दूर-दूर तक पटाखे बज रहे थे। सुबह के पाँच बजे थे और मैं अभी-अभी उठी थी। कहीं-कहीं सुबह का अर्घ्य भी चल रहा था ! मैंने देखा कि पुरुष और महिलाएँ कमर तक ठंडे पानी में डूबे हुए उगते सूरज को अर्घ्य दे रहे थे। और तुरंत ही मैं कई साल पहले के अपने बचपन के दिनों में पहुँच गई, जब हम अक्सर दिवाली और छठ के दौरान अपने दादा-दादी के घर जाते थे।
बिहार में जमुई एक छोटा सा शहर है जहाँ मेरे दादा और दादी और उनका पूरा कुटुम्ब (विस्तारित परिवार) एक ही छत के नीचे रहता था। जमुई इतना छोटा था कि जब मैंने अपने दोस्तों को बताया कि मैं वहाँ छुट्टियाँ मनाने जा रहा हूँ, तो उन्हें लगा कि हम ‘जम्मू’ और कश्मीर जा रहे हैं, और उन्होंने अपने माता-पिता को भी यही बताया (और उनसे भी जाने की माँग की)।जल्द ही मेरे माता-पिता पूछने वालों की ग़लतफ़हमी दूर कर देते । जमुई इतना छोटा था कि हालांकि इसके नाम पर एक रेलवे स्टेशन है, लेकिन स्टेशन असल में शहर से कई मील दूर, मल्लेपुर में है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि जमुई अब एक जिला है, और इसलिए एक सभ्य आबादी वाला शहर है। यह कभी-कभी खबरों में भी आता है, हालांकि सही कारणों से नहीं, क्योंकि यह नक्सलियों से भरा इलाका है। फिर भी, मेरे लिए, यह एक ऐसा शहर था जहाँ दुकानदार अपने ग्राहकों को उनके नाम से जानते थे। जहाँ थिएटरों में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग बैठने की जगह थी, जो एक पर्दे से अलग थी। जहाँ डाकिया को डाक पहुँचाने के लिए बस दादाजी का नाम चाहिए था।
दादाजी का क्लीनिक और उनका एक्स-रे प्लांट, जो शहर में पहला था, काफी मशहूर था। मुझे अपने दादाजी के समय का एक भी दिन याद नहीं आता जब हमारे घर के बाहर का बड़ा बरामदा मरीजों से खाली रहा हो। आस-पास के गांवों से लोग कई दिनों तक वहां डेरा जमाए रहते थे और मुफ्त में इलाज करवाते थे। वे खाना बनाने के लिए केरोसिन स्टोव और सोने के लिए बिस्तर लेकर आते थे। घर में कुआं जमीन से ऊपर दीवार से आधा विभाजित था। बाहरी आधा हिस्सा मरीजों के पानी खींचने के लिए खुला था। और हां, शौचालय और स्नान की सुविधा भी थी।मैं अक्सर अपने दादाजी की गोद में बैठकर उन्हें पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को ठीक करते हुए देखती था, चाहे वह दवाइयों से हो या उनके शांत करने वाले शब्दों से। अगर मुझे चिकित्सा में कोई दिलचस्पी होती, तो मुझे यकीन है कि मैं उनके नक्शेकदम पर चलने की कोशिश करती ।
छठ पर लौटते हुए, मेरी सबसे पुरानी याद सुबह-सुबह उठना है, जब अंधेरा था, ऊनी कपड़े लादकर दादाजी की जीप में बिठाया जाता था। नदी का किनारा बहुत दूर नहीं था। शाम के अर्घ्य के लिए, हम बच्चों को पानी में जाने दिया जाता था। और अक्सर प्रार्थना करते समय बड़ों की नकल करते समय, हम अपना पैर फिसला देते थे और पानी में गिर जाते थे। माँ हमारे कपड़े बदल देती थीं, फिर हमें पानी में दोबारा न जाने की चेतावनी देते हुए किनारे पर छोड़ देती थीं। किऊल नदी धीमी गति