सब पर लिखते तो हम पर भी तो लिखो - मैं रांची हूँ !
अल्बर्ट एक्का चौक इसे फिराया लाल चौक भी कहते है
मैं जहां तुम ४६ साल से भी ज्यादा दिनों से रह रहे हो, जिसने रोजी रोटी दी , जहाँ तुम्हारे बच्चे पढ़े, खेले, बड़े हुए पर लिखने का ख्याल न आया ? शायद कुछ ऐसी बातें राँची मुझसे कहना चाह रही थी पर जब ऐसी ही बात श्रीमती जी ने भी कह डाली तो मैं जुट गया राँची (जो मेरा- हमारा शहर हैं), पर एक ब्लॉग लिखने, आखिर मैंने इसे एक सोये हुए छोटे मुफ्फसिल जिला मुख्यालय से बढ़ते बढ़ते एक राज्य की राजधानी, उद्योग का केंद्र और एक महानगर में परिवर्तित होते जो देखा हैं । मैंने देखा हैं जो जगह जमशेदपुर और हज़ारीबाग़ के साथ ६० के दशक में एक संप्रद्रायिक रंजिश का हॉट स्पॉट था और रामनवमी और मुहर्रम के जुलूसों के समय में प्रशासन का सरदर्द बन जाता था, कैसे आज एक शांत सांप्रदायिक सौहाद्र वाली जगह बन गयी हैं । कैसे आपराधिक गतिविधियों के चलते जहाँ कभी बाजार सरे शाम यानि सात बजे तक बंद हो जाती थी, और सड़के कर्फ्यू की तरह वीरान हो जाती थी अब देर रात तक खुली रहती हैं और लोग बेख़ौफ़ घूमते हैं । मेन रोड की दुकाने तब मंगलवार या शुक्रवार को बंद होती थी और रविवार को खुली रहती थी, और हम ऑफिस जाने वाले के लिए सुविधाजनक भी था, बाजार जाना हो तो छुट्टी नहीं लेनी पड़ती थी । फिर आया रामायण टीवी सीरियल जो रविवार को आता था और मेन रोड की सभी दुकाने रविवार को बंद होने लगी क्योंकि कोई दुकानदार रामायण मिस नहीं करना चाहता था । यह सब होते भी मैंने देखा हैं । यानि कई बातें थी जिसे मै इस शहर के बारे में बता सकता था और पत्नी जी ने सही ही टोका था ।
रांची में लगातार रहते हुए ४६ वां साल बीत रहा हैं और मैंने कई बदलाव देखी हैं इस रांची में। मैं तो १९६२-६४ से यहाँ आता रहा हूँ । मेरी बड़ी मौसेरी बहन स्व डॉ पुष्पा सिन्हा की पोस्टिंग तब ताज़ा ताज़ा खुले RMCH में हुई थी और हम तब शायद पहली बार रांची आये थे अपने पिताजी के साथ। जहाँ तक मुझे याद हैं तब हम डोरंडा में पिताजी के किसी मित्र से मिलने गए थे और हमें कडरू के रेलवे क्रॉसिंग होकर जाना पड़ा था । ओवरब्रिज राँची का एक मुख्य लैंड मार्क है और मेन रोड से डोरंडा जाने के लिए आज एक लोकप्रिय रुट हैं पर रिक्शावाला कडरू हो कर ले गया, ओवरब्रिज चढ़ कर जाना नहीं चाहता होगा या ओवरब्रिज तब बना ही न हो । मेरा यह ब्लॉग रांची में मेरे सामने हुए, बदलाव अनुभव, और कुछ पढ़े हुए इतिहास पर आधारित हैं । जानता हूँ जितना कुछ मन में हैं वह मैं पूरी तरह बयान नहीं कर सकूंगा पर मैं पूरी कोशिश करूँगा। तो लीजिये देखिये मेरी राँची को मेरे नज़र से ।
पहले थोड़ा इतिहास
आइये पहले थोड़ा इतिहास की बात करते हैं । छोटानागपुर, रांची क्षेत्र समेत, नन्द
वंश के मगध साम्राज्य के हिस्सा था जो बाद में मौर्य साम्राज्य और गुप्ता वंश के
बाद नाग वंश / पालवंश के राज्य का हिस्सा बना । शायद नाग वंश के शासन काल में ही
इसका नाम छोटानागपुर पड़ा हो ।अशोक और समुद्रगुप्त रांची क्षेत्र हो कर ही अपने
कलिंग / महा कौशल अभियान पर गए थे । गुप्त शासन के पश्चात नागवंश का शासन बहुत
लम्बे समय तक अबाध चलता रहा । पर अकबर की सेना ने नाग वंशी कोकराह मधु सिंह को
१५८५ में हरा दिया और जहांगीर के काल में नागवंशियों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार
कर ली ।
कोकराह प्रधान रघुनाथ शाह ने १७ वीं शताब्दी तक इस क्षेत्र पर राज किया पर प्लासी
के युद्ध के बाद १७६५ में इस क्षेत्र पर अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया और
