Friday, October 8, 2021

इत खोई यानि इटखोरी , झारखण्ड राज्य ( #यात्रा)

"सफर का अनुराग" अरे भाई WANDERLUST से ग्रसित लोगों के लिए कोरोना काल बहुत भारी रहा हैं । और मैं और सफर में मेरे कुछ साथी भी इस रोग से थोड़ा बहुत पीड़ित रहे हैं । पहले लहर के बाद लगा अब कहीं कहीं घूमा जा सकता हैं । और मैं दिल्ली से रांची करीब डेढ़ साल बाद आ भी गया । मेरे बाद आया मेरे पुत्र का परिवार और बच्चों को घर के अंदर बंद कर रखना मुश्किल हो गया तब हम लोग साहस कर और हैंड SANITIZER मास्क से लैस होकर पतरातू वैली घूम आये पर उसकी चर्चा बाद में करेंगे । इस ब्लॉग में मैं कोरोना के दूसरे लहर के थमने के बाद कुछ दिन पहले की गयी हमारी इटखोरी यात्रा के बारे में ही कुछ लिखूंगा।

२०१८ में मेरी दो छोटी बहने और बहनोई रांची आये हुए थे और हमने इटखोरी जाने का प्रोग्राम बना लिया था । सभी इंतजाम हो गया था तभी ऐन वक्त पर मेरे एक बहनोई साहब की तबियत ख़राब हो गयी और हमने गाड़ी वापस भेज कर उनके इलाज की व्यवस्था में लग गए थे । इस बार मेरी सबसे छोटी बहन बहनोई रांची आये तो मेरी बहन ने देवड़ी मंदिर के सोलह भुजी दुर्गा जी के दर्शन के लिए जाने की इच्छा जाहिर की । मैं और पत्नी जी वह एक दो बार जा चुके थे इसलिए मैंने ३ साल पहले छूट गए इटखोरी मंदिर जाने का सुझाव दे डाला और यह सर्व सम्मति से तुरंत पास हो गया । मैंने ऑनलाइन कोरोना काल में लागू किए गए स्लिप कटाने में सर खपाने लगा जब स्लिप नहीं कटा पाया तो वेबसाइट पर दिए फ़ोन नंबर पर कांटेक्ट करने लगा। पता चला अब स्लिप कटाने की जरूरत नहीं है और अगले दिन तड़के सुबह हम सभी तैयारी के साथ निकल पड़े ।

असल में इटखोरी भद्रकाली मंदिर झारखण्ड के ४ प्रसिद्द तीर्थ १. बाबा बैद्यनाथ धाम देवघर २. बाबा बासुकी नाथ - दुमका, ३ रजरप्पा- रामगढ और ४. भद्रकाली - चतरा में से एक हैं । कोरोना काल में ऑनलाइन स्लिप कटा कर की जाने की व्वयस्था इन चारों में मंदिर में की गयी थी ।



इकठ्ठा की गयी जानकारी

इटखोरी रांची से १५० किलोमीटर दूर इटखोरी चतरा जिले का एक ऐतिहासिक पर्यटन स्थल होने के साथ-साथ प्रसिद्ध बौद्ध केंद्र भी है, जो अपने प्राचीन मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों के लिए जाना जाता है। 200 ईसा पूर्व और 9वीं शताब्दी के बीच के बुद्ध, जैन और सनातन धर्म से जुड़े विभिन्न अवशेष यहां पाए गए हैं। पवित्र महाने एवं बक्सा नदी के संगम पर अवस्थित हैं इटखोरी का भद्रकाली मंदिर । मंदिर के पास महाने नदी एक यू शेप में है । कहा जाता हैं की कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ घर संसार त्याग कर सबसे पहले यही आये थे । उनकी छोटी माँ (मौसी) उन्हें मानाने यहीं आयी पर सिद्धार्थ वापस जाने को तैय्यार नहीं हुए तब उन्होंने कहा इत खोई यानि "I lost him here " । कालांतर में इत खोई इटखोरी हो गयी जो इस स्थल का वर्तमान नाम हैं । यह भी कहा जाता है की गया में बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले यह अंतिम जगह थी जहाँ बुद्ध ने वास किया । महान गुप्त और पाल सम्राटों ने ४ थी से 9 वीं शताब्दी के दौरान कई छवियों और मूर्तियों का निर्माण यहाँ करवाया जो कारीगरी ललित कलाओं में कौशल की अत्यधिक विकसित विरासत का संकेत देती है। बगल के मंदिर में शिव-लिंग की सतह पर १००८ 'लिंगम' उकेरे गए हैं। एक दूसरी संरंचना में १००४ बोधिसत्वों और ४ प्रमुख बुद्धों की छवियां एक 'स्तूप' के प्रत्येक तरफ गढ़ी गई हैं। इटखोरी में महेंद्र पाल के एक शिलालेख से संकेत मिलता है कि प्रतिहार शासक भी 9 वीं शताब्दी के उत्तरार्थ के दौरान यहाँ आया था। गुप्त और पाल वंश का संक्षिप्त इतिहास मैने नीचे दे रखा है।

कैसे पहुंचे ?

