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Friday, October 29, 2021

भाई दूज की बजरी - सरोज सिन्हा

भाई दूज का पर्व आने वाला है इस बार भाई दूज ६ नवम्बर २०२१ को हैं । इस अवसर पर एक ब्लॉग की पुनरावृति कर रहा हूँ । मूल लेखक मेरी मम्मी ( ममतामयी मेरी स्व सासु माँ राजन सिन्हा ) हैं । सरोज सिन्हा के ब्लॉग से उद्धृत

अब तक मैने अपनी रचनाए आपसे सांझा की है, अब मै अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा लिखित कथा कहानियाँ मे से एक मदर्स डे पर सांझा कर रहीं हूँ। मै अपने बचपन से उनसे उनकी स्मृतियाँ पर आधारित कहानियाँ सुनती आई हूँ। माँ का दादी घर नेपाल की तराई में है और नानीघर बिहार के मिथिलांचल में, और उनकी बहुतों कहानियाँ ईन क्षेत्रों पर ही आधारित हैं। 2009 में उनकी कुछ संस्मरण काठमाण्डू की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और मै उसे फिर से इस ब्लॉग के माध्यम से सबके सामने ला रहीं हूँ, आशा है आप इसे भी पढ़ेगें और पसंद भी करेंगें। पहली रचना नेपाल तराई क्षेत्र, बिहार में पारंपरिक ढंग से मनाए जाने वाले भाई दूज के त्योहार पर आधारित है।



मै, बुवा (नाना) , किशोर और विमल
भाई दूज की बजरी

दशहरा दीपावली का त्योहार हमारे हिन्दु समाज में अलग अलग महत्व रखता है। पर भैया दूज का बहने बड़े बेसब्री से इंतजार करती है। बचपन से हम सभी बहनें अपने भाईयों को कैसे टीका लागाएगीं, कैसी माला बनाएगीं, किसकी माला सबसे सुंदर होगी की होड़बाजी करती थी। घर में माँ, चाची, बुआ,सारी तैयारी करते पर हम बहनों को अपनी अपनी कल्पना की उड़ान से मतलब था। हम बच्चों पर कोई जिम्मेदारी तो थी नहीं। सबसे ज्यादा खुशी हमें बजरी कूटने मेें आती। ननिहाल में रहते तो नानी और दादी के घर रहते तो दादी एक ही कथा सुनाती कि कैसे सात बाहनों ने यमराज से अपने एकलौते भाई की प्राण रक्षा की । वह कथा मुझे अब भी याद है । नानी दादी की कथा उनके ही शब्दों में :-

बहुत पुरानी बात है किसी गाँव में एक ब्राम्हण दम्पति रहा करते थे। उनका नाम था देवदत्त शर्मा तथा ब्राम्हणी रुद्रमती। दोनों पति-पत्नि बहुत ही सीधे, सरल तथा धार्मिक प्रवृति के थे । समय के साथ साथ देवदत्त के घर में एक-एक कर सात कन्याऔं ने जन्म लिया। पुत्रियों के जन्म को उन्होनें भगवान का वरदान माना। कभी अपना मन दुखी नहीं किया पर एक पुत्र की आकांक्षा उनके मन में थी, कि एक पुत्र होता तो वंश आगे बढ़ता । मरने पर पिंड पानी देगा । पर उनके वश में तो कुछ था नहीं ईश्वर की इच्छा समझ कर पुत्रियों को अच्छे संस्कार देकर पालन पोषण करने लगे।

धीरे-धीरे बेटियाँ बड़ी हुई । उनकी सखी-सहेलियाँ भईया-दूज की तैयारी करती तो, उन्हें लगता कि हम भी भईया दूज में भाई को टीका लगाएगीं ।भाई को मिठाई खिलाएगें । घर जाकर माँ से पूछती तो माँ मना करती कि तुम्हारा कोई भाई नहीं है । वे माँ से प्रश्न करती हमारा कोई भाई क्यों नहीं है, सभी के भाई है, पर हमारा क्यों नहीं? माँ बेचारी क्या उत्तर देती, इतना ही कह देती “भगवान ने नही दिया ।"

