Tuesday, June 25, 2024

पंचायत season 1 Ep2 पर पेरोडी भुतिया पेड़

पंचायत season 1 episode 2 भुतिया पेड़ और सोलर लाइट

अभिषेक त्रिपाठी यानि सचिव जी अपने CAT के तैयारी में लगे हैं। आपको तो पता ही होगा वह आफिस में ही रहता है। रात को जागते हैं इसलिए सुबह सहायक विकास द्वारा आफिस का दरवाजा खटखटाने या पीटने पर नहीं जागते और विकास उन्हें खिड़की खटखटा कर जगाता है और कहता है "दोपहर होने को आया और आप अभी तक सो रहे हैं? हम तो घबड़ा‌ गए थे। बहुत देर से दरवाजा पीट रहे हैं।

अभिषेक : जब छ बजे पूरा गांव उठ कर बैठ जाएगा तब नौ बजे दोपहर ही लगेगा

विकास मोमबत्ती खरीद लाया है। अभिषेक उसे पैसा देते हुए उसका दाम पूछता है। विकास का उत्तर सुनिए।‌

विकास: ऐसे तो आधा दर्जन का ५० रूपया मांग रहा था पर हम मोल भाव कर सस्ते में ले आए।

सचिव जी : कितने में दिया ?

४८ रू में। उसके पास चेंज नहीं था सो २ रूपए का पेठा ले लिए सोचे सुबह सुबह आपका नश्ता भी हो जाएगा।

विकास उसे एक और इमरजेंसी लाइट खरीदने की सलाह देता है और अभिषेक झल्लाया सा हैन्ड पंप पर नहाने जाता है। वहां बार बार अभिषेक का टूथ ब्रश और पेस्ट नीचे गिर जाता है। वहां दोनो के बीच हुए संवाद सुनिए।

विकास : नौकरी एकदम्मे पसंद नहीं आ रहा है न‌ सर। अच्छा है सर हम खुद्दे यहां नौकरी होने के बाद आर्मी के बहाली में दौड़े थे। पर मेडिकल में छटा गए थे।
आदमी को हमेशा कुछ न कुछ अच्छा करने का कोशिश करते रहना चाहिए, हम तो कुछ नहीं कर पाए पर आपमें प्रतिभा है सर। मन लगा के पढ़िए ..

अभिषेक: इलेक्ट्रिसिटी रहे तब तो कोई पढ़ें। मुश्किल से चार पांच घंटे मिलते हैं वो बीत जाते हैं लाइट जलाते बुझाते। कभी ये इमरजेंसी चार्ज करो कभी वो इमरजेंसी डिम करो।

विकास: सर वैसे आज का पंचायत मीटिंग सोलर लाइट को लेकर है न ।



बिजली और गांव
बिजली जब जाती है तो कहां जाती है?
जाती है तो फिर चली भी आती है।
पर आने में बहुत देर लगाती है।
जब भी आती है खुशियां ही लाती है।
आते जाते, जाते आते थक नहीं जाती?
जब जाती है जिंदगी थम सी जाती।
काश‌ वो दिन जल्दी आ जाय
जब बड़े शहरों की तरह
गांवों में भी बिजली कभी न जाय ।


पंचायत के मीटिंग में प्रधान‌ जी ने बताया कि १० लाइट वार्ड मेंबर के यहां लगेगा और २ सोलर लाइट प्रधान और उप प्रधान के यहां लगना तय है, सिर्फ १३ वें लाइट का निर्णय लेना है। झिझक के कारण सचिव जी बोल नहीं पाते कि १३ वीं लाईट पंचायत आफिस पर लगना चाहिए और पंचायत में निर्णय लिया जाता है कि १३ वीं लाईट भुतहा पेड़ के पास लगेगा चाहिए ताकि लोग उस पेड़ के पास बे खौफ जा सके। पूरे फुलेरा में भूत के होने के पक्ष में विचार व्यक्त किए जाने लगे।

पेड़ का भूत
बचपन में मैं समझता था कि इमली के पेड़ पर भूत होते हैं। होते हैं क्या?

भुतिया पेड़ रास्ते पर खड़ा है
आने जाने वालों को डराने में लगा है
सूखी पत्तियां चारों तरफ बिखरी पड़ीं है
पत्तियों की आवाज काल बेल की तरह
भूतों को जगा रही है।
डरावनी घास , जंगल, झाड़ियां , झड़बेरी
भुतिया पेड़ के चारों तरफ उग रही है।
मानों आने वालों को ठग रही है।
आओ भूतों को डरा दे भगा दे
पेड़ के छांव में तीन रात बिता दे

अभिषेक का 'सोलर लाइट को पंचायत आफिस में लगाने का', प्लान फेल होता देख विकास मजाक मजाक में एक सुझाव दे बैठता है "सर एक उपाय है भूत भगा दिजिए" । उसे क्या पता यह सुझाव उसे ही मंहगा पड़ने वाला था। अभिषेक अंधेरा होने पर विकास को साथ लेकर भुतहा पेड़ के पास जाता है। विकास डरा हुआ है और अपनी पत्नी खुशबू को फोन करता है:

