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Wednesday, March 22, 2023

BCE, Patna में नौकरी और 5 कसमें

यह मेरे एक पुराने ब्लॉग से लिया एक भाग हैं। मेरे BCE, Patna के ग्रुप के सदस्यों के लिए मैंने relevant पार्ट अलग किया है। जैसा मैंने बताया था अपने 1965-1970 के कोर्स पूरा होने के बाद मैं HAL के इंटरव्यू के लिए दिल्ली गया था। अब उसके आगे

 मेरी पहली नौकरी

दिल्ली से लौटने के बाद BIT, सिन्द्री  के M.Tech कोर्स  में एडमिशन ले लिया उन दिनों पी जी में पढ़ने के लिए महिने का रू 250 स्टाईपेन्ड मिलता था जो कि नौकरी में मिलने वाले रू 400 की तनख्वाह से थोड़ा ही कम था। सिन्द्री, धनबाद के उस ट्रिप में झरिया के बिहार टॉकीज में  सिनेमा  देखा और बोकारो तक जा कर नियोजन दफ्तर में निबंधन भी कर आया। वापस आने के बाद पटना गया और HSL (हिन्दुस्तान स्टील) का written टेस्ट दे आया। बहुत आसान सा पेपर था। ईन्टरव्यु कॉल का ईतंजार कर रहा था कि पटना युनिवर्सिटी से leave vacancy के लिए लेक्चरर का एपॉईन्टमेन्ट लेटर आ गया। तीन वैकेंसी थी विद्युत् विभाग में। दो यांत्रिकी विभाग में।पटना युनिवेर्सिटी के प्रथम और द्वितीय टॉपर को लिया जाना तय था और विद्युत् विभाग में द्वितीय टॉपर होने के कारण मेरा नंबर आ गया। सत्य प्रकाश नारायण टॉपर था। हम दोनो के अलावा एक बी एच यु के टॉपर  'वर्मा' ने भी हमलोगों के साथ ज्वाईन किया। अब आगे जो लिखने जा रहा हूँ वो सारी कहानियां मैंने अपने करीबियों को कई बार बता चुका हूँ। फिर भी लिखता हूँ।
पास करने के बाद मैं कदम कुआँ अपनी बड़ी मौसी के यहाँ रहता था। स्कूल की पढाई भी मैंने यही रह कर पूरी की थी। कॉलेज कंपाउंड में स्टाफ के लिए कुछ कमरे थे. पहले सोचा था एक कमरा मिल ही जायेगा। बाद में पता चला छुट्टी पर गए टीचर्स ने कमरा खाली ही नहीं किया है। कदम कुआँ से कॉलेज करीब ४-६ किलोमीटर दूर था। पहले दिन मैने बस लेने का सोची। हम लोग कॉलेज में नए लेक्चरर लगे हैं छात्र लोग जान गए थे। वो हमें पहचानते भी थे। कॉलेज में काफी डे स्कॉलर्स  थे, और कई लड़के बस से ही जाते थे। बस में चढ़ते ही देखा कुछ लड़को ने टी स्कायर ले रखा था। ये सब मेरे कॉलेज के ही छात्र थे। वे सब काफी असहज दिखे। अचानक से मै एक चिन्ता रहित छात्र से आदरणीय शिक्षक हो गया जिसे गंभीर रहना चाहिए। बिना इधर उधर देखे मैने छोटी सी बस यात्रा तय की। बस स्टाप पर कुछ खरीदने का अभिनय करते हुए तब तक रुका रहा जब तक सभी छात्र चले नहीं गए। फिर धीरे धीरे चलते हुए कॉलेज गया। बस निश्चय कर लिया कि कल से रिक्शा से ही कॉलेज जाउंगा चाहे रोज के 4-5 रु देने ही पड़ जाय। नए लेक्चरर होने के नाते हमें 3rd year का लैब क्लास का काम मिला। महिने भर चाय के लिए टी क्लब में पैसे देने पड़े।सत्य प्रकाश चाय पीता नहीं था। मै कभी कभी पी लेता था और पैसा मै ही वसूल कर पाता था लैब में घटी दो घटनाए याद है। हमारा एक सहपाठी था कन्हैया। मोटा हँसमुख लड़का था। दो बार फेल होने के कारण वह अभी भी 3rd year में ही था। एक दिन उसे क्लास आने में देर हो गई। 75% उपस्थिति आवश्यक होती थी। लड़को के लिए उपस्थिति बनवाने के लिए प्रोक्सी भी करते थे पर लैब क्लास में यह सम्भव नहीं था। कन्हैया मेरे पास हिचकिचाते हुए उपस्थिति बनवाने आया। मै कुछ मज़ाक करने वाला था मेरा मुंह खुले उससे पहले उसके मुंह से निकला "सर"! कल तक नाम से पुकारने वाले से यह संबोधन अटपटा सा लगा। वह कुछ और कहता उसके पहले ही मैने अटैन्डेन्स दे दी। मेरा काम था घूम घूम कर लैब में छात्रों द्वारा किए जाने वाले प्रयोग की प्रगति को देखना। वर्मा जुनियर मोस्ट था, सारे कठिन प्रयोगो की जिम्मेवारी उसे सौंप ब्रिज मेगर का प्रयोग मैनें अपनी लिए रखा था। कई ग्रुप अपना मेगर का प्रयोग कर चुके थे और कॉपी में मुझसे हस्ताक्षर भी करवा लिए । सबको मैने ब्रिज बैलेन्स के लिए सुई को मेगर के बीच में रखने को कहा था। एक दिन दो लड़को के एक ग्रुप कई बार कहने पर भी मेगर के शुन्य पर ही बैलेन्स करते दिखे।मैने देखा तो डॉटने के स्वर में पूछा " ये क्या कर रहे हो?" लड़के ने डरते डरते बताया सर जीरो के पास ही Increase-0-decrease लिखा है। बैलेन्स यही पर करना है सर। मै तुरंत समझ गया मैने ध्यान नहीं दिया था और मैं गलत था । मैने उन्हें शाबाशी दी। फिर मैने उन दोनों कों कहा पहले जिसने भी इस प्रयोग को किया है उसको सुधार लेने बोल देना।

