श्री धर्मेन्द्र सिंह देओल का आज 24 नवंबर 2025 को 90 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने 1961 से बोलीवुड में कदम रखा था। ये वो समय था जब मैं टीन एज की ओर अग्रसर था और फिल्म देखने का शौक होना शुरू हुआ था। पर मुझे फिल्म देखने की थोड़ी आजादी 14 की उम्र में यानि 1964 में मिली जब महीने में एक फिल्म देखने को मिलता पर जब 15 की उम्र में, हास्टल में रहने गया तो फिल्में देखना एक आवश्यक कार्य के सामान हो गया। नई फिल्म का लगना, पुरानी प्रसिद्ध फिल्म का लगना, एक टिकट में दो खेल का लगना या Exam के बाद या यदि गणित का हो तो पहले (धारना थी कि गणित के दिन रात मे जग कर नहीं पढ़ना चाहिए) यह सब बहाने होते थे। फिल्म देखने के। तब जमाना था राजकपूर, दिलिप कुमार और देवानंद का। राजेश खन्ना का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। तब उनकी एक फिल्म देखी बंदिनी और बहुत पसंद आई थी फिल्म। अन्य प्रमुख अभिनेताओ से काफी युवा, सक्षम धर्मेंद्र जी से तुरंत connect कर पाया फिर देखी काजल जिसमें राजकुमार जैसे सक्षम अभिनेता के सामने भी इस जवान अभिनेता ने बहुत impress किया। फिर देखी अनुपमा। एक upcoming कवि के कठिन भूमिका बहुत खूब निभाई थी। हकीकत के हकीकत से तो सभी वाकिफ हैं। आंखें - शायद पहली जासूसी फिल्म जिसमें हास्य भी था। उनकी कई फिल्म शिकार, आया सावन झूम के, आए दिन बहार के, नीला आकाश इत्यादि पूरी तरह मनोरंजन के लिए थी। पर बहारें फिर भी आएंगी, नया जमाना, जीवन मृत्यु, फागुन, सत्यकाम कुछ हट के थी तो सीता गीता, चुपके चुपके में उनका अलग कामिक अंदाज दिखा। मेरा नाम जोकर,शिकार, मेरा गांव मेरा देश, शोले में दिखा उनका 'ही मैन' वाला रूप। हर तरह का रूप, अभिनय के हर आयाम में महिर यह शख्स, आज अपने करोड़ों प्रशंसकों को छोड़ उस लोक में चला गया जिसके बारे में कहा या पूछा गया है "कि दुनिया से जाने वाले जाने चले जाते हैं कहां"। उन्हें भगवद् चरण में जगह मिले ओम शांति। हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

स्केच श्री दीपक वर्मा के फेसबुक पोस्ट से, धन्यवाद सहित
मैंने कुछ फिल्मों का जिक्र उपर किया है। धर्मेंद्र जी की कुछ और फिल्में जो मैंने देखी है, बड़े पर्दे पर या छोटे पर्दे पर वो है शोला और शबनम, बंदिनी, काजल, आकाशदीप, हकीकत, ममता, आए दिन बहार के, फूल और पत्थर, अनुपमा, देवर, आंखें, शिकार, मेरे हमदम मेरे दोस्त, मंझली दीदी, आया सावन झूम के, सत्यकाम, मेरा नाम जोकर, जीवन मृत्यु, मेरा गांव मेरा देश,नया जमाना, गुड्डी, दो चोर , समाधि, राजा जानी, सीता और गीता, जुगनू, फागुन, यादों की बारात, चुपके चुपके, शोले, बारूद,चरस, स्वामी, ड्रीम गर्ल,चाचा भतीजा, धरम वीर, शालीमार, दिल्लगी, बर्निग ट्रेन, नसीब, मै इंतकाम लूंगी, रजिया सुल्तान, नौकर बीबी का, जागीर, सल्तनत, ओम शांति ओम। मैंने कई फिल्मे और भी देखी होगी पर याद नहीं आ रहा है।
My Journey through life
Amitabhsinha ; autobiography ; travelogue; events; history; film; Bollywood Hindi stories & Poetry; Amitabh's blog !