से बहती है और उथली है। इसकी रेतीली तली और क्रिस्टल साफ़ पानी इसे हम बच्चों के लिए सुरक्षित बनाता था। उम्र के साथ हम साहसी होते गए और बीच में एक द्वीप पर जाकर पटाखे फोड़ते थे जो हमने अपनी दिवाली की बचत से बचाए थे। और सुबह के अर्घ्य के साथ व्रत-अवधि समाप्त होने के बाद, हम प्रसाद खाने के लिए उत्सुकता से इंतजार करते थे - मीठे स्वाद वाले, एक फुट लंबे ठेकुआ लोगों के पसंदीदा थे। प्रसाद का ज़्यादातर हिस्सा उस महिला ने खुद बनाया था जो यह कठिन व्रत कर रही थी। अब तक मैंने छठ के दौरान किए जाने वाले व्रत जितना कठिन कोई दूसरा त्यौहार नहीं देखा है। भगवान उन महिलाओं का भला करे जो हर साल इस कठिन व्रत को धार्मिक रूप से करती हैं।
जमुई आए हुए मुझे बहुत समय हो गया है। और उससे भी ज़्यादा समय हो गया है जब मैंने आखिरी बार किऊल के किनारे छठ मनाया था, जब हम लोगों की भीड़ के साथ नदी की ओर जाते हुए महिलाओं द्वारा गाए गए मधुर छठ गीतों को सुना था। फिर भी, हर साल, जब छठ का समय आता है, तो मैं पुराने दिनों में वापस चली जाती हूँ।
Wednesday, November 6, 2024
छठ और पुरानी यादें - मेरी बेटी श्वेता द्वारा लिखित ब्लॉग का हिंदी अनुवाद
Friday, November 1, 2024
,दिवाली : नेपाल के पारंपरिक लोक गीत भैलो और देउसी
मेरे वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक दिनों में पत्नी जी ने नेपाल के जीवन, तीज त्योहारों के बारे में कई बातें बताई थी। उनमें कई रस्मों रिवाज बाद में हमारे परिवार का के रीति रिवाजों में भी शामिल हो गई जैसे किसीके घर से जाते समय पूजा घर में टीका लगाना और उनके हाथ में कुछ फल और कुछ पैसे रखना। दरवाजे पर पानी भरा कलश रखना और निकलते समय उसमें पैसा डालना। दशहरा यानि दसई के दिन बड़े लोगों द्वारा छोटों को टीका लगाना और पैसे देना। इत्यादि।
हरतालिका तीज भी नेपाल में धूम धाम से मनाया जाता है। उसमे एक प्रथा दर खाने की है। हिंदू महिलाओं के महान त्योहार तीज के पहले दिन को दर खाना दिवस कहा जाता है। सनातन हिंदू धर्म की नेपाली महिलाएं इस दिन से विशेष तैयारियों के साथ तीज मनाना शुरू कर देती हैं।विवाहित महिलाएँ अपने पति की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती हैं और अविवाहित महिलाएँ सुयोग्य पति की कामना करती हैं और कल के व्रत के उद्देश्य से इस दिन घर पर दूध से बनी मिठाइयाँ बनाकर खाने की प्रथा है। आजकल कई महिलाएं एक जगह इकट्ठा होकर एक पार्टी जैसा करती , आज इनके यहां कल उनके यहां।
दिवाली के पांच दिवसीय पर्व को नेपाल में तिहार यानि त्यौहार कहते है। इस दिन एक प्रथा होती है लड़किया और लड़के ग्रुप में घर घर भैलो और देउसी गा कर नाच कर लोगो को आशीर्वाद देने की। घर वाले बदले में फल, मिठाइयां और पैसे देकर विदा करते है। आज मेरा ब्लॉग इसी प्रथा के बारे में बताने का है।
भैलो और देउसी