मै प्रतिदिन कुछ सीख रहा था। शिक्षण कार्य आसान नहीं है यह अहसास हो चला था। दोपहर का खाना मेस में खा नहीं सकता था। टिफिन लाते थे। एक दिन टिफिन नहीं ला पाए। इसलिए मोड़ पर हरि जी के ढ़ाबानुमा नास्ते की दुकान में चले गए। ये वही दुकान थी जहाँ हम हॉस्टल से यदाकदा नास्ता करने आया करता था। छोटी सी दुकान थी। दोनो तरफ बेंच और टेबल लगे थे। हरि जी ने हमें पहचान लिया (कालेज छोड़े अभी कुछ ही दिन हुए थे) और बैठने को कहाँ और क्या खाएगें पूछने लगे। वहाँ एक दुसरे से रगड़ाते ही बेंच में बैठने के लिए घुसना पड़ता था। दुकान छात्रो से भरा था। सब खड़े हो गए और बैठने का निमन्त्रण देने लगे। कुछ धीरे से खिसक भी लिए। मैं दुकानदार के तरफ देखने लगा। मानों वह भी कह रहा हो "आप यहाँ आए किस लिए।" मैने ने एक चाय पिया और जल्दी निकल लिए। फिर पिन्टू होटल तक गए और पर्स ढ़ीले कर खाना खाया। और पिन्टू का रसगुल्ला भी छोड़ते नहीं बना। मैंने कसम खाई हरि जी के दुकान में अब कभी नहीं जाऊंगा।
रविवार आया तो एक फिल्म देखने के लिए रिजेन्ट सिनेमा चला गया ठीक ठीक याद नहीं पर फिल्म का नाम शायद 'तलाश' थी। मै आदतन रु 1.75 जो स्टुडेन्ड क्लास प्रसिद्ध था के लाईन में टिकट लेने लग गया। थोड़े देर में दो लड़के आए और उनके लिए भी दो टिकट लेने का अनुरोध करने लगे। मैने उनको लाईन में लग कर टिकट लेने दिया। लड़कों ने अक्ल लगाई और मेरा टिकट दुसरे ROW का लिया। मैंने कसम खाई कि फिल्म अब बालकनी या ड्रेस सर्कल में ही देखूंगा।
रीजेंट सिनेमा अब
देखते देखते दुर्गा पुजा की छुट्टी शुरू होने को हुआ। एकदिन  मै अपनी तनख्वाह के लिए  कालेज आफिस चला गया। उन्होनें बताया हमें यूनिवर्सिटी के नामित बैंक के चिन्हित ब्रांच में एकाऊन्ट खोलना होगा और एक पे बिल भी बनाना होगा तभी मेरे एकाउन्ट में पैसा जाएगा । मै फॉर्म ले ही रहा था कि किसीने मेरा पैैन्ट का पायचा पकड़ लिया। मै चौंक पड़ा। वो मेरा सहपाठी श्याम किशोर था। अरे अमिताभ अब ये सब नहीं चलेगा, वह मेरा दिल्ली से लाए बेल बाटम पैन्ट को पकड़ कर बोल रहा था। मै चारो तरफ देखने लगी कि कोई छात्र देख तो नहीं रहा हैं। मैने निश्चय किया कि अब बेल बाटम पहन कर कॉलेज नहीं आऊंगा। तब बेल बाटम का फैशन शुरू ही हुआ था। राज कपूर ने सिर्फ तीन ही कसम खाई थी पर यह थी मेरी पाचंवी कसम।
खैर दुर्गा पुजा के लम्बी छुट्टी शुरू हो गई। मै घर चला गया। तभी बोकारो से कॉल आ गया। एक आसान से साक्षात्कार के बाद तुरंत नौकरी ज्याईन करने का पत्र मिल गया। परसनल विभाग ने बताया यदि हम अपने लेक्चरर की नौकरी को सेवा पंजिका (Service Record) में डालना चाहते है तो अनापत्ति प्रमाण पत्र ले कर आईए। मेरी मत तब मारी गई थी और मैं पटना चला गया। इतनी लम्बी चौड़ी प्रक्रिया बताया गया कि मेरे पास बैरंग लौटने के आलावा कोई चारा नहीं बचा। लौटने के पहले मैने ऑफिस के स्टाफ को एक चिठ्ठी लिख कर दे दी कि मेरा जो भी तनख्वाह बाकी होगी वह स्टाफ फंड के लिए दान करता हूँ । बोकारो जल्द वापस आ कर मैने ज्वाईन कर लिया। एक हफ्ते जूनियर होने से कोई और दिक्कत नहीं हुई पर तीन साल बाद जब क्वार्टर मिला तो   सेक्टर 3 में नहीं मिला और मिलने में देर हुई सो अलग।  जैैसा मैनें प्रारम्भ में ही लिख चुका हूँ,  बोकारो में मेरा प्रथम कार्यस्थल था सिंटर प्लांट। कई रोचक घटनाए वहाँ भी घटी। वो फिर कभी।

