Tuesday, March 12, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ८ (भरत की चित्रकूट यात्रा )

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥

मैं पिछले छः ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

भरत गुरु वशिष्ठ, माताओ और अन्य अयोध्या वासियों के साथ गंगा तट श्रीवेंगपुर पहुंच गए हैं। शंका निवारण के बाद निषाद राज गुह उनकी सेवा में लगे हैं। अब आगे।

भरत , शत्रुघ्न और अन्य का प्रयाग पहुंचना और गंगा और जमुना के संगम पर प्रार्थना

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥

निषाद राज के अगुवाई में सभी माताओं की पालकियां चली गयी , शत्रुघ्न को बुला उनके साथ कर दिया और ब्राह्मणों से साथ गुरु वशिष्ठ चल पड़े। भरत जी ने गंगा जी को प्रणाम किया और पैदल चल पड़े और न के पीछे पीछे रथ लिए घोड़े बिना सवार के ही चले जा रहे है । (सभी सुसेवक उन्हें रथारूढ़ होने को कहते है तब भारत जी कहते है राम भैया तो पैदल ही गए है तो मैं क्यों नहीं )



भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥
झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥

भरत जी श्रीवैनगपुर से चल कर सीताराम सीतराम कहते कहते उमंग अनुराग के साथ प्रयाग तीसरे पहर पहुँच गए । उनके चरणों में छाले पड़ गए और वे छाले कमल की कली पर पड़े ओस की बूंदों से चमकती हों। भरतजी पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सकल समाज दुःखी हो गया।



चित्रकूट धाम (विकिपीडिया के सौजन्य से )

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥

(त्रिवेणी संगम के श्वेत (गंगाजी ) और श्याम (यमुना जी ) में स्नान कर ) भरत जी त्रिवेणी जी की प्रार्थना करते है "श्री रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें, पर श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन-दिन बढ़ता ही रहे। हमे यही आशीष वरदान दीजिये।" त्रिवेणी जी कहते है "हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो। श्री रामचंद्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है। "

सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥

भरत - भरद्वाज संवाद

ग्राम में श्री रामचन्द्रजी के सुंदर गुण समूहों को सुनते हुए वे मुनिवर भरद्वाजजी के पास आए। मुनि ने भरतजी को दण्डवत प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा। मुनिश्रेष्ठ ने दौड़कर भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो संकोच के घर में घुस जाना चाहते है। (भरद्वाज जी अनेक प्रकार से भरत जी को समझते है।)

तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥

भरद्वाज जी भरत को समझते है इसमें (राम वनगमन में ) भी तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज करते तो भी तुम्हारा दोष न होता और यह सुनकर श्री रामचन्द्रजी को भी संतोष ही होता। हे भरत! सुनो, श्री रामचन्द्र के मन में तुम्हारे समान प्रेम पात्र दूसरा कोई नहीं है। इसी प्रकार लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तीनों की अत्यंत प्रेम भरी सराहना करते सारी रात बीती ।

इंद्र-बृहस्पति संवाद

देवतागण प्रभु का वनगमन ही चाहते थे तांकि दुराचारी रावण का संहार हो। इस कारण ही देवी सरस्वती ने मंथरा की बुद्धि भ्रष्ट की थी और राम को अंततः वनवास मिला था। भरत राम को कहीं वापस अयोध्या ले जाने में सफल न हो जाये यह चिंता इंद्र को भी थी।

देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥

भरतजी के प्रेम के प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया कहीं इनके प्रेमवश हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए (और राम लौट न जाएँ ) । संसार भले को लिए भला और बुरे को बुरा दिखता है । उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो।

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥

राम संकोची है और भरत प्रेम के समुद्र , कहीं भरत की बात मान लौट न जाये। कुछ जतन (छल) कीजिये - कहीं बानी बात बिगड़ न जाये। (छल इंद्र का चरित्र रहा है इसलिए उन्हें ऐसी बात सूझी )।

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥

इंद्र के वचन सुन गुरु मुस्कुराने लगते है, हजारो नयन युक्त इंद्र ज्ञान रूपी नेत्र रहित है। वे कहते है जो माया के स्वामी के सेवक के ऊपर कोई माया करता है तो वह उसके ऊपर ही आ पड़ती है। हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ श्री रामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाएगा॥

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥

प्रभु श्री रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है। देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