माता पिता ने बेटियों के नाम गुण अनुरूप ही रखे थे, धीर-गम्भीर गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, अलकनंदा, कावेरी और सबसे छोटी सबसे चंचल नर्मदी। सभी बहनों ने विधि के विधान को स्वीकार कर लिया परन्तु नर्मदा के मन ने यह स्वीकार नहीं किया । वह सोचती भगवान ने हमारे ही साथ यह अन्याय क्यों किया ? हमें भाई के सुख से वंचित क्यों किया। वह भगवान से प्रार्थना करती, रुठती, रोती और यही कहती, क्या तुम्हारे लिए हमारा दुख कोई मतलब नहीं रखता। कैसे भगवान हो तुम जो मेरी इतनी सी बात नहीं सुनते इन्ही दिनों ईश्वर की कृपा से ब्राहम्ण दम्पत्ति के घर एक पुत्र ने जन्म लिया । गोल मटोल सुन्दर सा पुत्र पाकर दोनों ने ईश्वर को लाख लाख धन्यवाद दिया। बहनें तो निहाल हो गई। बड़े प्यार से उन्होनें बालक का नाम सुदर्शन रखा ।

ब्राम्हण परिवार सुख से समय व्यतीत करने लगे। बेटियाँ ब्याह योग्य हो गयी तो ब्राह्मण दम्पत्ति ने अच्छे संस्कारशील परिवारों में योग्य वर खोज कर गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, अलकनन्दा और कावेरी का विवाह कर उनको ससुराल भेज दिया। पर सबसे छोटी, सबसे तेज, हठीली नर्मदा ने न जाने क्या सोच कर विवाह से इन्कार कर दिया। शायद उसके मन में नाबालिग भाई और वृद्धावस्था की ओर बढ़ते माता पिता की असुरक्षा का भय था। उसने फिर कौमार्य ब्रत धारण करने की घोषणा कर दी।

दादी की कथा आगे बढ़ती रही। भईया दूज के दिन हम सभी मुंह अंधेरे नहा धो करा तैयारी हो जाते। बडे़ लोग अपनी अपनी तैयारी में जुटे रहते। सबेरे ही गाय के गोबर से आँगन लीपकर शुद्ध किया जाता । बीच आंगन में दादी चौका पूर कर, एक दिन पहले गोवर्धन पूजा मे प्रयोग किया गया गोबर से एक डरावनी सी आकृती बना कौड़ी की आखें डाल देती और आकृति की छाती पर एक पूरी इँट डाल उसपर एक मूसल रख देती । उल्टे यानी बायाँ हाथ से पूजा करने कहती। हम पूछते, बायाँ हाथ से क्यों, तो दादी कहती पहले सारी कथा सुन ले, बाद में प्रश्न पूछना।



इंटरनेट से लिया फोटो, कॉपी राइट वालों का आभार !

सुदर्शन दस वर्ष का हो गया था। उस बार भईया-दूज के दिन सातों बहनें अपनी तैयारी में लगी थी। आंगन को गाय के गोबर से लीप कर पवित्रता का प्रतिक अक्षत (चावल) और संघर्ष का प्रतीक लाल अबीर से अल्पना बनाया । जीवनी शक्ति का प्रतीक जल से भरा शुभ शगुन का प्रतीक कलश पर आत्म-चेतना का प्रतीक दीप प्रज्वलित किया । अमरता का प्रतीक दूब को दीर्घायु का प्रतीक सरसों के तेल में डुबोकर चौके को सुरक्षित घेरे में बाँध कुश के आसन पर भाई को बैठाकर कर टीका लगाने, “बजरी” खिलाने तैयार हुई । नवग्रह का प्रतीक नौ तरह के दलहनमें एक “हरी छोटी मटर" को स्थानीय बोलचाल की भाषा में “बजरी” कहा जाता है।पवित्रता का प्रतीक पान, सुपारी, और बजरी का होना अनिवार्य है। कभी न मुरझाने वाला मख मली, कभी न सूखने वाला कपास की माला, फल फूल, लक्ष्मीका प्रतीक द्रव्य, शीतलता का प्रतीक दही, थाली में सजाकर सुख सौभाग्य का प्रतीक सिन्दुर का टीका लगाने को बढ़ी ही थी कि एक अति डरावनी आकृति के पुरुष को अपने सामने पाकर चकित रह गई। कुछ पल को वह बोल ही नहीं पाई। फिर साहस बटोर कर नर्मदा ने पूछा कौन है आप और किस उद्देश्य से पघारे है । आप हमारे घर आए अतिथि है, हम आपकी क्या सेवा करे ।