Sunday, July 5, 2020

मेरा कॉलेजिया मित्र बिजय कुमार बजाज

शायद आप मेरे ब्लॉग का शीर्षक देख कर चौंक जाय कि मित्र तो मित्र है ये कॉलेजिया मित्र क्या होता है? मै वैसे मित्र  को कॉलेजिया मित्र मानता हूं जिससे कॉलेज के बाद कोई संवाद न रहा हो। बिजय कुमार बजाज से मेरी दोस्ती बिहार कॉलेज आँफ ईन्जिनियरिन्ग (अब NIT Patna)  में हुई थी और विशेष कर 5 वें साल (5th year Engg 1969-70)  में ज्यादा गहरा गई थी। हम न्यू हॉस्टल (अब सोन होस्टल) के बीच वाले फ्लोर पर एकल कमरों में थे। पूरब तरफ के इस विंग को सबसे अच्छा और सबसे शान्त माना जाता था। बजाज का कमरा विंग में दायें मुड़ने पर पहला था यानी बाथरूम के सबसे नजदीक वाला और मेरा सबसे अन्तिम दक्षिण वाला कमरा था एकदम अकेला और कॉर्नर में।

मेरे कमरे से पहले दायें तरफ शारंगधर सिंह का कमरा था जो बोकारो स्टील में भी हमारा सहकर्मी था। शारंगधर का जिक्र आने पर एक बात याद आ गयी । ऐसे तो नियमानुसार हम लोगों ने थर्ड इयर में ही रम या व्हिस्की चख ली थी एक दयावान मित्र के छात्रवृत्ति के पैसे से, पर इस एकांत में शारंगधर को पीने की गन्दी आदत सी लगती जा रही थी। कभी कभी मै भी साथ दे देता। और कभी कभी मेरे रूम में ही पार्टी जमती। मैने जब बोकारो में एक बार उसे पीने में साथ देने से मना कर दिया था तो शारंगधर ने कहा था मुझे लत लगा कर अब बहुत साधु बनते हो। अब वह छोड़ना चाह रहा था ।