भरतजी चित्रकूट के मार्ग में

भरत जी इसी प्रकार चित्रकूट के मार्ग में बढ़ते चले जा रहे थे ।

एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥

इसी प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी रोमांचित हो जाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है। उनके प्रेम पूर्ण वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरतजी यमुनाजी के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आये कृष्ण वर्ण यमुना जल को देख प्रभु राम का स्मरण होने लगा।

रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥

रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि को दिखाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते हैं। सब लोग श्री रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल को पास देखकर रात को वहीं रह गए। रात बीतने पर श्री रघुनाथजी को प्रेम करने वाले भरतजी आगे चले।

श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध और राम जी का समझाना इत्यादि अगले भाग में। क्रमशः

Sunday, March 3, 2024

आज दोसा दिवस है !

क्या आपको पता है आज ३ मार्च दोसा दिवस है ? एक food app की सूचना आई कि आज यानि तीन मार्च , दोसा दिवस है।

दोसे के कई प्रकार है अब - सिर्फ प्लेन और मसाला दोसा ही नहीं मिलते इनके सिवा भी बहुत प्रकार के दोसे मिलते है। सादा दोसा , मसाला दोसा , मैसूर मसाला दोसा , रवा दोसा , कर्नाटकी स्पंज दोसा ,नीर दोसा (मंगलौर का ),पेसरट्टु (मूग दोसा ), अड़ाई दोसा , पनीर दोसा , बाजरा दोसा, अंडा दोसा , ओट्स दोसा , रागी दोसा , चना दोसा, उत्तपम आदि करीब २२ प्रकार के दोसा गूगल करने पर मिल जाता है। इनमे स्टैण्डर्ड प्लेन या मसाला दोसा, रवा दोसा , पेसरट्टु , अड़ा दोसा अक्सर मेरे घर पर बन ही जाता है।


JFWonline से साभार उद्धृत

आज दोसा दिवस पर मुझे अपने तीन ब्लॉग याद आ रहे है। जिसमें दोसा के विषय में मैंने आप बीती और कहानियां लिखी हैं। उनके कुछ भाग पुनः प्रस्तुत है। मैंने सबसे पहले डोसा या दोसा शायद १९६५ में ही खाई थी वह था मसाला डोसा । दक्ष्णि भारतीय व्यंजनों में सिर्फ डोसा ही तब उत्तर भारत में लोकप्रिय थे , समोसा बांकी दक्षिण भारतीय व्यंजनों जैसे इडली , उपमा पर भारी पड़ते थे और उत्तर भारत में हर जगह मिलते भी नहीं थे। मैंने अपने नौकरी जीवन के कई साल दक्षिण भारत में बिताये और अब लगभग सभी व्यंजन - डोसा , इडली , उत्तपम , उपमा , पायसम , बड़ा इत्यादि मुझे भाता है। कॉलेज में किये केरल ट्रिप में केले के पत्ते पर भात पर रसम परोस देने पर संभाल नहीं पाते थे पर रसम पीना अच्छा लगता था। सांभर तो अच्छा लगता ही था , नारियल - चना दाल मूंगफली की चटनी बहुत पसंद आती थी, है । बाद में आंध्र की अत्यंत तीखी चटनी ( लाल वाली ) और कर्णाटक के स्पेशल चटनी भी चखने का मौका मिला था। बंगलुरु में पूरन पोली भी खाने को मिला पर पता चला यह एक महाराष्ट्रियन डिश है। अब आईये मेरे पुराने ब्लॉग के कुछ अंश शेयर करता हूँ।

दोसा से मेरा पहला परिचय

मैंने पटना के एक प्रसिद्द तकनिकी संस्थान में दाखिला ले लिया था और हॉस्टल के उन्मुक्त जीवन का आनंद ले रहा था। मेस का खाना अत्यंत पसंद आता। पर जैसे जैसे समय बीता हॉस्टल के रूटीन खाने से ऊबने लगे और कभी कभी सोडा फाउंटेन (तब पटना का प्रसिद्द रेस्टोरेंट था) जा कर कुछ खा लेते । पहली बार मसाला दोसा इसी जगह खाई थी। । सोडा फाउंटेन में पहली बार होटल मैं बैठ कर आइस क्रीम खाई थी । तब सोडा फाउंटेन में बाहर लॉन में ही टेबल कुर्सी लगे होते और अंदर बैठ कर गर्मी खाने के बजाय हम बाहर ही बैठना पसंद करते क्योंकि हम शाम को ही सिनेमा जाने क्रम में ही यहाँ जाते । मसाला डोसा बहुत ही अच्छा लगा और बाहर जब भी खाने का मौका मिलता मसला डोसा फर्स्ट चॉइस होता । तब पता नहीं था मैं अपने नौकरी के कई साल दक्षिण भारत में बिताने वाला था ।