उस डरावने पुरुषने कहा न मै तुम्हारा अतिथि हूँ और न मुझे तुम्हारी कोई सेवा चाहिए मै यमराज हूँ। इस बालक की आयु समाप्त होने को है । मैं इसे लेने आया हूँ, शीघ्र इसे इस सुरक्षित घेरे से बाहर निकालो । मैं इसके प्राण लेकर चला जाउँगा। सभी बहनें एक दूसरे का मुंह देखने लगी। किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि, क्या करें, क्या कहे, क्या हमारा प्राण प्रिय भाई हमसे विछुड़ जायगा।

यम की रट देख तीक्ष्ण बुद्धि नर्मदा समझ गई कि इन अमरता की प्रतीक वस्तुओं का अनादर यम नहीं कर सकते, तभी तो इसे इस रक्षा रेखा से बाहर लाने की रट लगा रहे है। उसने धैर्यता से काम लिया। और यमराज से अनुनय-विनय करने लगी। हे देव, आप तो सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, आपसे कोई बच नहीं सकता । मृत्यु तो जीवन का शाश्वत सत्य है, जो प्राणी जन्म लेता है उसे एक न एक मृत्यु विश्राम लेना ही पड़ता है । यह सत्य न आपसे छिपा है न हम मानवों से । फिर भी आप इस नन्हें से बालक पर दया कर इसके वृद्ध माता पिता पर कृपा कर के उनका सहारा न छीने । नर्मदा के अनुनय विनय का यम पर कोई असर नही पडा। वे यही रट लगाते रहे कि शीघ्र इसे मेरे हवाले करो, मुझे सुर्यास्त से पहले अपनी भगिनी यमुना के घर जाना है । यम की बात सुन नर्मदा ने कुछ सोचा .....

अपने भवन के द्वार पर खड़ी सुर्य पुत्री यमुना मन हीं मन व्याकुल होकर भाई की प्रतिक्षा कर रही थी क्यों नही आया। कहाँ रह गया। पिताके शाप से शापित पंगु पद से वह चल नही सकता । उसका मन्दबुद्धि-मन्दगति वाहन महिष किधर खो गया । भाई-दूजका समय बीता जा रहा था। भाई के अनुसन्धान में उसने अपने अनुचर को चारों और दौड़ाए , पर सभी सर झुकाये आकर खडे़ हो गये । सुर्यपुत्री यमुना ने अपने पिताको याद किया और उधर ही चल पड़ी ।

दिनभर के प्रचन्ड ताप से सारी सृष्टि, जीव-जन्तु, पेड-पौधे सभी को झुलसाकर अरुण रथ के आरोही स्वंय थकित व्यथित, अपने प्रचन्ड तेजको समेटते हुए अपने विश्राम स्थल अस्ताचल की ओर झुकने लगे । शनै शनैः निशासुन्दरी के आगमन की संकेत मिलने लगे। प्रातःकाल से दाना दुनका के खोज में निकले पक्षी कलरव करते हुये अपने नीड़ के तरफ उड़ चले । माँ की प्रतिक्षा में भूख से व्याकुल नन्हे नन्हे शावक, चक्षु खोले चंचल हो उठे । सद्य वत्सा गौए दुग्धभार से थकित धीर मंथर गति से चलकर अपने बछड़े की भूख मिटाने गौशाला की और चली जा रही थी। गोधूली की बेला में गोधूली से सारी पगडंडी आच्छादित हो उठी। भुखे-प्यासे क्लांत गो चारक व्याकुलता से घर पहुंचने को आतुर थे । निशासुन्दरी अपने तारों की सेना के साथ अपना साम्राज्य स्थापित करने दिवाकर को पीछे से आक्रमण कर उन्हे अंधकार में डुबो देने को आतुर अपनी असंख्य सितारों जड़ी काली चादर से सारी प्रकृति को ढक देने की संकल्प के साथ तेजीसे चली आ रही थी।