Monday, November 24, 2025
श्री धर्मेंद्र देओल -श्रद्धांजली
Friday, November 21, 2025
हेलेन
हेलन का जन्म 1938 में बर्मा में एक एंग्लो-इंडियन पिता और बर्मी माँ के घर हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उनके पिता की मृत्यु हो गई, जिसके बाद उनका परिवार 1943 में भारत आ गया और मुंबई में बस गया। परिवार की आर्थिक तंगी के कारण उन्होंने 13 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी और परिवार की मदद करने के लिए कोरस डांसर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की।
हेलेन जी को फिल्मो में कक्कू ही ले कर आयी और हेलेन ने कैबरे को फिल्मो में एक अलग ही स्थान दिलाया १९३८ में एंग्लो इंडियन पिता और बर्मी माता के परिवार में जन्मी हेलेन जी ने अपने पिता को द्वितीय विश्व युद्ध में खो दिया . तब वह माँ के साथ मुंबई आ गई . कक्कु ने उन्हें कोरस डांसर का काम १९५१ में दिलवाया फिल्म थी शबिस्तां और आवारा.
सुन्दरता और मादकता की पर्याय थी 'हेलन जी'। उनकी खूबसूरती और नृत्य का खुमार सिनेप्रेमियों के जेहन में आज भी कायम है।
कितना गिनाऊ अनगिनत गानों पर उनके पॉपुलर डांस है। हेलेन के ज्यादातर गाने गीता दत्त और आशा भोंसले ने गाए हैं।उन्हें दो फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिल चुका है। गुमनाम के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस के लिए नामित भी की गयी। २००९ में पद्म श्री से सम्मानित हेलेन जी 700 से ज़्यादा फ़ि्ल्में कर चुकीं हैं
Sunday, November 16, 2025
वो आठ दिन
सबने या काफी लोगों ने वो सात दिन फिल्म देखी होगी, एक सुन्दर सुखान्त फिल्म थी। पर मेरे लिए वो आठ दिन एक कैद जैसी थी। मैंने वो आठ दिन बिताये थे अस्पताल के क्रिटिकल केयर यूनिट या CCU में। ICU और CCU अस्पताल का कैदखाना होता है। आप न कही जा सकते है न आपके चाहने वाले आपके पास रुक सकते है। सिर्फ दो या तीन लोग 24 घंटे में सिर्फ दो बार आधे घंटे के लिए बारी बारी से मिल सकते है यानि एक के साथ सिर्फ दस मिनट। उसमें भी आप अपने कम उम्र नाती-पोता-पोती से भी नहीं मिल पाते चाहे उनमे आपका प्राण बसता हों। और वही तो चिंता होती है, CCU में रखा है, प्राण बचे न बचे। प्राण बचे तो ठीक यदि नहीं बचे तो ? सबको बिना देखे और बिना मिले निकल लेना पड़ेगा। प्राण जाने और वैराग्य का अनुभव भी कही लिखूंगा। अभी अपने आठ दिनों के कारावास पर ही कुछ लिखूंगा।
ऐसे जब जो भी शुभचिंतक मेरा ब्लॉग पढ़ेंगे उनको यह बता दू, यह घटना दो महीने पुरानी है और अब मैं स्वस्थ्य हूं, चिंता की कोई बात बिल्कुल नहीं है।
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एक ICU का दृश्य, विकीपीडिया के सौजन्य से
