Friday, October 17, 2025

कार के साथ बुरे फंसे

एक घटना जिस पर मैंने अभी तक कोई ब्लॉग नहीं लिखा, AI से पापा के पहले कार का चित्र बनाने से याद हो आया। तब मैं शायद कालेज के दूसरे साल में था।
यानि 1966 की बात है। पापा ने एक कार खरीदी पापा की या हमारे परिवार की पहली कार थी Austin of England, A40 । उस समय जो भी हमारे संयुक्त परिवार के सदस्य थे, यानि जिनका जन्म तब तक हो गया था, ने कभी न कभी इससे यात्रा जरूर की है। हमारे बड़े मौसेरे बच्चन भैया जो हमसे 14 वर्ष बड़े थे उनकी बारात भी इसी कार से लगी थी।


मेरा वाकया तब का है जब मंडल जी धनबाद में कोलियरी की नौकरी छोड़ कर जमुई आ गए थे और हमारे यहां ड्राइवर लग गए थे। हम परिवार सहित किसी शादी में जा रहे थे । मां के साथ दीदी को छोड़ हम पांच भाई बहन, छोटी मां और संगीता, मंझली फुआ, नौकर गुलटेनवा और मंडल जी यानि कुल 11 जन यानि पांच बच्चे और अन्य बड़े थे। सामान में शायद तीन टिन के बक्स उपर बांधे गए थे और अन्य न जाने कितने सामान डिकी में थे। छोटी बहन मुकुल शायद तब तेरह बर्ष की थी और उसे भी मैंने बड़ो में ही गिना है। तीन लोग आगे और 8 पीछे की सीट पर। जाहिर है सभी बच्चे गोद में बैठे। सभी कष्ट के बावजूद कार की यात्रा तब की रेलयात्रा से आरामदेह था।
किस्सा तब शुरू हुआ जब मैं कुछ देर ड्राइवर सीट पर बैठा । मैं शायद 16 या 17 का था और बेसिक गियर क्लच एक्सलेटर का सिन्क्रोनाइजेशन करना सीख चुका था। सिर्फ स्टेयरिंग पर कच्चा था। ठीक ठाक तो मुझे कभी नहीं आया। मैं कुछ दूर जाने के बाद ड्राइवर सीट पर बैठ गया। लेकिन गढ्ढे से भरे रोड पर कार चलाना बच्चों का काम नहीं है यह सबित होने लगा । जिस गढ्ढे से बचना चाहता था अक्सर चक्का उसी में चला जाता। सिर्फ एक बात मेरे हक में था कि रोड पर ट्रैफिक बहुत कम था। तब छोटे शहरो को ट्रेफिक कम ही होते थे।
खैर कुछ दूर चलने के बाद कार टेढ़ी मेढ़ी चलने लगी। मैंने कार तुंरत रोक दी। मंडल जी ने चेक किया तो पता चला पिछले बांया चक्के के नट welded थे और जर्क के कारण weld टूट गए थे। हम किसी बस्ती के बजाय बहियार यानि सुनसान जगह पर थे दोनों तरफ खेत थे दूर कहीं कहीं खलिहान दिख रहे थे। तब खेतों की सिंचाई के लिए पंप का चलन नहीं था ओर खेतों में पंप के रक्षा के लिए रात में रूकने की जरूरत नहीं थी और रात और सुनसान हो जाती थी । मुझे छोड़ सिर्फ मंडल जी मर्द के श्रेणी में थे। हमने निर्णय लिया कि सभी महिलाओं और बच्चों को बस से वापस भेज दिया जाय। मंडल जी भी चक्का और नट बोल्ट खोल कर साथ ही चले गए ताकि घंटे डेढ़ घंटे में ठीक करा कर आ जाएं । अब सामान से लदी कार के पास 17 वर्ष का मैं और 11-12 वर्ष का गुलटेनवा ही रह गए।
अब शुरू हुई हमारी असली आजमाइश । हम लगातार आने वाले रास्ते की ओर नजर गड़ाए थे जब भी कोई गाड़ी, मोटर साइकिल या बस जाती तो आस जग जाती कि मंडल जी शायद इसमें में हों। सभी गाड़ी वाले हमें अजीब सी नज़रों से देखते हुए निकल जाते । आखिर एक मोटर साइकिल वाला रुक कर यह बता गया कि मंडल जी जल्द आएंगे। एक घंटे बाद एक कार वाला हमें नाश्ता दे कर चला गया। फिर ऐसा ही चलता रहा और कोई गाड़ी रुकी नहीं। करीब चार बजे एक मोटर साइकिल वाला एक टिफिन दे गया जिसमें हमारा लंच था। हमारा धीरज जवाब देने लगा। और मंडल जी पर बहुत गुस्सा आने लगा। इतनी देरी लगनी थी तो बता देते, उपर लदे बक्से भी बस से भेज देते। डर भी लगने लगा । हमारी गाड़ी में लदे सामान सबको दिख रहे थे।