पिताश्री, पिताश्री "एक क्षण को रुक जाइये, रुक जाइये" । परिचित स्वर की पुकार सुन दिवाकर ने अपने रक्तिम नेत्रोको खोलकर देखा, पुत्री यमुना उन्हें पुकारती हुई चली आ रही है। उन्होने अपनी गति को थोड़ा भी विराम न देकर पुछा । पुत्री क्या विपत्ति आ गई, जो तू इतनी व्याकुल है। सुर्यपुत्री यमुना ने कहा - हे पिता श्री भाई दूजका समय निकला जा रहा है मैं भाई की प्रतिक्षा करते थक गई । पर वह अभीतक नही आया मैने उसके अनुसन्धान में अपने अनुचर को चारो ओर भेजा, पर वह कही नहीं मिला । कृपया आप अपनी दष्टि चारों ओर घुमाकर देखें, वह कहा किस हाल में है। सुर्यदेव ने अपनी दृष्टी आकाश, पाताल, धरती पर केन्द्रित कर यमको खोजने की चेष्टा की। परन्तु उनकी शत्तिः शनैः शनैः क्षीण होती जा रही थी, उन्होने पृथ्वी परअपनी दृष्टि दौडाई तो उन्हें विश्वास करना कठिन हो गया। पुत्र की दुर्दशा पर उनका हृदय द्रवित हो गया। उदण्ड ही सही, श्रापित ही सही, था तो अपना पुत्र ही। पिताका हृदय व्यकुल हा गया। उन्होने यमुना से कहा पुत्री, शीघ्र जा और अपने भाई की रक्षा कर । अब तू ही उसका उद्धार कर सकती है। मेरी शक्ति अब क्षीण हो चकी है। यमुनाको उसका गन्तव्य बताकर सुर्यदेव अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर गये।

यमुना उस स्थान पर पहुंची जहाँ सातों बहनें यम की छाती पर रखी शिला पर बजरी और सुपारी तोड़ रही थी। सुपारी छिटक छिटक कर दूर गिर रही थी और उसे उठा उठा कर धमाधम कूट रही थी । असहाय सा भाई चित पड़ा था। उसका मन्दगति वाहन आनन्द से बैठा जुगाली कर रहा था। यमुना ने कहा तुम यह क्या कर रही हो। इसे छोड़ दो। यह मेरा भाई है, मै भाई दूज के लिए इसे लेने आई हूँ ।

बुद्धिमती नर्मदा तो इसी की प्रतीक्षा में थी। तभी तो उसने इस शर्त पर यम से वचन मांगा था कि उनकी छाती पर शिला रख, सुपारी और बजरी तोड़, भाईको बजरी खिलाकर उन्हे सौप देगी। वह न सुपारी तोड़ रही थी और न ही बजरी । वह जानती थी कि यमुना अवश्य आयेगी और तब वह यम से निबट लेगी। उसने कहा हे देवी यमुना, क्या आप चाहेगी आज के दिन किसी बहन का भाई उससे छिन जाय । क्या आप यह स्वीकार करेंगी कि आपका भाई आपसे सदा के लिय यह बिछड़ जाय । आप अपने भाई से कहे कि वे मेरे भाई को जीवन दान दे, नही तो मैं सारी उम्र उनकी छाती पर सुपारी और बजरी तोड़ती रहूँगी। यमुना ने कहा - पुत्री मैं तुझे वचन देती हूँ, तेरा भाई तुझसे कभी अलग नहीं होगा । तू यमको मुक्त कर दे । शाम होते ही तेरे भाई का योग टर गया है।

नर्मदा की दृढता उसका विश्वास लगनशीलता देख देवी यमुना बहुत प्रसन्न हुई। उन्होने कहा - पुत्री नर्मदा तुम्हारा भातृ प्रेम, भाई के प्रति तुम्हारा उत्सर्ग देख मै तुमपर बहुत प्रसन्न हुँ, मांगो मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करुंगी।

हे देवी अगर आप मुझे वरदान देना चाहती है तो यही वरदान दीजिए कि किसी बहन का भाई न अल्पायु हो और न आजके दिन उसे काल स्पर्श कर सके । नर्मदा ने वडी विनम्रता से प्रार्थना की । “हे पुत्री नर्मदा तुम्हारे भातृ प्रेम की गंगा तुम्हारे ह्दय मे अनवरत रुप से युगो-युगो तक प्रवाहित होती रहे । जब तक यह धरती, चन्द्र और सुर्य का अस्तित्व तब तक तुम स्नेह की भागीरथ बन निरन्तर सबको प्रेमका सन्देश देती रहो। तुम्हारे जल में प्रवेश कर जो बहन अपने भाई को बजरी खिलायेगी उसे कभी भाई का वियोग सहन करना नही पडे़गा।

तबसे आजतक चिरकुँवारी नर्मदा नदी रुप में इस धरती पर अपनी अबाध, अविरल, धीर-गम्भीर गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती रही है ।

बस दादी की कहानी यहीं समाप्त हो गयी । दादी ने पूछा कुछ और पूछना हैं या सब समझ गई । हमने समझने की मुद्रा में सर हिला दिया , और भाइयों को बजरी खिलाने दौड़ पड़ी ।