अच्छा भला चला था काठमांडू से दिल्ली के लिए। पर दिल्ली एयरपोर्ट चलने में थकान हो रही थी। पेट में गैस की शिकायत तो काफी दिनों से थी ही। दिल्ली में मैं पहले एक पेट के डाक्टर के पास गया, ब्लड टेस्ट और अल्ट्रासाउंड में कुछ खास पता नहीं चलने पर नजदीक के अस्पताल में भर्ती हो गया। वहां ICU में में ले गए। आक्सीजन और ड्रिप से मैं शाम तक लगभग ठीक हो गया। मेरा माथा तब ठनका जब घर ले जाने के वजाय हमें ambulance में सुला कर आक्सीजन लगा ले जाने लगे। तब मुझे पता चला कि मैं बड़े अस्पताल Max Vaishali ले जाया जा रहा हूं और दिल की कुछ बीमारी है मुझे। इमरजेंसी में admit कर दिया इतना भी समय नहीं दिया कि मैं अपने पत्नी या बिटिया को बता सकूं कि मेरा insurance में दिल की बीमारी excluded है और मेरा आयुष्मान कार्ड के हिसाब से, एप्रुव्ड अस्पताल ही ले जाना था। बाद में जब बताया तो Max वालों आयुष्मान कार्ड से ईलाज करने से मना कर दिया जबकि बाद में देखा pmjay अस्पताल के लिस्ट में था उनका नाम।
CCU में मुझे अजीब अजीब अनुभव हुआ। तीन shift में चलता है अस्पताल का काम पर विशेष यह है कि मौर्निंग और इवनिंग सिफ्ट 6 घंटे का होता है रात का सिफ्ट 12 घंटे का। सभी को महीने में 10 रोज रात्रि की पाली करनी ही पड़ती है। रात में मुख्य डाक्टर भी नहीं होते और सिस्टर लोगों के उपर ही होती है सारी जिम्मेदारी। सिफ्ट बदलने पर दृश्य कुछ देर chaotic होती है। किसी एक नर्स की ड्युटी रोटेशन से एक घंटे अधिक होती है ताकि वह जाने वाली नर्स से सभी बेड के मरीजों का लेकर आने वाली नर्स को समझा सके। टेक ओवर और हैंड ओवर की तरह। नई आई हर नर्स तीन बेड के मरीजों की देख भाल करती है, पर उन्हें एक बड़े से sheet पर कुछ भरना पड़ता फिर वे लैपटॉप पर कुछ डाटा डालती। उनके लिए ये काम शायद मरीजों के देखभाल से ज्यादा आवश्यक होगा, मैंने लैपटॉप पर काम करती नर्स से पानी मांग कर देख लिया था, अव्वल तो वे किसी और को कहेगी या झुंझला कर पानी देगी यह कहते हुए कि आपको ज्यादा पानी पीना मना है। यानि सिस्टम तो ठीक ही बनाया, पर मरीजों के देखभाल को कम अहमियत दी गई है, शायद कुछ और लोगों की जरूरत है जो डेटा इंट्री का ही काम करे। रात में आने वाली नर्स ज्यादातर ज्यादा धैर्यहीन और झुंझलाहट भरी होती थी, खास कर जो पिछले आठ दस रातों से नहीं सो पाई हो। शायद नर्स की संख्या बढ़ाने की जरूरत है ताकि कुछ नर्स बीच के एक दो रात की ड्यूटी करें ताकि 10 रातों की थकाने वाले सिड्युल से एक दो रातों का राहत मिलता। 8-8 घंटों का 6-2,2-10, 10-6 का सिफ्ट शायद सही होता पर तब सुबह सवेरे आना और रात देर से लौटना महिलाओं के लिए यहां सेफ नहीं होता होगा। ![]()
विदेश का एक अस्पताल, विकीपीडिया के सौजन्य से