इटखोरी पहुंचना बहुत ही आसान हैं । रोड मुख्य मदिर तक जाती हैं । हज़ारीबाग़ से सिर्फ ५० किलो मीटर हैं यह जगह रांची पटना हाईवे पर पड़ने वाले पद्मा से बांये तरफ मुड़ते हैं एक तरफ़ा रास्ता हैं जिसमें एक पेट्रोल पंप भी मिलता हैं । यदि आप गया, कोडरमा के तरफ से आ रहे हैं तो G.T. रोड पर पड़ने वाले चौपारण हो कर यहाँ आया जा सकता हैं । गया यहाँ से करीब ८० किलोमीटर दूर हैं जो सबसे नज़दीक का एयरपोर्ट हैं । सबसे नज़दीक का स्टेशन ८८ किलोमीटर दूर कटकमसांडी हैं जो शायद ज्यादा सुविधाजनक न हों ।



भद्रकाली मंदिर
हमारी यात्रा

हम लोग कार से रांची से इटखोरी गए , रांची से रामगढ-हज़ारीबाग- पद्मा मोड़ होते हुए तीन साढ़े तीन घंटे में हम मदिर पहुंच गए । मंदिर गेट से १०० मीटर दूर ही गाड़ी पार्क किया। पार्किंग की जगह देने वाला एक पूजा का सामान बेचने वाला दुकानदार ही था और हमे देवी के चुनरी के साथ २६० रु की एक एक टोकरी पड़ी पर कोई पार्किंग चार्ज नहीं देना पड़ा । हम अपने चप्पल खोल कर मदिर गए तो पाया मंदिर के अंदर फोटोग्राफी कैमरा से हो या मोबाइल से मना था । मंदिर परिसर में थोड़ी बहुत फोटो हमने मोबाइल से फिर भी खींचा । मुख्य मंदिर तो नया है पर उसमे स्थापित मूर्ति बहुत पुरानी हैं । मूर्ति पाल वंश के काल की है यानि आंठवी शताब्दी की हैं यह मूर्ति । काले पत्थरों से बनी यह मुर्ति अत्यंत सुन्दर हैं । भीड़ नहीं थी इससे पंडित जी ने बड़े अच्छे से पूजा करवा दिया और हमे देवी की मूर्ति का पैर भी छूने दिया । मैंने पढ़ रक्खा था मूर्ति के नीचे ब्राह्मी लिपि में कुछ लिखा हुआ हैं पर लाख खोजने पर मैंने कुछ लिखा हुआ नहीं पाया फुलों से ढंका जो था। भद्रकाली मां काली का शांत स्वरूप है। इस रूप में मां काली शांत हैं और वर देती हैं। पंडित जी ने बताया यह माता का वैष्णवी रूप हैं और माता की मूर्ति के पास विष्णु भगवान की मूर्ति भी है । पंडित जी ने बताया कि माता कुमारी रूप में है।
भद्रकाली का मंत्र हैं ।

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।

मुख्य भद्रकाली मंदिर की पूजा के बाद हम शनि मंदिर, पंच मुखी हनुमान मंदिर और शिव मंदिर में पूजा करने गए । शिव लिंग करीब ४ फ़ीट ऊँचा है और उस पर १००८ शिव लिंग उकेरे हुए हैं । राँची वापस जाते समय पद्मा के पास एक बहुत अच्छी चाय पी थी और लौटते समय पद्मा गेट (रामगढ राजा के महल का गेट जो अब पुलिस ट्रेनिंग केन्द्र है)  के पास चाय पी और जब पता चला बहुत अच्छा कम चीनी वाला पेड़ा मिलता हैं तो खरीद भी लाया ।



सहस्र शिव लिंग और सहस्र बोधिसत्व (स्तूप)
परिसर से बाहर स्थित राम जानकी मंदिर और बुद्ध स्तूप

मंदिर परिसर के बाहर एक राम जानकी विश्वकर्मा मंदिर है जो किसी फलाहारी बाबा द्वारा बनाया गया था । पंडित हमें वहां बुला कर ले गया तो अच्छा ही लगा । हमें पता था छोटा ही सही यहाँ एक बुद्धिस्ट स्तूप भी हैं । पता चला वह मंदिर प्रांगण से बाहर था । हम रास्ता पूछते गए तो पाया वह नज़दीक ही है एक बड़े शिव लिंग जैसा स्तूप था। एक पडित जी भी वहाँ थे और उन्होंने बताया यह कोटेश्वर महादेव हैं । और हमने पूजा अर्चना भी की । उस स्तूप में ४ बड़े बुद्ध (बोधिसत्व) की मूर्ति उकेरा हुआ था और १००४ छोटे बुद्ध भी उकेरे हुए थे।


