Monday, December 11, 2023

चित्तौरगढ़ ,उदयपुर यात्रा दिसंबर २०१८ भाग ३


पिछला भाग १ कुम्भलगढ़
पिछला भाग २ उदयपुर
२४ दिसम्बर, २०१८ सोमवार
मेरे एक पाठक ने बताया की मेरे ब्लॉग्स में विविधता रहती है और मै सोच रहा था यात्रा के ब्लॉग से हट कर कुछ लिखूँ पर मैं उदयपुर का सीरीज को कैसे बीच में छोड़ देता और यह ब्लॉग उदयपुर सीरीज का आखिरी भाग है।

किले का विहंगम दृश्य , विकिपीडिया के सौजन्य से

आज हमारा आखिरी दिन था उदयपुर में और वापसी की ट्रेन भी उदयपुर से ही पकड़नी थी। सुबह सुबह इंडोनेशिया में आये सुनामी का खबर पढ़ा, पर हमें उदास होने का समय नहीं था। आज सिर्फ एक जगह जाना थे वह था चित्तोरगढ का किला। ऐसे चित्तौरगढ़ का मायने ही किला होता है। पद्मावती फिल्म के कारण चित्तौरगढ की लोकप्रियता बढ़ गई है। आज क्रिसमस ईव था और छुटियाँ तो थी और था पर्यटकों की भीड़। खैर चित्तोरगढ बहुत बड़ा है और भीड़ से कोई परेशानी नहीं होनी थी।
चित्तौड़गढ़ यानि चित्तौड़ का किला, भारत के सबसे बड़े किलों में से एक है। यह एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल भी है। चित्तौरगढ़ मेवाड़ की राजधानी थी । यह ६०० फ़ीट की ऊंचाई पर की एक पहाड़ी पर फैला हुआ है। यह बेराच नदी के घाटी के मैदानों के ऊपर के क्षेत्र में फैला हुआ है। किले में 65 ऐतिहासिक बिल्डिंग शामिल हैं, जिनमें चार महल, 19 बड़े मंदिर, 20 बड़े जल निकाय, 4 स्मारक और विजय टॉवर शामिल हैं।
पहले कुछ इतिहास
चित्तौड़गढ़ का मूल नाम चित्रकुट था। इसका निर्माण मौर्यो की पश्चिमी शाखा द्वारा किया गया था। जयमल पत्ता झील के किनारे पाए आलेख के आधार पर 9वीं शताब्दी के कई छोटे बौद्ध स्तूप भी पाए गए।
गुहिला शासक बप्पा रावल ने 728 ई. या 734 ई. में किले पर कब्ज़ा कर लिया था या शायद उसे दहेज़ में मिला था । 725 ई.पू. के आसपास जब अरबों (म्लेच्छों) ने उत्तर-पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया था तब मौर्य चित्तौड़ पर शासन कर रहे थे। अरबों ने मौर्य शासक को हरा दिया, और बदले में, एक संघ से हार गए जिसमें बप्पा रावल भी शामिल थे।
1303 में, दिल्ली सल्तनत के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ को जीतने के लिए एक सेना का नेतृत्व किया, जिस पर गुहिला राजा रत्नसिम्हा का शासन था। आठ महीने की लंबी घेराबंदी के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया। इस विजय के बाद खिलजी ने 30,000 स्थानीय हिंदुओं के नरसंहार किया। ऐसी कहानी है की अलाउद्दीन ने रत्नसिम्हा की खूबसूरत रानी पद्मिनी को हासिल करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, पर पद्मिनी और अन्य महिलाओं ने जौहर यानि सामूहिक आत्मदाह कर लिया। पद्मावत फिल्म भी इसी कहानी पर बनी है। अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ को अपने छोटे बेटे खिज्र खान को सौंपा, और चित्तौड़ किले का नाम बदलकर "खिज्राबाद" कर दिया गया। चूंकि खिज्र खान अभी बच्चा था, इसलिए वास्तविक प्रशासन मलिक शाहीन नामक गुलाम को सौंप दिया गया था। १३११ में चित्तोरगढ फिर से राजपूतों के शासन में आया और १४३३ में रणाकुम्भा मेवाड़ के राणा बने।

किले का एक मानचित्र

हमलोगों को चित्तोड़ से वापस उदयपुर आना था और लगेज ले कर सीधा स्टेशन जाना था इसलिए हमलोग होटल से निकलने से पहले अपना सामान पैक कर एक रूम में रख दिए और चेक आउट भी कर लिया। रास्ता करीब डेढ़ घंटे का था , नज़दीक पहुंचने पर उचाई पर स्थित गढ़ दिखने लगा। ड्राइवर ने बताया की सात पोल यानि दरवाजे मिलेगा। और मैंने कैमरा तैयार रखा - सभी पोल के फोटो जो खींचने थे ।

एक घुड़सवार रामपोल और मीरा मंदिर

सबसे पहले। था पदानपोल और फिर आये भैरव पोल, हनुमान , गणेशपोल , जरलापोल , लखनपाल और आखिर में रामपोल। रास्ते में एक घुड़सवार भी हमारे गाड़ी से आगे आगे चला जा रहा था और राजस्थान का vibe हम तक पंहुचा रहा था। अंदर आने के बाद सबकी इच्छा हुई पहले विजयस्तम्भ देख लेते है। दाएं मुड़ते ही पार्किंग थी और था राणा कुम्भा महल और मीराबाई का महल / मंदिर । वहां से ४००-५०० Mtr के अंदर ही था जटा शंकर महादेव मंदिर और विजय स्तम्भ। हमने मंदिर की परिक्रमा की फोटो खींचे और फिर विजय स्तम्भ के तरफ बढे।

जटा शंकर मंदिर, विजय स्तम्भ और कीर्ति स्तम्भ

विजय स्तम्भ देखते देखे दोपहर हो गयी थी। हमारे पास समय कम था इसलिए हम सीधे पद्मावती महल और वह महल भी गए जहाँ राणा जी नृत्य संगीत देखते सुनते होंगे शायद खातर महल । वही एक दरवाज़े से गढ़ के पीछे का हिस्सा देखने गए जहाँ दुश्मनों का नीचे से गढ़ तक आना नामुमकिन होता होगा। जौहर की जगह भी देखी जहाँ संभवतः पद्मिनी संग अन्य राजपूत स्त्रियों ने अलाउद्दीन खिलजी के जीत के बाद अग्नि में कूद जौहर किया था। हम वह स्थित ठेलों से थोड़ा बहुत स्नैक्स खा कर वापस चल दिया। रास्ते में नीलकंठ महादेव मंदिर और कीर्ति स्तम्भ भी देखे। कीर्ति स्तम्भ एक जैन व्यापारी जीजा भगवाला ने १२ वीं शताब्दी में बनवाया था।

रानी पद्मिनी महल और गढ़ का पिछला भाग

हमलोग फिर Exit गेट के पास स्थित एक हस्तशिप के दूकान में गए। कुम्भलगढ़ में ख़रीदे दोहर जैसा दोहर खरीदना चाहते थे पर बात बनी नहीं और कुछ अन्य हस्तशिल्प खरीद कर लौट आये और होटल से सामान ले कर सीधे स्टेशन पहुंचे। टैक्सी का पेमेंट किया और ट्रैन में बैठ गए। उतरे तो निजामुद्दीन स्टेशन बहुत भीड़ मिली - क्रिसमस का दिन जो था । दिल्ली पहुंच कर हमारा यह चार दिनों का टूर ख़तम हुआ।

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