 बिजय से तकरीबन रोज सुबह बाथरूम जाते वक्त मुलाकात हो जाती। वो अपने कमरे के बाहर टूथ ब्रश मुंह में लगाए नीचे आंगन की ओर झांकता रहता। या फिर मै उसके दरवाजे पर धक्का दे कर उसे बाहर आने को मजबूर कर देता। सुबह का समय धोबी मोची के होस्टल में आने का होता था और कुछ थर्ड इयर के छात्र मैदान में खेल रहे होते थे। हम भी इन गतिविधियों को थोड़ी देर देखते। दोपहर हम लन्च के लिए होस्टल आते, यह समय था पोस्टमैन का यानि महीने महीने आने वाले मनी ऑर्डर का । शाम को बंगाली मिठाई वाले का ईतंजार करते। वह रोज कुछ नया ले आता। गरम सिंघाड़ा और रसगुल्ले हमारा फेवरिट था। बिजय के कमरे से आगे बाथरूम के बाद वाले कमरे में अम्बिका रजंन चटर्जी था जो बाद में बोकारो में पड़ोसी और सहकर्मी भी रहा। उसके कमरे में भी कभी कभी खाली समय बिताने इकठ्ठा होते थे। पता नहीं बिजय के साथ क्या केमेस्ट्री जमीं हम एक दूसरे के कमरों में खाली समय गप्पे मारने जमा हो जाते। किसी समय दिन हो या रात हमारे दरवाजे एक दूसरे के लिए खुले ही रहते। बाजार घूमना और फिल्म देखना भी साथ होता। तीन पत्ती के खेल में मै दर्शक बन जाता। खाने के लिए मेस भी साथ जाते। अक्सर लोग रूममेट के साथ मेस जाते थे। एकल रूम में हमनें अपना ग्रुप बना रखा था। अत: इस आपसी खिचाव के बदौलत धीरे धीरे सात मित्रों का एक ढ़ीलाढाला ग्रुप बन गया कौशल कुमार पाण्डे, सतीश,  सत्यनारायण,  विरेन्द्र, बिजय, केके और मैं। केके (कृष्ण कुमार सिन्हा) कॉलेज का घनिष्ठतम मित्र था और हम तीन बार रूममेट भी रहे। बाकी के पाँच में से
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चार मेरे मौसेरे बड़े भाई स्व श्री मिथिलेश सिन्हा  के छात्र रह चुके थे और उनके बहुत बड़े वाले भक्त थे। शायद यही हमारी बॉन्डिगं की वजह रही हो। बिजय का छोटा भाई अजय भी हमारे कॉलेज में एक साल जूनियर छात्र था और कॉलेज के बाद उसने बोकारो में ही एक सरकारी कम्पनी में नौकरी ज्वाइन किया था। उस कम्पनी में वह मेरे बचपन के मित्र अवनी कुमार सिन्हा का सहकर्मी था। रिजल्ट आने के बाद मै अपने ही कॉलेज में लेक्चरर लग गया और कुछ महीने बाद बोकारो स्टील ज्वाइन कर लिया। बिजय से सम्पर्क नहीं रहा पर जब मै खगड़िया अपने छोटे चाचा जी के यहाँ गया था तब मैने बिजय को जो खगड़िया का रहने वाला था ढूंढ निकाला। वह वहाँ के एक बड़े मारवाडी बिजनेस घराने का लड़का था पेट्रोल पम्प,  दुकाने एजेंसियां सभी थे इस परिवार के पास ।  