पहले दिन मेरी देखभाल को आई नर्स ने अपना परिचय दिया, मेरा नाम प्रिया है और कोई जरूरत होने पर आप बुला लेना। मै चलने में तब असमर्थ था, ऐसे भी कैनुला ड्रिप लगा मरीज कैसे उठ कर जा सकता हैं। मेरी आवाज़ मे ताकत भी कम थी, और प्रिया, ड्रिप लगाने, दवाई खिलाने और खून निकलने तो आई पर बुलाने पर कभी नहीं। एक और प्रकार के सेवक होते हैं यहां जीडी भैया और दीदी- यह कर के ही बुलाते हैं उन्हें, चाहे वे बच्चे ही क्यों न हो। यह सारे वो काम करते जिसको करने के लिए कोई खास ट्रेनिंग नहीं चाहिए, जैसे ब्लड सैंपल लैब में ले जाना, मरीजों को वाश रूम ले जाना, पोर्टेबल टायलट ला देना, खाना खिलाना, पानी पिलाना इत्यादि। क्योंकि पूरे वार्ड में सिर्फ एक होते, आप अक्सर सिस्टर्स का चिल्लाना सुनेंगे "जीडी भैया" या "जीडी दीदी"। और वे सारे समय इधर उधर भागते नजर आएंगे। कभी जब लैब जाते या कोई इक्युपमेंट लाने लौटाने जाते तब दूसरी नर्सें इनके लिए चिल्लाती रहती। मुझे तीन जीडी याद रह गए एक प्रौढ़ मर्द जो शादीशुदा और दो पुत्रों के पिता थे और रात के शिफ्ट में थे। क्योंकि इन्हें दिन में सोने का मौका कम मिलता होगा ये कभी कभी मेरे क्युबिकल में बने बेंच पर छिपकर सोने आ जाया करते। और दो जो सुबह की शिफ्ट में आते और जिनका मैं इंतजार भी करता वे थे, मोहित जो B.A. की पढ़ाई के लिए ये नौकरी कर रहे हैं और दुसरी थी सना जिसके अब्बा दर्जी है तीन बहनों में बड़ी सना यह नौकरी अपने परिवार के लिए कर रही थी। बारहवीं की पढ़ाई के बाद सना ट्रेन्ड नर्स बनना चाहती है। दोनों 19-20 वर्ष के थे और उनकी यह पहली नौकरी थी। सना को मैंने अपने काम और वरदी पर गर्व करने वाला पाया। दोनों मेरे काम बड़ी प्यार से करते और आने जाने पर हाय या बाय करना न भुलते। मै भी उनके परिवार के बारे में पूछता और अपना आशीर्वाद भी देता रहता। जब मैं कमरे वाले वार्ड में शिफ्ट हो रहा था, सना मुझे wheel chair से खुद ले जाना चाहती थीं पर नर्स दीदी ने कुछ काम दे कर उसे रोक लिया। भगवान इनकी इच्छा पूरी करे। मेरे देख भाल में आई हर नर्स का मै नाम अवश्य पूछता। और कुछ के नाम याद रह गए, रश्मी, साधना और वंदना। जब साधना को मैंने बताया कि साधना मेरी फेवरिट हिरोइन थी तो पहले वो क्षेप गई पर बाद में इसका मजा भी लेने लग गई। जब मेरी पत्नी मुझसे मिल कर गई तब उसने पूछा अपनी मिसेज को अपने मेरे बारे में बताया, और मैंने उससे कहा "मैंने उसे बताया कि मैंने आज साधना के हाथ से खाना खाया"। इस पर वह हंस पड़ी। बता दूं मैं 76 वर्ष का हूं और सभी नर्स मेरी बेटियों समान थी
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भारत का एक सरकारी जिला अस्पताल
