मैंने करीब दो साल पहले अपनी दैनिक पदयात्रा (Morning Walk ) पर कुछ ब्लॉग लिखे थे। पर्यावरण और इसीसे संबंधित बातें जब झकझोर देती तब ऐसे पोस्ट मैंने किये थे। बहुत दिनों के बाद एक बात मुझे फिर झकझोर गयी। हमारे कॉलोनी के कोने पर एक विकलांग भिखारी बैठा करता है सिर्फ सुबह एक घंटे। मैं अक्सर घर से याद कर कुछ सिक्के रख लेता हूँ उसके लिए और वह मेरा इंतजार भी करता नज़र आता है। कभी कभी जब पैसे नहीं होते तब ब्रेड / बन या बिस्कुट मैं नज़दीक के दुकानों से मोबाइल से पैसे दे कर भी खरीद कर भी दे देता हूँ।
मेरी सुबह की पदयात्रा सिर्फ एक किलोमीटर की होती है यानी आना जाना मिला कर दो किलोमीटर। मैं सिर्फ चलने की आदत बनाये रखना चाहता हूँ जो रिटायर्ड लोगों के लिए जरूरी भी है। ऐसा न करें तो ट्रेन भी न पकड़ सकू क्योकि ट्रेन भी दूर दूर के प्लेटफार्म पर आ सकती है और हवाई जहाज भी यदि दिल्ली के T -3 से पकड़नी हो तब दो किलोमीटर चलना निश्चित है। अब आज के टॉपिक पर वापस चलते है। मैंने पिछले दो दिन साल कोई दूसरा भिखारी अपने Morning Walk में नहीं देखा पर इधर कुछ दिनों से मै एक वृद्धा को अक्सर प्लास्टिक बोतल इकठ्ठा करते देखता और ऐसा सोच रहा था की शायद इन सबों को बेच कर उसका जीवन चल रहा हो। पर एक दिन उसकी एक हरकत मुझे हिला गया। वो पोल और दीवालों पर चिपकाये इश्तेहारों को उखाड़ उखाड़ कर कागज़ के उन हिस्सों को चबा कर खा रही थी जिसमे adhesive लगा होता है। शायद इससे नशा आता होगा या भूख मर जाती होगी। और आज एक दूसरी प्रोढ़ा को एक रेस्तरां के कचरो में से कुछ चावल के दाने और अन्य चीज़ो के बचे खुचे चीज़ों को इकठ्ठा करते देखा जबकि अन्य दिनों में इन कचरो को सड़क के कुत्तों को खाते देखा। मैं आज कागज़ खाने वाली वृद्धा के लिए लाये दस के सिक्के को तुरंत इस प्रोढ़ा को दे डाला की जाओं कुछ खरीद कर खा लो। लौटते समय उसे लेकिन उस कचरे को बीनते ही देखा। शायद कुछ ब्रेड बन ले आता तो बेहतर होता। लेकिन जो बात मुझे हिला गयी वह इन असहाय और बेघर लोगों की बढ़ती संख्या और जबकि ज़्यदातर व्यक्ति में स्वाभिमान अभी जिन्दा है और वे भीख नहीं मांगना चाहते। सरकार के इतने सारे कल्याणकारी योजनाओं के बाबजूद क्यों लोग भूखे है।क्या कमी रह गयी की इन योजनाओं का लाभ समाज के इन अंतिम व्योक्तियों तक नहीं पहुंच रहा। मनरेगा , महिला पेंशन , वृद्धा पेंशन , प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना इत्यादि का लाभ इन तक क्यों नहीं पहुंच रहा। आरक्षण से लोग जनरल, OBC , EOBC , SC ,ST वर्ग में बंट गए है पर कोई इन अत्यंत गरीबो से नहीं पूछ रहा आप किस वर्ग में हो ? यदि ये लोग किसी आरक्षित वर्ग में है तो कहाँ है इनका लाभ ?