"खुशबू हम नहीं लौटे तो तुम दूसरा शादी कर लेना समझ लेना हमारा तुम्हारा साथ यहीं तक था। और उपर वाला कमरा में बाबुजी के बक्सा में २५ चांदी का सिक्का रखा है तीन चार महीना का काम चल जाएगा। .. मोटरसाइकिल से नहीं न कूद सकते हम हेल्मेट नहीं पहने हैं ..."
अभिषेक : अच्छा तो है पेड़ । कुछ भी तो नहीं कर रहा।
विकास : सर पेड़ है बच्चा नहीं कि चच्चा आए है तो नाच गा के दिखा देगा।
अभिषेक : पेड़ गाता भी है।
विकास : नहीं सर यह दौड़ाता है ।
अभिषेक: इतना मोटा जड़ है यह कैसे दौड़ा सकता है? हमें क्यों नहीं दौड़ा रहा ?
विकास: (क्या जाने शायद) मन नहीं होगा ।


विकास ने बताया कि पिछली बार ३ साल पहले किसी को दौड़ाया था। अभिषेक और विकास एक एक कर उन सभी के पास जाता है जिसे पेड़ ने पहले कभी दौड़ा चुका होता है। सभी खड़खड़, कड़कड़ या धमधम की आवाज सुन दौड़ पड़े थे पर मुड़ कर किसी ने नहीं देखा था। सभी के अपने कारण। एक ने कहा "आगे दौड़ते समय पीछे देखने से गिर सकते हैं और ऐसे मौके पर गिरना सही नहीं होगा।" कईयो से पूछने के बाद पता चला १४ साल पहले मास्टर को सबसे पहले पेड़ ने दौड़ाया था। मास्टर साहब ने दिलेरी से कहानी बता दी कि उन्होंने पिछे मुडकर देखा था। पेड़ जमीन से एक मीटर उपर दौड़ रहा था।

मास्टर के घर से निकलते समय अभिषेक मास्टर जी से पूछता है : स्कूल कैसा चल रहा है?"
मास्टर अच्छा, पर आप क्यों पूछ रहे हैं?
अभिषेक : वो नई DM मैडम आई है थोड़ी स्ट्रिक्ट सी है, वही पूछ रही थी मै उनको बता दूंगा स्कूल अच्छा चल रहा है, सिर्फ विज्ञान के टीचर भूत प्रेत पर विश्वास करते हैं। पता नहीं कैसे लेगी । यह तो बताने के बाद पता चलेगा। डरने की कोई बात नहीं सिर्फ स्ट्रिक्ट है कुछ करती वरती नहीं है।

उस रात अभिषेक आफिस में अपने दोस्त को यह सब बता रहा होता है तब दरवाजे खटखटाने की आवाज आती है, दोस्त जो भूत पर विश्वास रखता पहले खिड़की से देख लेने की सलाह देता है पर अभिषेक दरवाजा खोल देता है।
मास्टर साहब बताने आया था "सब सही बताए थे सिर्फ एक बात नहीं बताए कि उस रात पहली बार चिलम पिए थे। चिलम पीने से ऐसा ही लगता है आप एक बार पी कर देखिए। "
अभिषेक: जब नशा उतरा तो गांव वालों को सच क्यों नहीं बताया?
मास्टर जी: नई नई नौकरी थी नशे की बात पता चलती तो नौकरी चली जाती।



बात प्रधानजी के यहाँ पहुँचती है। मंजूदेवी को जब सब पता चलता है तो वह चुपचाप उठ कर जाती है और एक बेलन ले आती है और मास्टर की बेलन से पिटाई शुरू हो जाती है ।
मंजूदेवी : इस गंजेरी के चलते हम दो बार गिरे है। भूत के डर से रिंकी पे पापा इतना तेज़ मोटर साइकिल चलते है की। एक बार घुटना फुंटा और एक बार ६००० की साड़ी फट गयी।
मास्टर जी : प्रधान जी जितना पीटना हो यही पीट लीजिये गांव में पता नहीं चलना चाहिए।
उप प्रधान प्रह्लाद जी : गांव में नहीं बताएँगे तो सबका डर कैसे जायेगा ?
प्रधान जी : उसका भी एक उपाय है, सचिव जी सोच रखे है - बताईये सचिव जी
अभिषेक : लोगों का डर भागने प्रधान जी पेड़ के नीचे तीन रात सोयेंगे । गावं वालों के कहेंगे भूत भगाने के लिए प्रधान जी अपने जान की परवाह भी नहीं किये।
उप प्रधान : इससे तो वोट भी मिलेगा -(सचिव जी की तारीफ करते हुए) मास्टरस्ट्रोक
अब बात १३ वे सोलर लाइट पर आ जाती है।
मंजू देवी : उसको भी प्रधान के घर पर ही लगा दीजिये। प्रधान के घर दो सोलर लाइट होगी तो कोई दिक्कत है सचिव जी ?
अभिषेक (हिचकिचाते हुए ) : थोड़ी दिक्कत तो है - ज्यादा हो जायेगा लोग बातें बनाएंगे।
विकास : प्रधान जी हम कह रहे थे की वो तेरहवां लाइट है न उसको पंचायत ऑफिस के सामने लगवा देते हैं। बहुत अँधेरा हो जाता है। डर भी लगने लगता है।
विकास का प्रस्ताव मान लिया जाता है और अभिषेक का अभिप्राय सिद्ध हो जाता है‌।
क्रमशः

Saturday, June 22, 2024

पंचायत सीजन 1 एपिसोड 1 पर पैरोडी

कहां है फुलेरा ? क्या है कहानी ?
नायक अभिषेक शहर में पला बढ़ा है और कभी गा़व का चेहरा भी नहीं देखा है । उसे लाचारी में, जब तक MBA प्रवेश परीक्षा पास न हो जाए, पंचायत सचिव के पद पर बलिया जिला के एक अनजाने से गांव फुलेरा जाना पड़ा । गांव के नजदीक ही है फकौली बाजार । कहानी गांव में उसके अनुभवों और गांव वालों से उसके रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमती है ।