एक दिन का वाकया मै बताना चाहूंगा। मेरे बगल वाले क्युबिकल में एक मरीज आए जिनको पेस मेकर लगा था। वे बार बार अपनी पोती का नाम लेकर पुकार या चिल्ला रहे थे। उन्हें एक हाथ और पैर नहीं हिलाना था। वे बार बार मना करने पर भी हाथ खींच रहे थे। एक बार कैनुला निकाल फेंका। एक रात किसी तरह संभाला पर अगली रात उन्हें कंट्रोल करना मुश्किल हो गया। उठ कर भाग जाने की कोशिश करने लगे। वंदना जिसके रात के शिफ्ट का दसवां दिन था वो थी उस रात। आज वो धैर्यहीन और खराब मूड में थी, उस पर ऐसा मरीज। कैनुला निकाल फेंकने पर में वो मरीज को धमका बैठी "आपको पता नहीं हम कहां कहां कैनूला लगा सकते हैं।" अब मरींज हत्थे से बाहर हो गया। उठ कर भागने की कोशिश करने लगा, दिल्ली वाली गालियां देने लगा और चैलेंज करने लगा "बहन.. (बहन की गाली) ममता (जबकि नाम वंदना था) आ जा देखे कौन कैनुला लगाता है"। सभी चुप हो गए। पुरूष नर्स बुलाए गए, रात वाले डाक्टर, जो सो रहे होंगे, भी बे मन से आए। किसी तरह उन्हें कुछ दवा दे कर सुलाया गया। फिर सुबह में वरिष्ठ डाक्टर आए और उसे उठा कर उसे दिन है कि रात का प्रश्न करने लगे। दो रात मै सो ही नहीं पाया। खैर सुबह एक सिनियर मलयाली नर्स आई शीला मैडम। उसने बड़ी चतुराई से उसे संभाला। पहले भगवान की कसम दी हाथ नहीं हिलाने की फिर रूल के विरुद्ध जा कर इस मत ख़ब्त आदमी के पत्नी को बुला लाई और उसको बैठा कर यह देखने का जिम्मा सौंपा कि देखिए दायां हाथ हिलाने पर इनके जान पर बन आएगी । इसके बाद वह नहीं चिल्लाया । हाथ हिलाने पर उसे ही डांट मिलने लगी ।
अब यदि आप जानना चाहे अस्पताल का बिल कैसे प्रतिदिन का 30-50 हजार हो जाते हैं तो यह देखिए:
० हर खाने के पहले सुगर टेस्ट करते हैं जबकि आपको डाईबेटीज था ही नहीं, उस पर चाहे सुगर कुछ भी आए, खाना वहीं आएगा। बेस्वाद।
० सुबह शाम ब्लड टेस्ट करते करते आपका हाथ काला कर देंगे जैसे हर दिन खिलाए दवा का असर देखना चाहते हो। आप एक गिनी पिग बन जाते हो।
० आपको वार्ड में जगह नहीं मिल रही हो या शायद मिल भी रही तो भी CCU -ICU में एडमिट कर देना जहा छोटे-छोटे क्युबिकल का अधिक किराया वसूल सकें।
० आठ दिनों में मेरा तीन बार चेस्ट एक्स रे हुआ (जिसका फिल्म रिपोर्ट भी नहीं देते। )
० ECG-ECHO बार बार करना
० फार्मेसी बिल MRP पर लेना जबकि सभी दुकानों में आसानी से कुछ रिबेट अवश्य देते हैं।
० जो डाक्टर आपका इलाज नहीं कर रहा वह भी देख जाएंगे। उनके visit का भी चार्ज आपके बिल में होगा
इत्यादि इत्यादि।
बस आज का ब्लॉग थोड़ा बड़ा हो गया। क्षमा करें।
Saturday, November 1, 2025
रूठे रब को मनाना आसान है!
वो है नाराज़ मैं हूं बेबस
हो गई जिंदगी पूरी नीरस
रातों में नींद न दिन में चैन
जिंदगी बोझल पत्थर समान
वो पुरब को तकते रहते
मै पश्चिम को तकता रहता
नैनों से जो कहीं मिल जाय नैन
मोबाइल पर फिर झुक जाते नैन
मै हू बीमार मै हूं पंगु
चलता भी हूं मै ठुम्मक ठू
उनको डर है कहीं गिर न पड़ू
हूं उनकी नजर में गिरा पड़ा
मुझको चिंता अब कैसे उंठू
माफी मांगू चरणो मे गिरूं ?
मुझसे गलती हो गई प्रिए
कुछ जान बुझ कर नहीं किए
कलापानी से बड़ी सजा ?