सालेम - तमिलनाडु (तमिल का अल्प ज्ञान)

अपने नौकरी जीवन में कोई एक - डेढ़ साल मुझे सालेम (तमिलनाडु ) में बिताने का मौका मिला। यहाँ से कई जगह घूमने भी गए जैसे मेट्टूर , यरकौड। चेन्नई तो आते जाते रुकना ही पड़ता था। वह की कई यादों में से एक मेरे एक पुराने ब्लॉग से।


एक बार हमारे वरिष्ठ सहकर्मी श्री डी.डी. सिन्हा सालेम आये। उस समय मैं अकेला ही था सालेम में। सालेम में मेरे सहकर्मी Vdyanathan या Nair जो दूभाषिए का काम कर देते थे और जिनके बदौलत हम तमिल, मलयलम फिल्म देेख लेते थेे, राँची गए हुए थे। एक रविवार हम स्टेशन के पास के सिनेमा हॉल 'रमना' में एक हिन्दी फ़िल्म देखने गए थे। इंटरवल में हम पुरुष शौचालय खोजने लगे। मैंने चैनैई (तब मद्रास) के लोकल बसों में लेडीज सीट के ऊपर लिखा देखा था पेनकाल् (பெண்கள்) । सिनेमा हाल में जब मैने एक शौचालय के ऊपर कुछ और ही लिखा देखा तो उसी को पुरुष शौचालय समझ बैठे और हम दोंनो अंदर चले गए। उस दिन पिटते-पिटते बचे।

एक बार हम दोनों शहर केे बीचों बीच स्थित वसंत विहार रेस्टुरेंट में गऐ। मैंने अपने तमिल ज्ञान को उपयोग में लाते हुए वेटर से पूछा तैयर बड़ा एरक् (दही बड़ा है?) । वेटर यह सोच कर की मुझे तमिल आती है अपने फ्लो में मेनू आइटम्स तमिल में बोलने लगा? मेरे पल्ले कुछ न पड़ा तो मैंने फिर पूछा तैयर बड़ा एरक् ? वह फिर तमिल में कुछ कह कर चला गया। शायद यह कह रहा होगा कि जो बताया बस वही है, श्री डीडी सिन्हा ने फिर कहाँ अब मेरा  इशारों ( Sign Language) का कमाल देखो। उन्होंने हाथ हिला कर वेटर को बुलाया। वे बोले 'मसाला दोसा' और दो ऊँगली दिखाई और वेटर दो दोसा ले आया। फिर कॉफी भी इसी तरह मंगाई गई।

Saturday, March 2, 2024

मेरी रेल यात्रा और दादा पोता की बातें

हर यात्रा की एक कहानी होती है। और रेल यात्रा पर तो एक उपन्यास लिखा जा सकता है। मैंने रेल यात्रा पर कई ब्लॉग लिखे है और कुछ के लिंक दे रहा हूं।

मेरी हालिया रेल यात्रा रांची से नई दिल्ली की थी। हमें रेल यात्राएं पसंद है, बचपन से ही। मेरा एक पुराना ब्लॉग भी है क्लिक कर देखें। पहले मैंने गरीब रथ में बुकिंग की थी। एक दिन पहले अपने नातियों, पोते-पोतियों के पास पहुंचने के लिए। पर कई आशंकाएं मन में उठने लगी। इससे पहले मैने सिर्फ एक बार 2010 या 2009 में, गरीब रथ -( हटिया -भुवनेश्वर) गरीब रथ से यात्रा की थी। तब ट्रेन में बेडिंग लेने होड़ लगी थी, डब्बे में घुसते ही अटेंडेंट को बेडिंग के लिए बोल देना पड़ा था। बेडिंग के अलग से पैसे लगते थे सो अलग, बेडिंग सबको नहीं मिल पाते थे। यह थी मेरी पहली आशंका, दूसरी आशंका भोजन की थी। दिल्ली गरीब रथ का स्टापेज राजधानी के जैसा ही है और सिर्फ एक स्टेशन बरकाकाना में ही भोजन ले सकते है। मैंने दो तीन दिन सोचता रहा फिर टिकट कैंसिल कर अगले दिन राजधानी में ही टिकट करवा लिया।

