटल। ग्राउंड फ्लोर पर था वेज रेस्टोरेंट वसुंधरा ! हम सब यहाँ का खाना और आत्मीयता भरी सर्विस बहुत पसंद करते। सप्ताहांत में हम सातवे तल्ले पर स्थित होराइजन रेस्टोरेंट में नॉन वेज खाना और कुछ ड्रिंक्स लेने जरूर जाते और खाने के साथ लाइव संगीत का भी मज़ा लेते । गर्म गर्म तवा पर परोसे जाने वाले डिश सिज़्लर यही खाया और कई बार खाया । तीसरी बात जो याद हैं वह है वहाँ के हमारे स्टील प्लांट सेक्टर 8 के गेस्ट हाउस का खाना । दो ब्लॉक का गेस्ट हॉउस था और मैं मेस से दूर वाले ब्लॉक में रहता था । खाना बनते ही इसका सुगंध से पूरा मोहल्ला में फ़ैल जाता और मुझे पता चल जाता की खाना तैयार हैं । यह कमाल था कोरबा, छत्तीसगढ में उगाये जाने वाले दुबराज चावल का का जो फी प्रसिद्ध है । मुझे दो तीन बार कोरबा जाने का मौका मिला था और तब मै वहाँ से 2-4 किलो दुबराज चावल घर भी ले आता था। अपने इस ज्ञान और अनुभव का उपयोग कर मैने इस गेस्ट हाउस में भी इस चावल को introduce किया और सभी को बहुत पसंद भी आया। एक बार noida में इसी के धोखे में मै 'दूबर' राईस खरीद लाया था और पछताया था। कोरबा जिस एक चीज़ के लिए और फेमस हैं वो है कोसा सिल्क ।


अगले भाग में विदेश के खाने के बारे में लिखूंगा । पढियेगा जरूर ।

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