म्यूजियम में रखे १० वे तीर्थंकर श्री शीतलनाथ के पैरों के निशान और जैन मंदिर अभी जैसा है
जैन तीर्थ
पढ़ रखा था यहाँ एक काले पत्थर पर दसवें जैन तीर्थंकर शीतलनाथ के पैरों के निशान हैं । पता चला एक जैन मंदिर बनने वाला भी हैं । पंडित ने एक घर को दिखा कर जैन तीर्थ बताया । झाड़ियों के बीच पगडंडिया बनी थी। और हम थे नंगे पैर । हम टोह लेने भी गए नहीं पर शायद वहीं पर तीर्थंकर के पैरों के निशान थे । बाद में इंटरनेट से पता चला भगवान शीतलनाथ के पैरों के निशान वाले पत्थर म्यूजियम में रखे हुए है । हम नजदीक बहने वाली महाने नदी तक भी गए जो बरसात में पानी से लबालब था ।



महाने / बक्सा नदी और हाल में ही निर्मित बुद्ध की प्रतिमा
गुप्त साम्राज्य- सक्षिप्त इतिहास

श्री गुप्त ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की तीसरी शताब्दी में की थी । और प्रारम्भ में गुप्त वंश का शासन आज के पूर्वी उत्तरप्रदेश से लेकर बंगाल के कुछ हिस्सों तक था और राजधानी था मगध । श्रीगुप्त के पौत्र चंद्रगुप्त प्रथम (३१९-३३५ ई) ने इसका विस्तार किया और धीरे धीरे करीब करीब पूरा भारत उनके अधीन हो गया । कालांतर में उनकी राजधानी उज्जैन में स्थापित हुयी । गुप्त काल भारत का स्वर्णिम काल था और चहुमुखी विकास का काल भी । समुद्रगुप्त को इतिहासकार उनके सैनिक अभियानों के लिए भारत का नेपोलियन भी कहते है। समुद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु और पश्चिम में पंजाब से पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था। समुद्रगुप्त न केवल एक विजेता था बल्कि एक संगीतकार, कवि, विद्वान और साहित्य का संरक्षक भी थे। उनके पास "कविराज" की उपाधि थी। इन विजयों के बाद, समुद्रगुप्त ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में "अश्वमेध यज्ञ" किया। उन्होंने "अश्वमेध पराक्रम" की उपाधि ली। उसने सोने के सिक्के जारी किए जिन पर घोड़े की आकृति बनी हुई थी। नवरत्न रखने की प्रथा शायद गुप्त वंश ने ही शुरू की । विद्वान, कलाविद, खगोल शास्त्री उनके नवरत्न थे जिनका नाम हैं अमरसिंह, धन्वंतरि, घाटखरौर, कालिदास, क्षपानक, शंकु, वराहमिहिर, वरुचि, और वेताल- भट्ट।




समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ के बाद किया जारी किया सोने सिक्के जिन पर घोड़े की आकृति बनी है
पाल साम्राज्य-सक्षिप्त इतिहास

पाल साम्राज्य मध्यकाल में उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण साम्राज्य माना जाता है, जो कि 750-1174 इसवी तक चला। "पाल राजवंश" ने भारत के पूर्वी भाग में एक विशाल साम्राज्य बनाया। पाल वंश के राजा अपना राज्य को आज के बिहार उत्तर प्रदेश में बढाने लगे बाद में पाल वंश के लोग पाल समाज के नाम सें जाने लगें | इस राज्य में वास्तु कला को बहुत बढ़ावी मिला। पाल राजाओ के काल मे बौद्ध धर्म को बहुत बढावा मिला। पाल राजा हिन्दू थे परन्तु वे बौध्द धर्म को भी मानने वाले थे । पाल राजाओं ने बौद्ध धर्म के उत्थान के लिए बहुत से कार्य किये जो कि इतिहास में अंकित है। पाल राजाओं ने हिन्दू धर्म को आगे बढ़ने के लिए शिव मंदिरों का निर्माण कराया और शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों का निर्माण कराया । नालंदा और विक्रमशिला का निर्माण पाल राजाओं ने ही करवाई । हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पनन्न हो गया । इसी समय गोपाल ने बंगाल में एक स्वतन्त्र राज्य घोषित किया। जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया । वह योग्य और कुशल शासक था, जिसने ७५० ई. से ७७० ई. तक शासन किया। इस दौरान उसने औदंतपुरी (आज के बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्‍वविद्यालय (नालंदा) का निर्माण करवाया।



पाल राज्य के बुद्ध और बोधिसत्त्व

सब मिला कर हमारा ट्रिप बहुत मजेदार रहा । देखें आगे कहाँ जाते हैं ।

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