नेपाल के पारंपरिक लोक गीत हैं जो नेपाल में तिहाड़ त्योहार के साथ-साथ दार्जिलिंग पहाड़ियों, सिक्किम, असम और भारत के कुछ अन्य हिस्सों में गोरखाली प्रवासी लोगों के बीच गाए जाते हैं। बच्चों के साथ-साथ वयस्क भी गीत गाकर और नृत्य करके देउसी/भैलो का प्रदर्शन करते हैं और अपने समुदाय के विभिन्न घरों में जाते हैं, धन, मिठाइयाँ और भोजन इकट्ठा करते हैं और समृद्धि के लिए आशीर्वाद देते हैं।
भैलो आम तौर पर लक्ष्मी पूजा की रात को लड़कियों और महिलाओं द्वारा किया जाता है जबकि देउसी अगली रात को लड़कों और पुरुषों द्वारा किया जाता है। भैलो करने वाली लड़कियों को भैलिनी कहा जाता है और देउसी करने वाले लड़कों को देउसी कहा जाता है। इन गीतों के अंत में घर का मालिक भोजन परोसता है और देउसी/भैलो गायकों और नर्तकियों को पैसे देता है। बदले में, देउसी/भैलो टीम सौभाग्य और समृद्धि का आशीर्वाद देती है।
इस प्रथा के मुख्यतः तीन कहानियां प्रचलित है जो जगह और जाति समूहों के अनुसार मानी जाती है।
पहले कहानी वामन और दानव राजा बलि के कथा से प्रेरित है । हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद के पौत्र थे राजा बालि । तीनों लोक के स्वामी राजा बलि बहुत पराक्रमी थे और प्रजा वत्सल भी। उन्होंने अपने पराक्रम से तीनो लोक को जीत लिया। तब इंद्र के प्रर्थना और देवों को देवलोक वापस दिलाने के लिए श्री विष्णु ५२ अंगुल के बौने वामन का रूप धर राजा बलि ९९ वें यज्ञ में पहुचें। इस यज्ञ के बाद बलि का इंद्र होना निश्चित था। वामन ने दानवीर बलि से तीन पग धरती के दान की कामना की। वामन के छोटे पैरों को देख तीन पग धरती का दान बलि को अपने यश के अनुरूप नहीं लगा और उन्होंने बहुत सारी गाएं और धरती के साथ धन का दान का प्रस्ताव रखा पर वामन ब्राह्मण अपनी तीन पग वाली बात पर अडिग रहे। बलि ने गंगा जल हाथ में लेकर तीन पग धरती दान कर दिए। तब श्री विष्णु अपने विशाल रूप में प्रकट हुए और दो पग में स्वर्ग और धरती दोनों नाप लिए। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सर प्रस्तुत कर दिया। विष्णु ने उसे सदा के लिए उसे पाताल भेज दिया जहां वह अब भी राज करता है। बलि सात चिरंजीवियों में से एक है। विष्णु ने बलि को वर्ष में एक बार अपने राज्य की प्रिय प्रजा के बीच वापस धरती पर आने का वरदान दिया। राजा बलि पांच दिनों के लिए अपनी प्रिय प्रजा के बीच हर साल वापस आते हैं। इन पांच दिनों को ही यमपञ्चक या तिहार कहा जाता है।
तब लोगों ने महाबली की उदारता के सम्मान में देउसी प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि देउसीरे शब्द की उत्पत्ति नेपाली भाषा में देउ और सर शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है 'देना' और सिर। यानि सर देना , भैलो में भी एक पद्य राजा बलि का उल्लेख करता है। जो ऐसे है।
हरियो गोबरले लिपेको, लक्ष्मी पूजा गरेको
हे! औंसीको बारो, गाई तिहारो भैलो
हामी त्यसै आएनौँ, बलि राजाले पठा'को
हे! औंसीको बारो, गाई तिहारो भैलो
अन्य दो कहानियां जुमला जिले और पाल्पा के मगर जाति में ज्यादा प्रसिद्द है और राजा बलि की कहानी से ही प्रेरित है। बांकी कथाये फिर कभी !