मैंने पिछले ब्लॉग में लिखा राम , रामकथा और राम लाला (पढ़ने के लिए क्लिक करे )। उसी क्रम में मैं अपना यह आलेख गणेश वंदना से शुरू करता हूँ । गीता प्रेस के राम चरित मानस की सहायता मैंने ली है इस आलेख के लिए। इस भाग में धनुष भंजन तक
जो सुमिरत सुधि होइ गन नायक करिबर वदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि राशि सुभ गुन सदन।।
मूक होही वाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।
जांसू कृपा हो दयाल द्रवहु सकल कलिमल दहन ।।
जिनके स्मरण मात्र से सभी कार्य सिद्ध हो जाते है उन्ही हाथी के मुंह वाले गणों के स्वामी राशि और बुद्धि के गुणों के धाम (गणेश जी ) कृपा करे। जिनके कृपा से गूंगे अच्छा बोलने लगे, लंगड़े कठिन पहाड़ चढ़ने लगें, इस कलयुग में उनकी कृपा हो ।
अब मैं कुछ लोकप्रिय दोहे चौपाई के विषय में कुछ लिखता हूं ।
बाल कांड
नौमी तिथि मधु मास पुनीता।
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा।
पावन काल लोक बिश्रामा ॥
राम के जन्म का वर्णन है। न ज्यादा गरम न ज्यादा ठंडा जैसे (चैत्र) मधुमास की नवमी तिथि । फिर एक छंद देखे। प्रभु के जन्म को संत तुलसीदास कैसे वर्णित करते है।
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
दीनो पर दया करने वाले, कौशल्या को खुशी देने वाले, अद्भुत रूप, आंखों को आनन्द देने वाले श्याम वर्ण, विशेष
अस्त्रो , आभुषण, बड़े बड़े नयनों वाले, शोभा के समुद्र और खर राक्षस को मारने वाले
प्रगट हुए है। प्रभु का अवतार जान माता स्तुति करने लगती है पर मातृत्व के आनंद के लिए यह चौपाई।
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥
माता की मति बदल जाती है वह कहती है तात अत्यन्त प्रिय बाललीला करो,यह सुख परम अनुपम होगा। माता का यह वचन सुनकर भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया।
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी।
संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी।
आनँद मगन सकल पुरबासी॥
बच्चे के रोने पर भी रानियां आनंदित हो चली आती है, और महल में सभी धाई दासी और पुरवासी आनन्द मगन हो जाते है।
जब राज कुमार ठुमक ठुमक चलने लगे।
कौसल्या जब बोलन जाई।
ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अंत न पावा।
ताहि धरै जननी हठि धावा॥
दशरथ के यहाँ चार राजकुमार का जन्म हो चुका है। सभी रानियां खुश है। बालकों के बालसुलभ चुलबुलापन और चपलता से सभी हर्षित है। जब माताएं उन्हें बुलाने जाती है तो वे जान बुझ कर दूर भाग जाते है जैसे लुका छिपी खेल रहे हों। इस दृश्य को कल्पना में ला कर देखिये कैसा मनोरम दृश्य है। जिसका अंत शिव को भी नहीं पता माता उसीको पकड़ने की जिद कर रही है।
बालकों की शिक्षा दीक्षा समाप्त हो गई,तब ऋषि विश्वामित्र अयोध्या पधारे । ताड़का और अन्य राक्षसों से आश्रम और यज्ञशालाओं की रक्षा के लिए राजकुमारों को ले जाने के लिए।
असुर समूह सतावहिं मोही।
मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा।
निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
असुर समुह हमें सताते हैं, मैं कुछ मांगने आया हूं। राजा दशरथ से उन्होंने छोटे भाई समेत राम को अपने साथ ले जाने की प्रार्थना की। राजा दशरथ उनकी इस मांग से घबरा गए। राम से वियोग वो भी राक्षसों से युद्ध के लिए वो तैय्यार न थे।
मागहु भूमि धेनु धन कोसा।
सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं।
सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥
राजा कहते है पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा ।
ऋषि के समझाने पर दशरथ राम और लक्ष्मण को उनके साथ भेज देते है। राम और लक्ष्मण तारका और अन्य राक्षसों का नाश कर देते है, अहिल्या का उद्धार भी राम करते है। । बाद में ऋषि के साथ दोनों राजकुमार जनकपुर जाते है।
जनकपुर में
देखि अनूप एक अँवराई।
सब सुपास सब भाँति सुहाई।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना।
इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥
आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्रजी ने कहा- हे रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए। इसके बाद राम लक्ष्मण के चर्चे पूरे जनकपुर में फ़ैल जाती है। दोनों भाई जनकपुर के महल , बाग इत्यादि देख कर चकित है। फिर सीता और राम की मुलाकत इसी बाग में होती है।
राम और सीता का प्रथम मिलन
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन।
लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई।
गिरिजा पूजन जननि पठाई॥
राम और लक्ष्मण चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्ता-पुष्प लेने लगे। संयोग से उसी समय सीता अपनी माता के आज्ञानुसार पार्वती पूजन के लिए वहाँ आईं।
राम - लखन को कुछ सखियों ने देखा और उनके रूप का वर्णन सीता से किया।
तासु बचन अति सियाही सोहने।
दरस लागि लोचन अकुलाने ॥
चली अग्र करि प्रिय सखी सोई।
प्रीति पुरातन लखि न कोइ ॥
सखी के वचन सुनकर सीता जी की आंखे राम जी को देखने के लिए अकुलाने लगी। अपने सखी तो आगे कर सीता चल पड़ी , पुराने प्रीत को कोई देख नहीं पाता। राम ने सीता और सखियों को देखा और उनके रूप की चर्चा लक्ष्मण जी से भी की ।
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल।
मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥
ऐसा कहकर राम ने फिर उस ओर देखा। सीता के मुखरूपी चंद्रमा के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। उनकी टकटकी लग गई । मानो निमि (जनक के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (यानि निमि ने पलकों में रहना छोड़ दिया, जिससे राम की पलके झपक गई (बंद हो गई) ।
सीता जी शोभा का ह्रदय में वर्णन कर और कुछ सोच राम जी लक्ष्मण से कहते है।
तात जनकतनया यह सोई।
धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं।
करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥
हे तात! यह वही जनक की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवारी में प्रकाश करती हुई फिर रही है।
सतानंद (जनक जी के पुरोहित) विश्वामित्र से मिलते है और जनक का आमंत्रण उन्हें दिया। विश्वामित्र दोनों भाईयों को लेकर रंग भूमि जाते है। नगर वासी दोनों भाइयों को देखने उत्सुक हो कर आये तो बड़ी भीड़ हो गयी। जनक की ने ऐसा देख अपने विश्वास पात्र सेवको से सबको उचित आसान देकर बैठाने को कहा ।
राज समाज बिराजत रूरे।
उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
बहुत सारे राजे , महाराजे रंगभूमि में आये हुए थे पर दोनों राजकुमार राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चंद्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही दिखती है।
स्वयंवर के लिए सभी अथति आसान ले चुके थे। सब सुअवसर जानकर जनक जी ने सीता को बुलवा भेजा। और सखियां उन्हें आदर पूर्वक लिवा ले गयी।
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी।
जगदंबिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं।
प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥
सीता की शोभा की बखान नहीं किया जा सकता। जगत जननी तो रुप गुण की खान है। कोई उपमा छोटी ही होगी। पर सभी राजा लोग दोनों राजकुमारों को देख कर हतोत्साहित हो जाते है।
प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे।
जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं।
राम चाप तोरब सक नाहीं॥
प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चंद्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेज को देखकर) सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि राम ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं। सवयंवर में आये राजा शिव धनुष को उठाने तोड़ने की कोशिश करते है।
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं।
उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं।
चाप समीप महीप न जाहीं॥
सभी राजा तमककर (बड़े ताव से) शिव के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं, करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते। जब शिव धनुष को कोई राजा उठा तक नहीं सका तब जनक दुखी हो गए।
दीप दीप के भूपति नाना।
आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा।
बिपुल बीर आए रनधीरा॥
जनक तब बोले , मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत-से रणधीर वीर आए। पर धनुष तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और कीर्ति को पाने वाला ब्रह्मा ने रचा ही नहीं।
सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ।
कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई।
तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥
दुखित जनक बोले यदि प्रण छोड़ता हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता।
जनक के वचन सुन कर सभी दुखी हो गए सिर्फ लक्ष्मण को यह बात खल गयी की रघुवंशियों के रहते पृथ्वी को वीरों से शुन्य कह दिया। उन्होंने कहा की यदि मै चाहूँ तो पृथ्वी को गेंद की तरह उठा डालू और फोड़ डालू। चाहू तो इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा कर १०० कोस की दौड़ लगा लू। ज्यों ही लक्ष्मण ने यह बात कहीं पृत्वी डगमगा उठी। तब गुरु विश्वामित्र ने राम को धनुष तोड़ने को कहा।
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा।
हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ।
ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥
गुरु के वचन सुनकर राम ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और वे खडे हुए उनकी शान देख जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए।राम को धनुष को तोड़ने के लिए उठता देख सीता प्रार्थना करने लगी की राम सफल हो सके।
मनहीं मन मनाव अकुलानी।
होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि सेवकाई।
करि हितु हरहु चाप गरुआई॥
वे व्याकुल होकर मन ही मन प्रार्थना कर रही हैं - हे महेश-भवानी! मुझ पर प्रसन्न होइए, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझ पर स्नेह करके धनुष के भारीपन को कम कर दीजिए ।श्री राम ने देखा सीता जी अति व्याकुल हो रही थी ।
का बरषा सब कृषी सुखानें।
समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी।
प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
राम जी ने सोचा सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर राम ने जानकी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम देख वे पुलकित हो गए।
गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा।
अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
राम धनुष तोड़ने के लिए उठे और मन-ही-मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे (हाथ में) लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल-जैसा (मंडलाकार) हो गया।
इस भाग में बस इतना ही। बाकि रामायण फिर कभी।
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