विकीपीडिया से साभार

सिनियर सिटिजन कोटा से दोनों आमने-सामने का लोअर बर्थ हमें मिला था। जब उम्र कम थी तब उपर का बर्थ ही पसंद आता था। किसीसे कोई मतलब नहीं आप अपने बर्थ पर आते ही लेट जाओ। लोअर बर्थ पर आप तब तक नहीं ही लेट सकते हो जब तक आपके सहयात्री अपने बर्थ पर न चले जाए। हमसे आगे वाली बर्थों पर दो तीन परिवार जिनमें बच्चे भी थे हल्ला गुल्ला मचाए हुए थे। उनकी बातों से ही पता चला कि वे वैष्णो देवी जा रहे थे। पहले तीर्थ यात्रा में लोग धर्म कर्म की बातें किया करते थे, धर्म पर ही चर्चा होती थी या कहां ठहरे कब चले आदि बातों पर । अब लोग तीर्थ यात्रा में खूब मस्ती करते है । शायद कुछ लोगों को मेरी बात पसंद न आये , भई कोई हर्ज नहीं मस्ती करने में यदि वह मर्यादा में रहे। तीन चार बच्चे भी मजे ले रहे थे और मस्ती में उन्होंने रात में दही नीचे गिरा दिया और सुबह नाश्ते की ट्रे पलट दिया। यानि डब्बे की ऐसी तैसी कर दी। खैर बच्चों की तो हर ख़ता मुआफ। खेल, मजाक, चुहलबाज़ी और हल्ला गुल्ला से लेकर "मुझे मुर्गा नहीं पसंद, मुझे अंडा पसंद है। मैंने बतख नहीं खाई पर कबूतर खाया है इत्यादि बातें अगले सुबह मेरे कानों में पड़ रहे थे। खैर हिंदुओं में धर्म कर्म एक व्यक्तिगत बात है। आप जैसे चाहे पुजा पाठ तीर्थ यात्रा करें। दक्षिण में टिफिन जैसे इडली खाने से आपका व्रत नहीं टूटता, उत्तर भारत में नवरात्र में सेंधा नमक वाला खाना फलाहारी माना जाता है पर बिहार में फलाहार और उपवास रखना कठिन है।

शाम का नाश्ता और डिनर के बाद मैंने बिछावन लगाने की जल्दी दिखाई और उपर के बर्थ वाले यात्रियों को हमारा बर्थ छोड़ देने को मजबूर कर दिया। मैं फिर भी आईसक्रीम के इंतजार में जागता रहा। धीरे धीरे सभी यात्री अपने अपने बर्थ पर चले गए।‌ बत्तियां बुझ गई। तीर्थ यात्री परिवारों से धीरे धीरे खुसफुसाहट में बात करने की आवाज आने लगी। बीच बीच में दबी आवाज के साथ ठी ठी हंसने की आवाज मुझे सोने नहीं दे रहे थे।