फुलैरा गांव और फकौली बाजार नाम स्क्रिप्ट लिखनेवाले चन्दन कुमार ने अवश्य गूगल मैप देख कर चुना होगा। अब देखिये फुलैरा-250101 UP का एक गावं है जो ग़ाज़ियाबाद से करीब 35 km दूर है। एक दूसरा भी फुलैरा जंक्शन है राजस्थान में। फकौली बाजार भी है UP में प्रयाग राज से करीब 125 KM दूर। पर इस दोनों UP के गावों की आपस में दूरी है 540 KM. अब पंचायत सिरीज में इन दोनों जगह के बीच की दूरी है सिर्फ 10 KM यानी जगहें काल्पनिक है और यूट्यूब की दया से अब तो सभी जानते हैं इसकी सूटिंग भोपाल से 55 km दूर स्थित महौरिया गांव में हुई है। और महौरिया गांव वालें अब टूरिस्टों से खुश-ओ-परेशान है।



उत्तर प्रदेश स्थित फुलेरा और उससे 540 km दूर स्थित फकौली बजार।



मध्यप्रदेश का महोड़िया ग्राम पंचायत ऑफिस जहां शूटिंग की गयी

Season-1 Episode-1 की कहानी कुछ यूं है।
नायक अभिषेक त्रिपाठी शहर छोड़ ग्राम पंचायत सचिव की नौकरी ज्वाइन करने फुलैरा पहुंच चुका है - गैस स्टोव, मोटरसाइकिल सभी ले कर । उसके स्वागत के लिए सहायक विकास और उप प्रधान प्रह्लाद चा चार पेठा मिठाई के साथ इंतजार कर रहे हैं, जिसमें से दो प्रहलाद चा खा चुके हैं, आफिस में ताला लगा है। ताले की चाभी प्रधान पति दुबे जी लेकर आने वाले हैं । पर चाभी प्रधान जी से खो जाता है खेत में झाड़ा फिरते समय । जब खेत में चाभी नहीं मिलता तब सहायक विकास अभिषेक के ही मोटरसाइकिल से चाभी मिस्त्री को लाने फकौली बाजार भेजा जाता है, पर वह मिस्त्री को साथ नहीं ला पाया, और तो और उसके मोटरसाइकिल का इंडिकेटर भी टूट चुका है। अभिषेक के झल्ला कर पूछने पर सहायक विकास क्या कहता है सुनिये।

विकास: पहले क्या बताए? मिस्त्री कहां है? या इंडिकेटर कैसे टूट गया ?



ताले

ताले लटकते नहीं लटकाए जाते हैं।
वे राह देखते हैं बस उस एक चाभी का।
ताले लटकते है, चाभियां घूम आती है।
रास्तों से गलियों से खेत खलिहानों से ।
पर कभी कभी चाभियां भटक भी जाती है ।
जेब से, चोरी से, लोटे से, या यादों से।
दूसरी चाभी को जब ताला नहीं पहचानते।
तब ताले डराएं जाते हैं यंत्रो और हथौड़े से।
कभी कभी ताले लटके रह जाते है
और टूट जाते है दरवाजे,
सभी संस्कार की बात है ।

खेत में सचिव जी प्रधान जी से और यह खेत किसका है?

सचिव जी का चाभी ढ़ूढने के बहाने खेत देखने जाना

प्रधान जी बताते है कि यह खेत विकास के चाचा का था, इसीको बेच कर तो अपनी बेटी का दहेज दिया और हम्हीं खरीदे। फिर फेकन और भाई के बीच खेत के बटवारे के लिए हुई लट्ठबाजी की बात भी बताते हैं। बहुत हल्के इशारे से गांव में अभी भी बचे सामंत शाही और दहेज प्रथा की बात कह जाता है यह episode. प्रधान वहीं बनता है जिसके पास पैसा हो खेत हो। लोग मजबूर हो तो उनका खेत औने पौने दाम में खरीद लेना या गिड़वी रख लेने वाला ही अंततः प्रधान बनेगा।

दहेज

कहां से दे दहेज ?
घर बेचे या खेत ?
देख बाप के माथे की लकीर
बेटी सोचे कहां खुदा और कहां फकीर‌ ?
बिकने न दूंगी खेत घर द्वार
वो कर गुजरूंगी जो देखे संसार
दो कुलों का मान सम्मान रखने वाली
अब बेटा बन जाएगी, नाम कमाएंगी
जीवन‌ साथी बनाने लड़को में होड़ लगे
ऐसा मुकाम हासिल कर जाएंगी

क्रमशः

Thursday, June 13, 2024

पूर्वोत्तर भारत में रेलवे का विकास और अवध - तिरहुत मेल

अवध तिरहुत मेल के बारे में कुछ लिखूं उसके पहले भारत के तब चलने वाले प्राइवेट रेलवे के बारे में कुछ जान लेना उचित होगा। प्राइवेट कंपनी के सिवा कई राजे रजवाड़ों के रेलवे थी या अपनी ट्रैन / सैलून थे। मैं बिहार और बंगाल में चलने वाले कुछ प्राइवेट रेलवे के बारे में बताना चाहूंगा।