मै सोचने लगा कि आखिर 6 साल लगा कर बिजय को ईजिंनिरिंग डिप्लोमा फिर डिग्री पढ़ने की क्या जरूरत थी,  कॉमर्स की पढ़ाई में तो सिर्फ तीन साल लगते। फिर घर का बिजिनेस ही संभालना था । फिर उसके घर पर खाना खाने गया तो सभी भाइयों एक साथ भी और अलग अलग  भी रहते देखा। सभी के पास दो कमरे। अपने गेस्ट को बैठाने खिलाने की  अपनी जगह अलग। और साथ रहने का अनुशासन भी। होस्टल में अपने छोटे भाई से छिप कर अण्डा खा लेने वाला बिजय के घर नॉन वेज सख्त मना था उस समय बिजय को चिन्तित देखा था क्योंकि इन्जिनियरिगं करने के बाद भी घर के बड़े बिजिनेस में आने के लिए जिद कर रहे थे, जो उचित भी था पर बिजय को यह मंजूर नहीं था। उसका कहना था नौकरी करना ज्यादा satisfying और fullfiling है । खैर अन्तत: उसने बड़ो का कहना माना और बिजिनेस में आ गया। अगले वर्ष जब अजय की बारी आई तो उसे नौकरी में जाने की अनुमति मिल गई। अजय भी रिटायर होने के बाद अब एक कन्स्ट्रकशन कंपनी का मालिक है ।
बिजय की शादी फरवरी 1973 में हुई भाभी जी दार्जिलिगं की थी इसी साल मेरी भी शादी जून में होनी थी और मेरी होने वाली बेगम काठमाण्डू से थी। जब शादी में जाने का निमंत्रण मिला तो नेपाली बोलने वाली जगह जाना है यह जान कर थोड़ी झुड़झुरी हुई। बारात का इंतजाम देख कर आँखे खुली रह गई, करीब एक दर्जन कार और एक ट्रक। इतने कारों का काफिला तब कम ही देखने को मिलता था। बंदूकधारी दो गार्ड भी साथ थे। हम सभी मित्र दुल्हे के साथ एक फिएट गाड़ी में थे। हर जगह जहाँ जहाँ हम रुकते खाना, नाश्ता, मिठाई, चाय का पुरकश इंतजाम था। यात्रा का मजा लेते खाते पीते हम सिलिगुड़ी पहुंचे। फिर चढ़ाई शुरू हो गई। हमारी गाड़ी बिजय के मौसा जी की थी। मैदानी इलाके की गाड़ी और मैदानी इलाके के ड्राइवर, पहाड़ी रास्ते मे़ १०-१५ किलोमीटर जाते जाते ही कार खराब हो गयी। पीछे से आने वाली गाड़ियाँ रुकती तो मौसा जी उनसे कहते बस अभी ठीक हो जाएगी आप निकलिए। एक एक कर सभी गाड़ी आगे निकल गई। हम लोग रुक कर प्रतीक्षा करने लगे। सिर्फ ट्रक पीछे थी। तभी एक अम्बेसडर कार आ कर रुकी। उसमे लड़की के मौसा जी थे। उन्होंने देखा कि लड़का ही रास्ते में फसां रह गया तो ठीक न होगा। हमे पहले लगा कि हमे मित्रों को यहीं छोड़ सिर्फ बिजय को लेकर जायेंगे, पर मै बिजय को जानता था, हमें अकेले छोड़ जाने वालों में नहीं था वह।