वो है नाराज़ मैं हूं बेबस
हो गई जिंदगी पूरी नीरस
रातों में नींद न दिन में चैन
जिंदगी बोझल पत्थर समान
वो पुरब को तकते रहते
मै पश्चिम को तकता रहता
नैनों से जो कहीं मिल जाय नैन
मोबाइल पर फिर झुक जाते नैन
मै हू बीमार मै हूं पंगु
चलता भी हूं मै ठुम्मक ठू
उनको डर है कहीं गिर न पड़ू
हूं उनकी नजर में गिरा पड़ा
मुझको चिंता अब कैसे उंठू
माफी मांगू चरणो मे गिरू ?
मुझसे गलती हो गई प्रिए
कुछ जान बुझ कर नहीं किए
कलापानी से बड़ी सजा ?
कुछ न्याय करो कुछ रहम करो
इससे तो अच्छा होता अगर
सौ सौ कोड़े लगवाती
मुंह काला कर सर मुंडवा कर
मुझे सारे शहर में घुमवाती
मुझको मुर्गा बनवाती
उठक बैठक करवाती
हर क्षण में खामोशी खलती,
मन में बस यादें है पलती
हर कोशिश में आँसू मिलते हैं
हरदिन महिनों से लगते है
माता तुल्य है फिक्र तुम्हें
कहीं खो न जाउं
कहीं गिर न पडूं
मै हूं वृद्ध मैं हू बालक
अब बहुत हुआ अब क्षमा करो
वो है नाराज़ मैं हूं बेबस
जीवन है अनकहा सा बस।
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