पूर्वी भारत के प्राइवेट रेलवे

भारत की सबसे पहली प्राइवेट रेलवे थी देवघर रेलवे। जसीडीह से बैद्यनाथधाम जाने वाली यह 6 km लम्बी लाइन बिना सरकारी मदद या गैरंटी से बनी थी और बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के तीर्थ यात्रियों की भारी भीड़ के कारण अच्छा लाभ भी कमा रही थी। बाबू हीरा चंद्र चटर्जी इंजीनियर इन चार्ज के देख रेख में बनी थी यह रेलवे।

देवघर रेलवे स्टेशन - अब

पूर्वी भारत के अन्य प्राइवेट रेलवे थे
पूर्वी भारत के अन्य प्राइवेट रेलवे थे। बंगाल में चलने वाले दो रेलवे लाइन अत्यंत छोटे २ फ़ीट के गेज वाली लाइन ।

  • हावड़ा-अमता लाइट रेलवे, (२ फ़ीट या 610MM NG ), 1897 में शुरू हुई और १९७१ तक बंद हो गयी।
  • हावड़ा-शेखल्ला लाइट रेलवे (२ फ़ीट या 610MM NG ), 1897 में शुरू हुई १९७१ में बंद हो गयी।
बिहार में तीन अन्य लाइनें ईस्ट इंडियन रेलवे (ईआईआर) के लिए फीडर थीं, जो 2 फीट 6 इंच/762 मिमी नैरो गेज (एनजी) का उपयोग करती थीं
  • बख्तियारपुर-बिहार शरीफ राजगीर लाइट रेलवे 762MM NG , 1902 में शुरू हुई 1962 में भारतीय रेल में विलय और बड़ी लाइन में परिवर्तित।
  • आरा-सासाराम लाइट रेलवे, 1911 में शुरू हुई 1914 में विस्तारित हुई और 1978 में ये लाइन बंद कर दी गयी।
  • फतुहा -इस्लामपुर लाइट रेलवे, 1922 में शुरू हुई 1986 में भारतीय रेल में विलय और बड़ी लाइन में परिवर्तित।


फतुआ इस्लामपुर लाइट रेलवे - railinfo.com के सौजन्य से

इसमें से फतुआ इस्लामपुर लाइट रेलवे तो तब भी था जब मैं पटना में पढ़ रहा था (1964-64 school, 1965-70 college) और हर बार पटना जाते वक़्त इस छोटी सी ट्रेन खासकर छोटे से स्टीम इंजन को देख मैं हैरान होता था। राजगीर लाइन तब तक ब्रॉड गेज हो चुकी थी और लोकल ट्रेन के अलावा भी कुछ ट्रेन राजगीर से ही खुलती थी।
ये सभी प्राइवेट रेल मार्टिन रेलवे कंपनी द्वारा बनाये गए थे और इनका परिचालन भी वे ही करते थे । मार्टिन रेलवे कंपनी ने ही नेपाल सरकार की रक्सौल - अमलेख गंज नैरो गेज रेलवे लाइन का निर्माण किया था और नेपाल सरकार के लिए उसका परिचालन भी ये ही करते थे।

जैसा मैंने अपने पिछले ब्लॉग में बताया था कविगुरु रविंद्रनाथ के दादा जी श्री द्वारकानाथ टैगोर ने भी वेस्ट बंगाल रेलवे के नाम से एक कंपनी खोली थे और वे रानीगंज तक रेल लाइन बिछाना चाहते थे पर अंग्रेजों ने इसकी अनुमति नहीं दी क्योंकि वे एक देशी (Native) थे।

अब अपने मुख्य विषय यानी बंद हुए प्रसिद्द ट्रेन अवध तिरहुत मेल पर वापस लौटते है । जबकि ब्रिटिश सरकार किसी देशी व्यापारी को रेलवे बनाने या चलाने नहीं दे रही थी लेकिन वे राजे महाराजों को नहीं रोक पायी और भारत में कई देशी रियासतों के अपने रेल लाइन थे। बृहत ब्रिटिश भारत की बात छोड़ भी दे तो भी तिरहूत के दरभंगा महाराज और अवध या रामनगर के नवाबों के रेलवे तो इस ब्लॉग के विषय की ही बातें है। दरभंगा महाराज और अवध के प्रिंस मुहम्मद आकरम हुसैन जब ब्रिटिश राज के सदस्य बने तब उन्होंने अवध क्षेत्र और तिरहुत क्षेत्र के बीच आवागमन को आसान बनाना चाहा।

अवध -तिरहुत रेलवे।


विकिपीडिया के सौजन्य से - काठगोदाम स्टेशन पर अवध तिरहुत रेलवे (AT railway ) की एक ट्रेन 1957

