मैने अपने एक ब्लॉग में अपने किशोर वय में की गई साहित्य सेवा का वर्णन किया था। कुछ महिनों पहले मुझे अपने छात्र जीवन की एक कॉपी मिली जो काफी दयनीय अवस्था में है। कभी यह मोटी कॉपी काफी दुबली हो गई है। कभी गुस्से में मैने इसके 75% पन्ने फाड़ कर फेक डाले थे। सोचता हूँ जो बचे है उनमें यदि कुछ पढ़ने लायक हो तो उसे यहाँ लिख डालू। उसमे लिखी कुछ क्षणिकाएं पेश हैं यह एक सतरह साल के लड़के ने लिखी है कुछ छोटी कविताएं जिसे एक सत्तर साल का senager दुहरा भर रहा है ।
1) बिक रही है पुंसत्वहीन विवशता , रेहन रक्खी पुरुषत्व पर महाजन ने अपना ब्याज बढ़ा दिया है । 2) उस बार भी मौसम ऐसे ही बदला था , इस बार भी मौसम बदल रहा है । उस बार आइसक्रीम खाता था , कोल्ड ड्रिंक पीता था । इस बार मन करता है , बारूद खालूं जहर पी लूँ । 3) दूर हुआ जाता है मुझसे मेरा वो चिराग जिसकी बाती, लौ और थे रौशनी अपनी 4) आग सी लगी है शहर में रास्ते बंद पड़ गए हैं कलेजे के टुकड़ो को चुनते चुनते शाम होने को आई है
लिखी तो थी कुछ और कविताए पर सभी खो सी गयी हैं । एक नाटक या कोई उद्धृत कविता अगले भाग में पर एक हिसाब मेरी इस कॉपी में मिली हैं और अलग अलग पत्रिकाओं का एक महीने का हिसाब हैं । यह सिर्फ ये अंदाज़ लगाने को दे रहा हूँ की १९६६-६७ में इन पत्रिकाओं के दाम क्या थे ।
१. धर्मयुग - ३.०० २. कादम्बिनी १.०० ३. ज्ञानोदय १.०० ४. नई कहानियां ०.७५ ५. माधुरी १.५० ६.सारिका १.०० ७. Filmfare - २.०० ८ . Readers digest २.०० ९. Imprint २.०० १०. Illustrated Weekly १.०० ११. Blitz १.५० १२. Competition Master १.०० घर से महीने के ६०-१०० रूपये आते थे जिसमे करीब १८ रूपये इन पत्रिकाओं में खर्च हो जाते थे ।
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