भूमिका
इस कहानी या संस्मरण की लेखिका है मेरी चचेरी बहन कुसुमलता। यदि और विस्तार में बताऊँ तो मेरे दादा जी और उनके दादा जी सहोदर भाई थे। मेरे चाचा स्वर्गीय उमेश चंद्र प्रसाद बिहार के एक सबसे पुराने जिला शहर (One of the oldest District Town ) मुंगेर के लल्लू पोखर मोहल्ले में रहते थे। हम लोगों का एक दूसरे के यह आना जाना लगा रहता था। कभी लगता ही नहीं था की वे सब हमारी चचेरे भाई बहन है। सबसे बड़ी प्रेमा दीदी के शादी में मैं एक बच्चा था और उस बार के मुंगेर ट्रिप पर मैंने एक ब्लॉग पोस्ट भी किया है। लिंक यहाँ दे रहा हूँ। बचपन मै भी भागा था इस संस्मरण में जिन बड़ी माँ का जिक्र है वे हमारे स्व केदारनाथ चाचा जी की पत्नी थी और निःसंतान होने के कारण मुंगेर में ही रहती थी। इसी तरह निःसंतान दादा जी स्व श्री हरिहर प्रसाद की पत्नी संझली दादी हमलोगों के साथ जमुई में रहती थी। उस दौर में कोई बेसहारा नहीं होता था। बताता चलूं मुंगेर बिहार में गंगा के दक्षिण में बसा एक मुफस्सिल शहर है जो नवाब मीर कासिम के किले और योग नगरी, रेल वर्कशॉप, सिगरेट और बंदूक कारखाने वाले युगल शहर जमालपुर के लिए प्रसिद्ध है। अब आगे दीदी के शब्द।
लाल दरवाजा, मुंगेर
बचपन और उसकी कुछ यादें
हमारा घर मुंगेर में गंगा जी के किनारे है। मैं, मेरी दोनों बड़ी बहने और बड़की मैया/ बड़ी मां( बड़ी चाची) नियमत: वैशाख और जेठ के महीने में (गर्मी के दिनों में) गंगा स्नान करने जाते थे।
हम लोग बहुत उत्सुकता से गर्मी के मौसम का इंतजार करते थे। गर्मी का दिन,छुट्टियां और एकदम साफ गंगा, ऐसे में कौन बच्चा अपने को रोक पाता। हमने खेल-खेल में ही तैरना बिना किसी instructor और lifeguard के सीख लिया। तैराकी की सारी करतब सीखने कोशिश करते थे (तट के नजदीक)।
उस समय घड़ी हुआ करती थी, मगर बड़ी मां के पास अपने time pins थे जैसे पौ-फटने के पहले, दिन चढ़ने के बाद, अस्ताचल सूरज, गोधूलि बेला और वह उनके हिसाब से चलती थी। उन्हें घड़ी देखने की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती थी। ज्यादातर समय उनका समय का अंदाजा बिल्कुल सही होता था।
उन्होंने एक दिन सुबह-सुबह हमें अपने समय के अंदाजे से उठा दिया। हम सब गंगा जी जाने के नाम से, बिना ना-नुकर किए तुरंत तैयार हो गए। 100 में से एक दिन जब बड़ी मां का नेचुरल क्लॉक फेल हुआ होगा, यह वही दिन था। हम सभी गंगा जी के तट पर पहुंच गए ,मगर एकदम अंधेरा था। सूरज की किरण का कोई नामोनिशान नहीं था ।
उस जमाने में जब इतने घर नहीं थे,तब खुले में जैसे नदी तट पर चांद की रोशनी से भी थोड़ा ज्यादा ही उजाला हुआ करता था और उस उजाले में हमने नदी तट पर एक जलपरी जैसी आकृति देखी,वह अपना निचला हिस्सा मछली/पूछ वाला हिला रही थी । जलपरी की कहानियां हम सुना करते थे और हमारा कोमल मन उस पर विश्वास भी करता था। खैर हम सब ने उस "जलपरी को देखा और हमारी हालत ऐसी की मानो काटो तो खून नहीं।
उल्टे पांव चारों दौड़कर वापस घर आ गए।हमने तुरंत निर्णय लिया कि इस बात का जिक्र किसी और से नहीं करेंगे, डर था हमारा गंगा जाने का मजेदार दौर खतरे में न पड़ जाए ।उस दिन काफी देर के बाद सूर्योदय हुआ। लगता है हम लोग एक या दो बजे ही गंगा जी चले गए थे।
आज हमारे बीच बड़ी मां, मां-बाबूजी और बड़ी दीदी नहीं है तब मैं इस घटना से पर्दा हटा रही हूं। सोचती हूं हो सकता है उस दिन हमने गंगा में पाया जाने वाला घड़ियाल या सिर्फ उस इलाका में पाई जाने वाली डॉल्फिन देखी हो या कौन जाने शायद सच की जलपरी ही देखी हो ।
इस घटना को याद करने के के साथ बहुत सारी बचपन की मीठी-मीठी यादें सजीव हो गई है। और कौन जाने कभी उन यादों पर भी कुछ लिख डालूं।
कुसुमलता सिन्हा, पटना
Excellent.
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