तिरहुत में पहली रेलवे लाइन दरभंगा महल परिसर - नारगोना टर्मिनस (जहां यह स्थान अभी भी परमेश्वर सिंह विश्वविद्यालय द्वारा चिह्नित है) से सकरी में बाजितपुर तक बिछाई गई थी। तिरहूत डिवीजन में सामान्य परिवहन के लिए पहली लाइन के रूप में दरभंगा से समस्तीपुर तक दूसरी लाइन बिछाई गई थी। जहा महल परिसर का रेलवे स्टेशन सिर्फ रॉयल परिवार के लिए ही था और लहेरियासराय स्टेशन सिर्फ अंग्रेजों के लिए था और आम जनता के लिए था हराही या दरभंगा रेलवे स्टेशन।
ऐसे तो इस रेलवे की स्थापना भीषण अकाल के समय 1874 में हुआ जब समस्तीपुर से दरभंगा के बीच अनाज से लदी मालगाड़ी चली थी पर बाद में पैसेंजर ट्रेनें भी चलायी गई और इसे मुजफ्फरपुर , मोतिहारी- बेतिया, सकरी जयनगर, सोनपुर-बहराइच, समस्तीपुर-खगड़िया, नरकटियागंज-बगहा इत्यादि तक बढ़ाया भी गया। तब गंगा नदी पर पुल नहीं थे कई जगह स्टीमर की व्यवस्था की गई और ऐसे घाटो तक रेलवे लाइन भी बिछाई गई जैसे पहलेजा घाट, मोकामा घाट, साहबपुर कमाल , सिमरिया घाट, मुंगेर घाट इत्यादि।

तिरहुत रेलवे के नरगौना टर्मिनल - ETV Bharat के सौजन्य से

तिरहुत रेलवे (तिरहुत राज्य रेलवे) सबसे पहले दरभंगा राज और बाद में प्रांतीय सरकार के स्वामित्व में था। इसके स्वामित्व को बाद में भारत के ब्रिटिश सरकार को हस्तांतरित कर दिया गया, जिसने इसे 1886 के अंत तक भारतीय राज्य रेलवे के हिस्से के रूप में संचालित किया, 1886 के अंत से 30 जून 1890 तक तिरहुत रेलवे के रूप में और 1 जुलाई 1890 से बंगाल और उत्तर पश्चिमी रेलवे के रूप में। तिरहुत रेलवे ने सुगौली-रक्सौल रेलवे को 1920 के आसपास अवशोषित किया । 1 जनवरी 1943 को अवध और तिरहुत रेलवे को को विलय कर बना अवध -तिरहुत रेलवे । 14 अप्रैल 1952 को, अवध तिरहुत रेलवे को असम रेलवे और बॉम्बे, बड़ौदा और मध्य भारत रेलवे के कानपुर-अछनेरा खंड के साथ मिलाकर पूर्वोत्तर रेलवे बनाया गया, जो अब भी वर्तमान भारतीय रेलवे के 16 क्षेत्रों में से एक है।

इसके पहले फरवरी 1943 में, बंगाल - उत्तर पश्चिम रेलवे (BNW Railway) और रोहिलखण्ड - कुमाऊं रेलवे (R and K railway) को ब्रिटिश सरकार द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया और उन्हें तिरहुत रेलवे, मशरक-थावे एक्सटेंशन रेलवे , लखनऊ -बरेली रेलवे के साथ मिला कर बना अवध-तिरहुत रेलवे। इसका मुख्यालय गोरखपुर में था। ट्रेन नं. 301अप - 302 डाउन कानपुर (अनवरगंज)-सिलीगुड़ी अवध तत्कालीन अवध-तिरहुत मेल (जिसे ए.टी. मेल के नाम से जाना जाता है) इस क्षेत्र की सबसे प्रसिद्ध ट्रेन थी। आज का मेरा ब्लॉग इसी ट्रैन के बारे में है।

अवध तिरहुत मेल


मीटर गेज पर, सबसे लंबी दूरी की ट्रेनों में से एक लखनऊ (LJN) और गुवाहाटी के बीच 1/2 अवध तिरहुत मेल थी। 70 के दशक के अंत तक भी उत्तरी भारत से उत्तर-पूर्व तक कोई ब्रॉड गेज लिंक नहीं था। मीटर गेज की शायद सबसे लंबी दूरी तय करने वाली यही ट्रेन थी। आजादी के पहले बंगाल से उत्तर पुर्व जाने के लिए जिन लाइनों का प्रयोग होता था उनमें से कई पुर्वी पकिस्तान यानि बंगलादेश में चली गई और पुर्वोत्तर जाने वाली बहुत सी ट्रेनों का रूट बदला पर AT mail बंद होने तक अपने original रूट पर ही चली‌‌।

'मेल' ट्रेन क्या होती है

तब राजधानी , शताब्दी या वन्दे भारत तो होती नहीं थी , मेल ट्रेन ही सबसे तेज़ और कम स्टॉपेज वाली ट्रेन होती थी। ऐसे स्टीम इंजन के उपयोग के कारण स्टॉपेज लम्बे लम्बे होते - आधा से एक घंटे तक का। पानी - कोयला लेना या इंजन चेंज होने के लिए। इसे मेल इसलिए कहा जाता था क्योकि मेल या डाक इसीसे जाता था। इसमें रेलवे मेल सर्विस की बोगी भी होती थी और अति आवशयक या बिना विलम्ब के पहुचने के लिए RMS बोगी में चिट्ठियां डाल भी सकते थे। और इसलिए अवध तिरहुत मेल एक सबसे महत्वपूर्ण ट्रेन थी। पहले इसे अनवरगंज (कानपूर) से सिलीगुड़ी के लिए चलाया गया और तब ये पूरा रूट ही मीटर गेज था। बाद में इसे लखनऊ से गुवाहाटी तक चलाया गया। लेकिन 1979 के आस पास बरौनी समस्तीपुर बाराबंकी रुट की लाइन मीटर गेज से ब्रॉड गेज हो गयी और बरौनी - मानसी - कटिहार - सिलीगुड़ी लाइन मीटर गेज ही रह गयी तब इस ट्रेन को दो भागों में बाँट दिया गया। लखनऊ से आने पर बरौनी जंक्शन स्टेशन पर मीटरगेज की ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म (ज्यादातर सामने वाले प्लेटफार्म) पर प्रतीक्षा रत मिलती। यात्रियों को ब्रॉडगेज से मीटरगेज या मीटरगेज से ब्रोडगेज़ में शिफ्ट करने के लिए पर्याप्त समय मिलता। मेरा इस ट्रेन में चलने का अनुभव थोड़ा ही है - अक्सर बरौनी से बेगूसराय तक (मीटरगेज) । याद नहीं दूरी का कोई प्रतिबंध था या नहीं जो अक्सर मेल एक्सप्रेस ट्रेनों में तब हुआ करती थी पर भीड़ बहुत होती थी इस ट्रेन में। इस ट्रेन में १९५७ में ही AC डब्बे लगाने की मांग पार्लियामेंट उठाई गयी थी।