है तुमने दिए हां तुमने दिए
कुछ न्याय करो कुछ रहम करो
इससे तो अच्छा होता अगर
सौ सौ कोड़े लगवाती
मुंह काला कर सर मुंडवा कर
मुझे सारे शहर में घुमवाती
मुझको मुर्गा बनवाती
उठक बैठक करवाती
हर क्षण में खामोशी है खलती,
मन में बस यादें है पलती
हर कोशिश में आँसू मिलते
हर दिन महिनों से लगते
हो माता तुल्य, है फिक्र तुम्हें
कहीं खो न जाउं
कहीं गिर न पडूं
मै तो हूं वृद्ध मैं बालक हूं
अब बहुत हुआ कर दो भी क्षमा
बाकी की सजा देते रहना
वो है नाराज़ मैं हूं बेबस
जीवन है अनकहा सा बस।
Monday, October 20, 2025
राजा बलि और नेपाल का तिहार
हमने दिवाली को राम के अयोध्या लौटने और यमुना को भाई यम को भोजनहमने दिवाली को राम के अयोध्या लौटने और यमुना को भाई यम को भोजन खिलाने से संबंधित कथा तो सुनी है, अब एक और कथा।
महर्षि कश्यप सभी प्राणियों के पुर्वज माने जाते हैं। उनकी पत्नियां दिती और अदिति दक्ष प्रजापति की पुत्रियां थी। दिति दैत्यों की माता थी अदिति देवों की। दिति के दो पुत्र थे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। हिरण्याक्ष को अवतार और हिरण्यकश्यप को नरसिंह अवतार ने मारा। हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद विष्णु के भक्त थे। इन्हीं प्रह्लाद के पौत्र थे राजा बालि । तीनों लोक के स्वामी राजा बलि बहुत पराक्रमी थे और प्रजा वत्सल भी। इंद्र के प्रर्थना और देवों को देवलोक वापस दिलाने के लिए श्री विष्णु ५२ अंगुल के बौने वामन का रूप धर राजा बलि ९९ वें यज्ञ में पहुचें। इस यज्ञ के बाद बलि का इंद्र होना निश्चित था।

तिहार के दूसरे दिन कुकुर पुजा
वामन ने दानवीर बलि से तीन पग धरती के दान की कामना की। वामन के छोटे पैरों को देख तीन पग धरती का दान बलि को अपने यश के अनुरूप नहीं लगा और उन्होंने बहुत सारी गाएं और धरती के साथ धन का दान का प्रस्ताव रखा पर वामन ब्राह्मण अपनी तीन पग वाली बात पर अडिग रहे। बलि ने गंगा जल हाथ में लेकर तीन पग धरती दान कर दिए। तब श्री विष्णु अपने विशाल रूप में प्रकट हुए और दो पग में स्वर्ग और धरती दोनों नाप लिए। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सर प्रस्तुत कर दिया। विष्णु ने उसे सदा के लिए उसे पाताल भेज दिया जहां वह अब भी राज करता है।
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बलि सात चिरंजीवियों में से एक है। विष्णु ने बलि को वर्ष में एक बार अपने राज्य की प्रिय प्रजा के बीच वापस धरती पर आने का वरदान दिया। नेपाल में माना जाता है कि राजा बलि यमपंचक यानि तिहार (दिवाली) में धरती पर पांच दिनों के लिए आते हैं। उनके आने की खुशी में त्योहार मनाया जाता है और पारंपरिक गीत देवशी में राजा बलि से संबंधित लाइने भी होती है।
Saturday, October 18, 2025
फागुन का शोर
आज फ़िजा में इतना शोर क्यों है?
तमन्नाएं चीख पुकार कर रही
मन शोर सुनने को तैयार क्यों है?
फागुन के आने का सबब लगता है
फागुन में इतना चमत्कार क्यों है?
भवनाओं के ववंडर में फंस गया हूं
पर इसमें फंसने का मलाल क्यों हूं?
अमिताभ कुमार सिन्हा, रांची
Friday, October 17, 2025
कार के साथ बुरे फंसे
एक घटना जिस पर मैंने अभी तक कोई ब्लॉग नहीं लिखा, AI से पापा के पहले कार का चित्र बनाने से याद हो आया। तब मैं शायद कालेज के दूसरे साल में था।