हमारी सड़क से मंत्री , अधिकारी , राज्यपाल और राष्ट्रपति तक गुजरते है लेकिन तब प्रशासन ठेले रेहड़ी वाले , फूटपाथ तक बढे हुए दुकानों तक को हटा देती है तो कैसे इन बेघरों , भूखो पर किसीकी नज़र पड़े । सरकारें भी यह सोच कर खुश है की गरीबों को दी जाने वाली सारी मदद सीधे बैंक खातों में जा तो रही है। गरीबों में जो थोड़ा बेहतर है वो सरकारी दुकानों से मुफ्त मिलने वाले अनाज बेच कर पैसे भी कमा रहे है
हमारी सरकार के गरीबों को देने वाली सुविधाएं कई सुविधसपन्न लोगो द्वारा अब भी हड़प ली जाती है। जातीय जनगणना की तो कई लोग हिमायत कर रहे है , शायद भविष्य में रिजर्वेशन की राजनीति के लिए पर ऐसे बेघरों की जनगणना क्यों नहीं की जा रही है ?
अब देखे हमारा संविधान क्या कहता है ? क्या खाना हमारा मौलिक अधिकार है ? संविधान के अनुसार "Article 39(a) of the Constitution, enunciated as one of the Directive Principles, fundamental in the governance of the country, requires the State to direct its policies towards securing that all its citizens have the right to an adequate means of livelihood, while Article 47 spells out the duty of the State to raise the level of nutrition and standard of living of its people as a primary responsibility. The Constitution thus makes the Right to Food a guaranteed Fundamental Right which is enforceable by virtue of the constitutional remedy provided under Article 32 of the Constitution. " ऐसे मौलिक अधिकार का क्या फायदा जब हम इसे लागू ही न कर सकें ?
रिजर्वेशन से ऐसे बेघरों , भूखों को कोई लाभ नहीं होने वाला । वोट में अवश्य फर्क होता है। इसलिए इस पर सबसे ज्यादा राजनीति होती है। रिजर्वेशन की राजनीति कैसे समाज को खोखला कर रहा है उसका एक उदहारण मणिपुर है। मणिपुर में एक ग्रुप ने रिजर्वेशन की मांग की और रिजर्वेशन मिले और मांगने वाले ग्रुप में हिंसा फ़ैल गयी जो थमने का नाम नहीं ले रही ।
मैंने जिन तीन लोगों का ज़िक्र ऊपर किया है उसमे सिर्फ एक भीख मांगता है , बाकी दो में अभी भी झिझक है। शायद कई राज्यों में चलने वाले जनता किचन जैसी योजना से इनकी झिझक इनके भूख के आगे न आये और ये इस तरह कागज़ को खा कर या कुत्तों से छीन कर खाने को विवश न हो। निश्चित तोड़ पर मेरे या किसीके कभी कभी कुछ पैसे दे देना समस्या हल नहीं है , शायद कोई समाज सेवी संसथान या NGO इनके मदद को आगे आये। इन लोगों का फोटो खींच उन्हें शर्मिंदा नहीं करना चाह रहे थे इसीलिए इंटरनेट से लिए "Free food for poor " से लिए फोटो के अलावा कोई फोटो नहीं दे रहा हूँ पर फैज़ अहमद फैज़ का ये चंद लाइन पेश है।
ये गलियों के आवारा बदनाम कुत्ते
के सौपा गया जिनको ज़ौके गदाई
जहां भर का फटकार सरमाया इनका
जहां भर कि दुत्कार इनकी कमाई
न राहत हैं शब को न चैन सबेरे
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे
ये हर एक कि ठोंकरे खाने वाले
ये फांकों से उकता के मर जाने वाले
ये चाहें तो दुनिया को ज़न्नत बना दे
ये चाहें तो आकाओं के हड्डिया तक चबा ले
कोई इनको अहसास ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे
गरीबो के लिए मुफ्त खाना स्कीम (एक प्रदेश में )
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