अवध तिरहुत मेल की जगह पर अवध -आसाम एक्सप्रेस जा फोटो - RAILINFO के सौजन्य से

१९८५ से इसी ट्रेन की जगह पर अब चलती है 15909 /15910 अवध - आसाम एक्सप्रेस जो लखनऊ से गुवाहाटी तक पूरी तरह ब्रॉडगेज पर चलायी गयी। इसका रूट जलपाईगुड़ी तक पहले वाली थी पर यह गुवाहाटी तक चली। दो साल के भीतर इसे दिल्ली से चलाया जाने लगा। 2003 में इसका पश्चिमी टर्मिनेशन स्टेशन हो गया दिल्ली - सराई - रोहिल्ला और 2006 में इसे राजस्थान से लालगढ़ तक बढ़ा दिया गया । 2014 में नई तिनसुकिया और 2016 में डिब्रूगढ़ तक बढ़ाये जाने के बाद रोज़ 3118 KM दूरी तय करने वाली भारत की सबसे लम्बी दूरी की ट्रेन हो गयी है ।

आज बस इतना ही। कुछ और बातें लेकर फिर हाज़िर होऊंगा तब तक के लिए शुभ कामनाएं।

Saturday, June 8, 2024

पुर्वी भारत में रेल के प्रारंभिक दिन

अब बंद हो चुके और अपने ज़माने की सुप्रसिद्ध ट्रेन तूफ़ान एक्स्प्रेस पर मेरा ब्लॉग

भारत में रेल चलाने के लिए अंग्रेजों को जल्दी क्यों थी ?

मैंने सोचा था तूफ़ान एक्सप्रेस के इतिहास के बाद अब बंद हो चुकी प्रतिष्ठित अवध - तिरहुत मेल ट्रेन के विषय में लिखूंगा पर सोचा पहले पूर्वी भारत में रेलवे के शुरुआती दिनों के बारे में लिख लू तो क्रोनोलॉजी बनी रहेगी।
ब्रिटेन में पहली रेलगाड़ी १८२५ में स्टॉक्टन और डार्लिंगटन के बीच चली थी और सिर्फ २८ साल बाद भारत में १८५३ में बोरीबंदर से थाना के बीच। ऐसे भारत में पहली ट्रैन का ख़िताब सही मायने में रेड हिल रेलवे को जाता है जो १८३७ में चली थी रेड हिल्स से चितान्द्रीपेट के लिए। रेड हिल रेलवे को मद्रास के रोड बनाने के लिए पत्थर लाने के लिए उपयोग में लाया गया था।

अब सवाल यह उठता है की अंग्रेजों को भारत में रेल चलाने की जल्दी क्यों थी ? जल्दी थी व्यापर के लिए। रानीगंज और आसपास के खदानों से कोयला का परिचालन हो या चीन से आने वाले चाय का या फिर बिहार और बंगाल में बहुतायत से होने वाले अफीम का । ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय प्रांत बंगाल (बिहार सहित) में अफ़ीम की खेती पर एकाधिकार स्थापित किया था,उगाने से लेकर बेचने पर ब्रिटिश सरकार की मोनोपली। जहाँ उन्होंने सस्ते और प्रचुर मात्रा में अफ़ीम उगाने की एक विधि विकसित की। संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश भी व्यापार में शामिल हो गए, जो तुर्की के साथ-साथ भारतीय अफ़ीम का व्यापार करते थ। जबकि अफीम का भारत में व्यापर गैरकानूनी बना दिया गया था और विदेश से व्यापर में कोई अप्पत्ति नहीं थी । चीन से चाय आती थी जिसके लिए चांदी और सोने के सिक्के लगते थे। यह चाय भी बॉम्बे से बाहर के देशो में भेजे जाते । अब उन जहाजों के चीन खाली नहीं भेजा जाता पर उनसे अफीम चीन भेजी जाती । 1839 तक चीन के चाय की कीमत चांदी सोने के वजाय अफीम से ही अदा होने लगी।