धीरे धीरे शाम होने लगी।‌ करीब पांच बजे दो लंबे चौड़े आदमी लाठी लिए हमारे पास आए। अंदर से हम डर रहे थे और बाहर से हिम्मत दिखा रहे थे। उन्होंने कहा "एतना शाम हो गेलों ह अब तक गेल्हो नय"।
कोई और समय होता तो मैं कहता तुमको मतलब? लेकिन मैं शांत रहा और बोला "चकवा पेंचर हो गेले हल। ड्राइवर साहब ले के गेले हथी अब आइबे करता "
"रात होले जाल हो तोहरा सब के चल जाय के चाही दिन दुनिया ठीक नय हो। आगे बहुत छीना झपटी होय ह , जल्दीए इहा से चल जाहो" और उन्होंने एक नज़र कार के उपर लदे बक्सो पर और एक नजर हम पर डाला और वे चले गए।
अब मैं उन्हें क्या बताता कि भाई साहब मुझे तो आप ही डाकू लग रहे हो। तुमने सामान देख लिया रक्षा करते सिपाहियों को भी परख लिया, क्या जाने दो चार धंटे बाद‌ तुम लोग फिर से आ जाओ।
अंधेरा होने लगा था। चांद भी नहीं निकला था। हमने ग्लोव कम्पार्टमेन्ट से दो मोमबत्तियां निकाली और कार के आगे पीछे जला कर चिपका दी ताकि घर से कोई आता हो तो अंधेरे में भी कार दिख जाए। मैं मन ही अपनी स्ट्रेटजी बनाने लगा। हमें अब तक समझ आ गया था हम कार पर लदे सामानों की रक्षा नहीं कर सकते। कार का एक पहिया नहीं था कार वे ले नहीं जा सकते। बैट्री, टायर की चोरी तब शुरू नहीं हुई थी। अब मैं हिसाब लगाता हूं तो तीन बक्सों में रखे थे दुल्हे को देने के लिए 3 अंगूठीयां और तीन महिलाओं के जेवर । कम से कम 60 ग्राम सोना और बनारसी साड़ियां और नए पुराने कपड़े। आज के हिसाब से कम से कम 10 लाख के सामान थे‌। यानि रात तक कोई न आया तो हमें अपनी सुरक्षा की सोचनी थी। कार में सोना खतरे से खाली न था। क्यों न हम दूर उस पेड़ के नीचे रात बिताए दूर से गाड़ी पर नजर रखेंगे । मन ही मन चोर चोर चिल्लाने का अभ्यास करने लगा। चिल्लाने में गुलटेनवा माहिर था। फिर रात में सियार के आने का खतरा था। आग जलाने के लकड़ी कहा मिलती । मैंने कार में ही सोने का फैसला किया। डाकु आए तो उन्हें सब ले जाने दूंगा और अपनी घड़ी पर्स भी दे दूंगा।
यह सब सोच ही रहा था कि एक कार की लाइट दिखाई दी। हमारी आशा जगी ही थी कि, "घबरहिओ नय भोला बाबु (मेरे छोटा बाबु यानि छोटे चाचा) आवों हथुन" कह कर ड्राइवर आगे निकल गया। अब जाकर चैन आया। थोड़ी देर में अपने एक सहकर्मी के मोटर साइकिल से छोटा बाबु आ गए। अब मैं पुर्णत: निश्चिंत हो गया। दर असल मंडल को चक्के के साथ दो मैकेनिक को भी लाना था। इसलिए कार की जरूरत थी। हमारे पड़ोसी डा० मुखर्जी अपनी कार देने में आनाकानी कर रहे थे। पापा भी घर पर नहीं थे।

डा० मुखर्जी की गाड़ी ऐसी थी
अंत में डा० साहब के दायां हाथ यानि ड्राइवर, कम्पाउन्डर और सहयोगी नीलू बाबू के उन्हें छोड़ कर चले जाने की धमकी ने असर दिखाया और उन्होंने कार दे दी। एक तो रिपेयर में देर लगी फिर हवा भरने के लिए बिजली आने का इंतजार करना पड़ा फिर कार मिलने का यह टंटा। कुछ देर के इंतजार के बाद कार आ गई, मैं मंडल जी पर बिगड़ पड़ा कि जब तक रिपेयर हो रहा था आप यहां आ जाते। खैर करीब आधे घंटे लगे और अपनी कार चल पड़ी । आधे घंटे बाद मुझे देख मां के आखों में आंसू आ गए। घर में सभी ने चैन की सांस ली। और अब हमने भी राहत की सांस ली ‌।

अब यह न पूछना अगले दिन गए कि नहीं? वो किस्सा फिर कभी।

No comments:

Post a Comment