उस गाड़ी से कुछ लोग वहीं उतर गए और हम लोग आगे की यात्रा पर साथ निकल पड़े और शाम तक दार्जिलिंग पहुंच गए। हमारे ठहरने का इंतज़ाम उंचाई पर बने एक होटल में था। जब हम लड़के के साथ पहुँचे तो सबके जान में जान आयी। एक घंटे बाद मौसा जी भी पहुँच गए । इन सब कारणों से पहाड़ी नज़ारों का ज़्यादा मज़ा नहीं उठा पाए। वह जाने के बाद ही नाश्ता परोसा गया। सब्जी ड्राई फ्रूट्स और पके फलों शायद अंगूर की थी। चीनी डाला हुआ था। मिठाईया भी ख़ूब थी। इतनी की नमकीन के लिए तरस गए। पता चला शादी होने तक नमकीन नहीं खिलाया जायेगा। बारात पहुँचने पर स्वागत में भी अच्छी-अच्छी मिठाई, पीने को लस्सी, बादाम मिल्क ! जलजीरा तक नहीं था। नई जगह, नई भाषा, थोड़ी-थोड़ी बारिश। कही बाहर भी नमकीन खाने नहीं जा सके। रात में शादी के बाद जब डिनर लगाया गया, बिजय के भैया मिठाईयां ले कर आये, अमिताभ क्या लोगे? मैं तो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। भैया कुछ नमकीन खिला सकते है तो खिलाईए नहीं तो सुबह ही खाएगें। सारे लोग हस दिए। लड़का लड़की दोनों तरफ के लोग साथ मिल कर सबका ख्याल रख रहे थे, जो बहुत अच्छा लगा। अब तो ऐसा अक्सर देखने को मिलता है, पर 1973 में ऐसा कभी कभी ही होता था और लड़की वाले अकेले ही परेशान रहते थे। सुबह थोड़ी देर बाज़ार घूम आया। चाय बागान भी देखे पर ठीक तरह से दार्जीलिंग घूमने का मज़ा नहीं ले पाए। वापसी में कोई दिक्कत नहीं हुई। हम मित्र गण अलग-अलग गाड़ी में लौटे। मुझे बोकारो लौटने की हड़बड़ी भी थी। इसके बाद बिजय से सिर्फ़ एक बार मुलाकात हुई। शायद बोकारो में ही।
कुछ ही दिन पहले मेरे बचपन का दोस्त अवनि (मंटू) को जिसका जिक्र मैने उपर किया है, फेस बुक पर देखा। FB फ्रेन्ड बनने के बाद उससे फ़ोन पर लम्बी बात हुई। सारे पुराने दोस्तो के बारे में बातें हुई। अजय के बारे में भी पता चला कि वह दुर्गापुर में किसी कम्पनी का ओनर / डायरेक्टर हैं। उसे भी मैंने फेस बुक पर खोज डाला। मैसेज के अदान प्रदान के बीच मैंने उससे बिजय का नम्बर माँगा। "भैया तो अब नहीं रहे ! " मुझे ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। मैं अजीब ख्यालों में डूबता चला गया। पुरानी बातें याद आने लगी। तीन दिनों के बाद मैंने सोचा क्यो न एक संस्मरण ही लिख डालू। बस इतनी-सी हैं बिजय की कहानी। भगवान उसकी आत्मा को शांति दे। शायद इस तरह मेरे याद करने से उसे कुछ तकलीफ भी पहुँची हो। पर दोस्ती में नो थैंक यू, नो सॉरी।

साले बिना बताए कितनी दूर चला गया तू ?