यानि 1966 की बात है। पापा ने एक कार खरीदी पापा की या हमारे परिवार की पहली कार थी Austin of England, A40 । उस समय जो भी हमारे संयुक्त परिवार के सदस्य थे, यानि जिनका जन्म तब तक हो गया था, ने कभी न कभी इससे यात्रा जरूर की है। हमारे बड़े मौसेरे बच्चन भैया जो हमसे 14 वर्ष बड़े थे उनकी बारात भी इसी कार से लगी थी।

मेरा वाकया तब का है जब मंडल जी धनबाद में कोलियरी की नौकरी छोड़ कर जमुई आ गए थे और हमारे यहां ड्राइवर लग गए थे। हम परिवार सहित किसी शादी में जा रहे थे । मां के साथ दीदी को छोड़ हम पांच भाई बहन, छोटी मां और संगीता, मंझली फुआ, नौकर गुलटेनवा और मंडल जी यानि कुल 11 जन यानि पांच बच्चे और अन्य बड़े थे। सामान में शायद तीन टिन के बक्स उपर बांधे गए थे और अन्य न जाने कितने सामान डिकी में थे। छोटी बहन मुकुल शायद तब तेरह बर्ष की थी और उसे भी मैंने बड़ो में ही गिना है। तीन लोग आगे और 8 पीछे की सीट पर। जाहिर है सभी बच्चे गोद में बैठे। सभी कष्ट के बावजूद कार की यात्रा तब की रेलयात्रा से आरामदेह था।
किस्सा तब शुरू हुआ जब मैं कुछ देर ड्राइवर सीट पर बैठा । मैं शायद 16 या 17 का था और बेसिक गियर क्लच एक्सलेटर का सिन्क्रोनाइजेशन करना सीख चुका था। सिर्फ स्टेयरिंग पर कच्चा था। ठीक ठाक तो मुझे कभी नहीं आया। मैं कुछ दूर जाने के बाद ड्राइवर सीट पर बैठ गया। लेकिन गढ्ढे से भरे रोड पर कार चलाना बच्चों का काम नहीं है यह सबित होने लगा । जिस गढ्ढे से बचना चाहता था अक्सर चक्का उसी में चला जाता। सिर्फ एक बात मेरे हक में था कि रोड पर ट्रैफिक बहुत कम था। तब छोटे शहरो को ट्रेफिक कम ही होते थे।
खैर कुछ दूर चलने के बाद कार टेढ़ी मेढ़ी चलने लगी। मैंने कार तुंरत रोक दी। मंडल जी ने चेक किया तो पता चला पिछले बांया चक्के के नट welded थे और जर्क के कारण weld टूट गए थे। हम किसी बस्ती के बजाय बहियार यानि सुनसान जगह पर थे दोनों तरफ खेत थे दूर कहीं कहीं खलिहान दिख रहे थे। तब खेतों की सिंचाई के लिए पंप का चलन नहीं था ओर खेतों में पंप के रक्षा के लिए रात में रूकने की जरूरत नहीं थी और रात और सुनसान हो जाती थी । मुझे छोड़ सिर्फ मंडल जी मर्द के श्रेणी में थे। हमने निर्णय लिया कि सभी महिलाओं और बच्चों को बस से वापस भेज दिया जाय। मंडल जी भी चक्का और नट बोल्ट खोल कर साथ ही चले गए ताकि घंटे डेढ़ घंटे में ठीक करा कर आ जाएं । अब सामान से लदी कार के पास 17 वर्ष का मैं और 11-12 वर्ष का गुलटेनवा ही रह गए।
अब शुरू हुई हमारी असली आजमाइश । हम लगातार आने वाले रास्ते की ओर नजर गड़ाए थे जब भी कोई गाड़ी, मोटर साइकिल या बस जाती तो आस जग जाती कि मंडल जी शायद इसमें में हों। सभी गाड़ी वाले हमें अजीब सी नज़रों से देखते हुए निकल जाते । आखिर एक मोटर साइकिल वाला रुक कर यह बता गया कि मंडल जी जल्द आएंगे। एक घंटे बाद एक कार वाला हमें नाश्ता दे कर चला गया। फिर ऐसा ही चलता रहा और कोई गाड़ी रुकी नहीं। करीब चार बजे एक मोटर साइकिल वाला एक टिफिन दे गया जिसमें हमारा लंच था। हमारा धीरज जवाब देने लगा। और मंडल जी पर बहुत गुस्सा आने लगा। इतनी देरी लगनी थी तो बता देते, उपर लदे बक्से भी बस से भेज देते। डर भी लगने लगा । हमारी गाड़ी में लदे सामान सबको दिख रहे थे।