टैगोर परिवार और रेलवे

टैगोर परिवार का रेलवे से भी घनिष्ठ संबंध है क्योंकि रवीन्द्रनाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर, एक उद्योगपति थे , जो रानीगंज के पास कई कोलियरियों के मालिक थे, 1843 में इंग्लैंड में रेलवे को देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने घर तक एक रेलवे लाइन बनाना चाहा। कोयला खदानें उन्होंने मुख्य रूप से रानीगंज और राजमहल कोयला क्षेत्रों से और कृषि और खनिज उत्पादों की आवाजाही के लिए ग्रेट वेस्टर्न बंगाल रेलवे कंपनी नामक एक कंपनी की स्थापना की। उन्होंने गंगा नदी के समानान्तर रेल लाइन बनाने की योजना बनाई तांकि नदी से होने वाले कोयला का परिचालन ट्रैन से हो सके। इस बीच, आर मैकडोनाल्ड स्टीफेंसन ने पहले ही इंग्लैंड में स्थापित ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के लिए शेयर जारी कर दिए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी को लाइन के निर्माण की अनुमति देने के लिए इंग्लैंड में द्वारकानाथ के प्रयास तब विफल हो गए जब उनकी योजना को ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों की अदालत ने खारिज कर दिया क्योंकि वे देशी (Native ) कंपनी या प्रबंधन को रेल जैसा प्रमुख उद्योग में स्थान नहीं देना चाहती थी।

ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी, जिसका गठन 1 जून 1845 को हुआ था, ने 1846 में कलकत्ता से मिर्ज़ापुर के रास्ते दिल्ली तक एक रेलवे लाइन के लिए अपना सर्वेक्षण पूरा किया। कलकत्ता से इसका रुट वही था जैसा श्री टैगोर के कंपनी ने प्लान कर रखा था। कंपनी शुरू में सरकारी गारंटी से इनकार करने पर निष्क्रिय हो गई, जो 1849 में दी गई थी। इसके बाद, कलकत्ता और राजमहल के बीच एक "प्रायोगिक" लाइन के निर्माण और संचालन के लिए ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसे बाद में मिर्ज़ापुर के माध्यम से दिल्ली तक बढ़ाया जाएगा। निर्माण 1851 में शुरू हुआ।


हावड़ा और हुगली के बीच १९५४ में चलने वाली पहली ट्रेन , ईस्ट इंडियन रेलवे का logo

खाना जंक्शन-राजमहल खंड अक्टूबर 1859 में पूरा हुआ, रास्ते में अजय नदी को पार किया गया। पहली ट्रेन 4 जुलाई 1860 को हावड़ा से खाना होते हुए राजमहल तक चली। जमालपुर मुंगेर शाखा सहित, खाना जंक्शन से जमालपुर होते हुए किऊल तक लाइन फरवरी 1862 में तैयार हो गयी थी। तब इसे हावड़ा दिल्ली मेन लाइन कहा गया। पर जब सीतारामपुर झाझा किउल होकर एक लाइन तैयार हो गयी तो उसे पहले कॉर्ड लाइन फिर लोकप्रियता के कारण हावड़ा - दिल्ली मेन लाइन कहा गया और खाना - राजमहल - जमालपुर - किउल लाइन को साहिबगंज (इसी लाइन में एक स्टेशन ) लूप का नाम दिया गया। बाद में जब इससे भी एक छोटी दूरी की लाइन GAYA होकर बन गई तो उसे हावड़ा - दिल्ली ग्रैंड कॉर्ड लाइन नाम दिया गया।

साहिबगंज लूप , मेन लाइन और ग्रैंड कॉर्ड लाइन

खैर साहिबगंज होकर तब की मेन लाइन की बात पर लौटते है। राजमहल से, निर्माण तेजी से आगे बढ़ा, गंगा के किनारे पश्चिम की ओर बढ़ते हुए, 1861 में भागलपुर, फरवरी 1862 में मुंगेर, और दिसंबर 1862 में वाराणसी (गंगा के पार) और फिर यमुना के तट पर नैनी तक पहुँच गया। इस कार्य में जमालपुर में ईआईआर (ईस्ट इंडियान रेलवे ) की पहली सुरंग और आरा में सोन नदी पर पहला बड़ा पुल शामिल था।

बाद में अवध क्षेत्र में अवध रोहिलखण्ड रेलवे और तिरहुत क्षेत्र में तिरहुत रेलवे की स्थापना हुई जो कालांतर में उत्तर रेलवे और उत्तर पूर्व रेलवे कहलाई। इनकी कहानी फिर कभी।

Monday, June 3, 2024

तुफान एक्सप्रेस

पूर्वी भारत में रेल के प्रारंभिक दिनों पर मेरा एक ब्लॉग

7 UP / 8 down हावड़ा-दिल्ली तुफान एक्सप्रेस या उसका नया अवतार 3007/3008 हावड़ा-गंगानगर उद्यान आभा तुफान एक्सप्रेस 92 साल चलने के बाद 2022 में बंद हो गई। एक जमाने में अपने नाम को सार्थक करती यह एक प्रसिद्ध सुपरफास्ट ट्रेन थी। एक फिल्म भी बनी थी 8 down toofan mail. और १९४२ की फिल्म 'जवाब' में एक गाना भी था दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल ! आज मैं इसी ट्रेन की कहानी सुनाऊंगा।

हमारे शहर जमुई (पटना - हावड़ा के मध्य) में कुछ ही सुपरफास्ट ट्रेनें रूकती थी। जिसमें तुफान एक्सप्रेस भी एक था। तब main line होकर चलने वाली सबसे तेज़ ट्रेन 5 UP /6 Dn पंजाब मेल हमारे स्टेशन पर नहीं रुकती थी। छात्र जीवन में तुफान एक्सप्रेस पटना से जमुई के लिए मेरी पसंदीदा ट्रेन थी। सुबह छः के करीब चल कर तीन घंटे में 153 km की यात्रा पूरी करती थी। औसत 50 kmph के स्पीड तब के लिए बहुत शानदार स्पीड हुआ करता था। ट्रेन की अधिकतम स्पीड 65 होती थी। पटना से 12 dn बनारस एक्सप्रेस (बाद में अमृतसर एक्सप्रेस) और 39 dn जनता एक्सप्रेस दो अन्य गाड़ियां थी जिससे मैं जमुई लौटता था। पहले देखे इस ट्रेन का इतिहास !