रात में इग्यारह बजे होंगे, सभी लोग लगभग सो चुके थे। गया स्टेशन पर सभी गाड़ियां रूकती है। हमारी राजधानी ट्रेन भी रुकी। पैसेंजर के चढ़ने उतरने के शोर से मेरी अभी अभी लगी नींद टूट गई। दो लोग चढ़े एक बुजुर्ग और एक जवान आदमी, और लोगों का चढ़ना तो याद नहीं पर इन दोनों का चढ़ना याद रह गया। वे अपना बर्थ ढ़ूंढ रहे थे। जवान लड़का मोबाइल का टार्च जलाकर सभी बर्थ का नंबर पढ़ने लगे- हमारे बर्थ पर दो बार आया । हमने उसे बर्थ खोजने में मदद करनी चाही और बर्थ कहाँ है बताने की कोशिश की पर जवान आदमी बुजुर्ग को चढ़ाने आया था और उतरने की हड़बड़ी में था और मेरी बातों को नज़र अंदाज़ कर चला गया । जब बुजुर्ग भी हमारे बर्थ का नंबर पढ़ने आया तब उसे मैंने बताया कि उसका नीचे का बर्थ है मेरे बर्थ के बगल वाला है यानी पार्टीशन के उस तरफ तब उसे बर्थ मिला।‌ अफ़सोस उसके ही बर्थ पर आराम से सोऐ सज्जन, जिससे वह पहले बर्थ नंबर बता कर पूछ रहा था ने उसे मदद नहीं की थी लेकिन जब उसने अपना बर्थ न० पता कर लिया तब उन्होंने बर्थ खाली कर दिया। शायद बुजुर्ग की एसी कोच में अकेले यह पहली यात्रा थी। चादर मांगने उन्हें सहयात्रियों ने उपर रखे बेडिंग के पैकेट दिखा दिया , पर वह सारे चादर का पैकेट उतारने लगा और लोग के बताने पर कि सिर्फ एक पैकेट उतारो उसे समझ आया। वह अपना चादर बिछा ही रहा था की एक फ़ोन आ गया। वह तेज आवाज़ में बात करने लगे। लोग या तो आदतन‌ तेज बोलते हैं या जब खुद ऊंचा सुनते हो तब। फोन उनके बेगम का ही होगा। सभी डिस्टर्ब हो रहे थे पर उनकी बातों से मैं अंदाज़ लगाने लगा था क्या बात हो रही होगी।
बेगम : सलाम वालेकुम
बुज़ुर्ग (little annoyed) : वालेकुम
बेगम (लगभग डांटते हुए): ट्रैन में चढ़ कर फ़ोन क्यों नहीं किये , कोई फिक्रमंद है, आपको क्यों याद‌ होगा।
बज़ुर्ग : रूको ,सुनो, सुनो
बेगम (थोड़ा शांत हो कर): ठीक से बैठ गए ?
बुज़ुर्ग (complaing) : अभी अभी तो सीट मिलल है , रात का टाईम है , अँधेरा है , बत्ती बंद है और सभी लोग सो रहे है और तुमरा फ़ोन आ गया थोड़ा शबर तो कर लेते अभी बिछावन लगा ही रहे थे।
बेगम की कुछ और डांट पड़ी और‌ नसीहत हिदायत भी - "सामान ठीक से रख लिए - अब्दुल (शायद बेटा होगा जहाँ बुज़ुर्ग जा रहे होगें) को फ़ोन किये की नहीं ?
बेगम फ़ोन रखने तो तैयार नहीं , बुज़ुर्ग भी क्या करें ? बिछावन बिछाए , बीबी को सफाई दे या बेटा को फ़ोन करे। आस पास के सभी लोगों को तो जगा ही चुके थे। अल्लाह हाफिज कह अभी फ़ोन रखे ही थे की शायद पोते का फ़ोन आ गया। पोता इतनी जोर से बोल रहा था की मुझे भी सुनाई से रहा था। शायद ५-६ साल का होगा। बुजुर्ग के आवाज में तुरंत एक मिठास आ जाती है।
पोता : कब आओगे ?
दादा :बाबु ट्रेन में है। बेटा तुम्हारे पास ही आ रहे है। यह दो डायलॉग कई बार चला।
दादा : तुम्हारी दादी है न, गया वाली दादी, वो तुम्हारे लिए मिठाई दिहिन है। और भी कई चीज़ दिए है। सुबह से पहुंचते तब देंगे हां । अब पापा को फोन दो। पोता पापा को नहीं देता फ़ोन और कब आ रहे हो और क्या ला रहे हो के प्रश्न कई बार पूछता है। मिठाई खुद मत खा जाना भी कहता है। कई बार खुदा हाफ़िज़ कहने पर भी पोता फोन नहीं रखता और दादा भी फोन नहीं काटना चाह रहे होंगे। बाकि पैसेंजर (मैं भी) फोन बंद होने का इंतजार कर रहे थे, कि कब शोर बंद हो और हम सोएं। बहुत मुश्किल से शायद ५-६ मिनट बाद दादा अपने पोते को अल्लाह हाफिज कह पाए। मैं उनकी बात सुन रहा था। और सोच रहा था मैं भी नाती - पोते के पास ही जा रहा हूँ। यह भी दादा पोता का यह रिश्ता सभी के लिए एक जैसा है - शायद । Grand parents are a child's first friend and grand children are any person's last friend (, probably) ! पता नहीं पश्चिमी देशों में कैसा होता होगा यह रिश्ता ?
अभी इस कहानी को विराम देता हूं।‌ आशा है राम कथा पर मेरे ब्लॉग सिरिज के अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा आप करेंगे।