धीरे धीरे शाम होने लगी। करीब पांच बजे दो लंबे चौड़े आदमी लाठी लिए हमारे पास आए। अंदर से हम डर रहे थे और बाहर से हिम्मत दिखा रहे थे। उन्होंने कहा "एतना शाम हो गेलों ह अब तक गेल्हो नय"।
कोई और समय होता तो मैं कहता तुमको मतलब? लेकिन मैं शांत रहा और बोला "चकवा पेंचर हो गेले हल। ड्राइवर साहब ले के गेले हथी अब आइबे करता "
"रात होले जाल हो तोहरा सब के चल जाय के चाही दिन दुनिया ठीक नय हो। आगे बहुत छीना झपटी होय ह , जल्दीए इहा से चल जाहो" और उन्होंने एक नज़र कार के उपर लदे बक्सो पर और एक नजर हम पर डाला और वे चले गए।
अब मैं उन्हें क्या बताता कि भाई साहब मुझे तो आप ही डाकू लग रहे हो। तुमने सामान देख लिया रक्षा करते सिपाहियों को भी परख लिया, क्या जाने दो चार धंटे बाद तुम लोग फिर से आ जाओ।
अंधेरा होने लगा था। चांद भी नहीं निकला था। हमने ग्लोव कम्पार्टमेन्ट से दो मोमबत्तियां निकाली और कार के आगे पीछे जला कर चिपका दी ताकि घर से कोई आता हो तो अंधेरे में भी कार दिख जाए। मैं मन ही अपनी स्ट्रेटजी बनाने लगा। हमें अब तक समझ आ गया था हम कार पर लदे सामानों की रक्षा नहीं कर सकते। कार का एक पहिया नहीं था कार वे ले नहीं जा सकते। बैट्री, टायर की चोरी तब शुरू नहीं हुई थी। अब मैं हिसाब लगाता हूं तो तीन बक्सों में रखे थे दुल्हे को देने के लिए 3 अंगूठीयां और तीन महिलाओं के जेवर । कम से कम 60 ग्राम सोना और बनारसी साड़ियां और नए पुराने कपड़े। आज के हिसाब से कम से कम 10 लाख के सामान थे। यानि रात तक कोई न आया तो हमें अपनी सुरक्षा की सोचनी थी। कार में सोना खतरे से खाली न था। क्यों न हम दूर उस पेड़ के नीचे रात बिताए दूर से गाड़ी पर नजर रखेंगे । मन ही मन चोर चोर चिल्लाने का अभ्यास करने लगा। चिल्लाने में गुलटेनवा माहिर था। फिर रात में सियार के आने का खतरा था। आग जलाने के लकड़ी कहा मिलती । मैंने कार में ही सोने का फैसला किया। डाकु आए तो उन्हें सब ले जाने दूंगा और अपनी घड़ी पर्स भी दे दूंगा।
यह सब सोच ही रहा था कि एक कार की लाइट दिखाई दी। हमारी आशा जगी ही थी कि, "घबरहिओ नय भोला बाबु (मेरे छोटा बाबु यानि छोटे चाचा) आवों हथुन" कह कर ड्राइवर आगे निकल गया। अब जाकर चैन आया। थोड़ी देर में अपने एक सहकर्मी के मोटर साइकिल से छोटा बाबु आ गए। अब मैं पुर्णत: निश्चिंत हो गया। दर असल मंडल को चक्के के साथ दो मैकेनिक को भी लाना था। इसलिए कार की जरूरत थी। हमारे पड़ोसी डा० मुखर्जी अपनी कार देने में आनाकानी कर रहे थे। पापा भी घर पर नहीं थे।

डा० मुखर्जी की गाड़ी ऐसी थी
अंत में डा० साहब के दायां हाथ यानि ड्राइवर, कम्पाउन्डर और सहयोगी नीलू बाबू के उन्हें छोड़ कर चले जाने की धमकी ने असर दिखाया और उन्होंने कार दे दी। एक तो रिपेयर में देर लगी फिर हवा भरने के लिए बिजली आने का इंतजार करना पड़ा फिर कार मिलने का यह टंटा। कुछ देर के इंतजार के बाद कार आ गई, मैं मंडल जी पर बिगड़ पड़ा कि जब तक रिपेयर हो रहा था आप यहां आ जाते। खैर करीब आधे घंटे लगे और अपनी कार चल पड़ी । आधे घंटे बाद मुझे देख मां के आखों में आंसू आ गए। घर में सभी ने चैन की सांस ली। और अब हमने भी राहत की सांस ली ।
अब यह न पूछना अगले दिन गए कि नहीं? वो किस्सा फिर कभी।