Via Grand Chord ie via Gaya
पटना होकर चलने वाली यह ट्रैन प्रारम्भ में गया होकर चलती थी । साल 1930 से 1955 तक यह गाड़ी 7Up/8Dn हावड़ा से दिल्ली तूफान एक्सप्रेस वाया सासाराम,गया,मुगल सराय, (यानि ग्रैंड कार्ड लाईन) कानपुर, अलीगढ़ टूंडला के रास्ते चलती थी। 7up हावड़ा से 20:10 बजे चलती थी और दिल्ली अगले दिन 06:23 बजे पहुंचती थी और 8dn दिल्ली से 20:55 बजे चलती थी और हावड़ा अगले दिन 08:36 बजे पहुंती थी।यानि हावड़ा से दिल्ली तक की यात्रा करीब ३५ घटने में पूरी होती थी। बताना न होगा की ट्रेन में तब स्टीम इंजन का प्रयोग होता था।

Via main line ie via Patna

फिर साल 1956 में तूफान एक्सप्रेस को हावड़ा से नई दिल्ली वाया पटना, टूंडला आगरा हो कर चलाया गया तब भी इसकी स्पीड अच्छी थी। हावड़ा से 09:45 बजे चलकर दिल्ली अगले दिन 15:00 बजे पहुंचती थी और दिल्ली से 16:55 बजे चलकर हावड़ा अगले दिन 18:36 बजे पहुंचती थी।

1957 बड़हिया में ट्रेन रोकने के लिए 4 लोगो ने जान गंवाई

बड़हिया में तूफान एक्सप्रेस के ठहराव के लिए 1957 में आंदोलन किया गया था। उस आंदोलन में ट्रेन से कटकर चार लोगों की जान चली गई थी। ये घटना क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। बड़हिया रेलवे स्टेशन पर तूफान एक्सप्रेस का ठहराव नहीं था। उक्त ट्रेन के ठहराव की मांग के लिए ग्रामीण रेलवे स्टेशन की अप लाइन पर धरना पर बैठे थे। सुरक्षा में लगे पुलिस जवानों ने ट्रेन के आने की सूचना से पहले सबको हटाने का प्रयास किया, लेकिन चार लोग बैठे ही रह गए थे। तत्कालीन मुंगेर जिले के जिलाधिकारी एवं सरकार का सख्त निर्देश था कि तूफान एक्सप्रेस को बड़हिया स्टेशन पर नहीं रोकना है। किऊल स्टेशन पर उस वक्त ट्रेन के इंजन एवं ड्राइवर को बदलकर आगे के लिए रवाना किया गया और तूफान एक्सप्रेस उक्त चारों धरना दे रहे लोगों को रौंदते हुए बड़हिया स्टेशन से गुजर गई और अगले स्टेशन मोकामा में जाकर ही रुकी।


तुफान एक्सप्रेस कैसे बना उद्यान आभा तुफान एक्सप्रेस

साल 1991 में 7up/8dn हावड़ा-नई दिल्ली तूफान एक्सप्रेस को एक अन्य ट्रेन के साथ मिला दिया। गया । अक्सर ऐसी ट्रेनें मर्ज होने पर अपनी विशिष्टता (Exclusivity) और पहचान खो बैठती है। नए रूट , नए बढ़े स्टापेज के कारण लेट चलने की समस्या होने लगती है और राजनीतिक दवाब के कारण नए ठहराव जुड़ने लगते हैं। तब 59UP/60DN नई दिल्ली- श्रीगंगानगर उद्यान आभा एक्सप्रेस चलती थी 59DN दिल्ली से 22:45 बजे चलती थी और श्रीगंगानगर नगर 08:00 बजे पहुंचती थी और 60UP श्रीगंगानगर से 22:55 बजे चलती थी और नई दिल्ली 07:20 बजे पहुंचती थी।

इसी ट्रेन को तूफ़ान एक्सप्रेस के साथ मर्ज कर दिया गया और तूफान एक्सप्रेस औरअब इस ट्रेन का नाम हो गया उद्यान आभा तूफान एक्सप्रेस । और 3007UP/3008DN हावड़ा-श्रीगंगानगर तक यह ट्रेन चलने लगी । नई दिल्ली से आगे यह ट्रेन रोहतक,जींद ,नरवाना,जाखल,बठिंडा स्टेशन पर रूकती हुई श्रीगंगानगर पहुँचती थी।


इस तरह इस नयाब ट्रेन के बर्बादी की शुरुआत तो हो ही चुकी थी रही सही कसर 1997 में पूरी हुईं जब हावड़ा-नई दिल्ली तूफान एक्सप्रेस की स्पीड को स्लो किया गया। अब यह गाड़ी हावड़ा और गंगा नगर के 110 जगह रुकते चलते बीच 45 घंटे लेने और कितने घंटे लेट चलने लगी यह शोध का विषय है। इस प्रकार एक जामाने की सुपरफास्ट ट्रेन तूफान एक्सप्रेस को बर्बाद किया गया और यह अक्सर छोटी लोकल यात्राओं के लिए लोकप्रिय हो गयी।