नागवंशी राज्य उनके आधीन आ गए । पर एक समझौते के तहत नागवंश का शासन चलता रहा
लेकिन १८१७ में रांची जिला रामगढ के मजिस्ट्रेट के सीधे नियंत्रण में आ गया ।
नागवंशी राजा लाल चिंतामणि शरण नाथ साह देव अंतिम राजा रहे । छोटानागपुर के साथ
दालभूम (बांकुरा क्षेत्र) मिला एक परगना बनाया गया । तब जिला के मुख्यालय था
लोहरदगा और इसमें पलामू के क्षेत्र भी शामिल था ।
रांची का नाम कैसे पड़ा
राँची का नाम कैसे पड़ा इस पर दो कहानियां प्रचालित हैं । अग्रेज कप्तान ने आर्ची
को जो एक उरांव गाँव था अपना मुख्यालय बनाया और अंग्रेजों ने इसे राची और कालांतर
में राँची कहना शुरू कर दिया । यहाँ बतातें चले की आर्ची का नागपुरी भाषा में
अर्थ होता हैं बाँस के जंगल । मुंडारी भाषा में भी अरांची का मतलब होता हैं छोटी
छड़ी ।
दूसरी कहानी है की राँची का नाम रिसि से पड़ा जो की एक काली चील का नाम
हैं जो अक्सर पहाड़ी मंदिर के आस पास पाई जाती है । राँची स्टेशन के आस पास का
क्षेत्र चुटिया कहलाता है और यही राँची का केंद्र हुआ करता था । चुटिया,
हिंदपीढ़ी, रातू, बरियातू, डोरंडा, हिनू, धुर्वा, वैगेरह मिल कर बनते हैं राँची ।
१९८० में एक बार हम तो आश्चर्य में पड़ गए जब हमारी काम वाली ने एक दिन की छुट्टी
मांगते हुए कहाँ " राँची जाना हैं" । राँची में ही तो थे हम लोग फिर इसने राँची
जाना है क्यो कहा ? स्थानीय लोग रेलवे लाइन उस पार यानि उत्तर का क्षेत्र जो मेन
रोड के नाम से ज्यादा प्रसिद्द हैं को ही राँची कहा करते थे ।
Photo Curtsey Wikipedia
राँची का मौसम - तब और अब
राँची २१३५ फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित हैं और इसका सुहावना मौसम इसका एक प्रमुख आकर्षण रहा है । राँची को बिहार के एक हिल स्टेशन का भी दर्जा प्राप्त रहा है । यही कारण था कि बिहार कि राजधानी गर्मियों में राँची शिफ्ट हो जाती और राँची में भी एक मिनी सेक्रेटारियेट और हाई कोर्ट का बेंच हमेशा से रहा है । गर्मियों में (अप्रैल-मई) जब भी दिन में थोड़ी गर्मी पड़ती शाम तक बारिश के साथ मौसम में ठंडक आ जाती । ये सिलसिला अब करीब करीब टूट चूका है और जहाँ पंखा सिर्फ एक महीना मई में ही चलाना पड़ता था अब तो AC भी कभी कभी कम लगता हैं, और गर्मी में तापक्रम का ४० deg C से ऊपर चला जाना अब आम बात ही गयी है । तब राँची में पंखा बजार में कम ही दिखता था और कूलर तो मिलता ही नहीं था। अपनी शादी के बाद मैं पहली बार १९७७ में पत्नी के साथ राँची आया था और अपनी दीदी डॉ पुष्पा प्रसाद के बरियातू वाले क्वार्टर में रुका था। बरियातु की नंगी पहाड़ी के करीब ही था यह क्वार्टर। खुला हुआ क्षेत्र। कमरे के छत की उचाई काफी ज्यादा थी और बड़ी बड़ी हवादार खिड़किया भी थी । अगस्त का महीना था हमारे आने के दिन के शाम से ही बारिश लगातार होने लगी और फिर इतनी ठंढक हो गई की रजाई भी कम पड़ने लगी। अब तो हम वैसे मौसम की कल्पना भर कर सकते हैं । पेड़ो की कटाई, राजधानी बनने के बाद सड़कों पर चलती बेहिसाब गाड़ियां, बढ़ती जनसंख्याँ और कई ऐसे कारण गिनाये जा सकते है । पर शिकायते फिर कभी ।
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पुराने संस्थान और दूकाने
कई दुकाने राँची का चेहरा बन चुकी है या कभी थी उनके बारे में नहीं बताया तो क्या
बताया ? चुरुवाला और राजस्थान कलेवालय का जिक्र पहले ही कर चुका हूँ । इस लिस्ट
में निर्विवाद रूप में पहले स्थान पर आता है - फिरायालाल । बिहार का
पहला डिपार्टमेंटल स्टोर । चर्च काम्प्लेक्स मार्किट खुलने तक कपडें और कई गृह
सजावट के और सामने के लिए यह एक गिना चुना दुकान था। कश्मीर वस्त्रालय दूसरा चॉइस
हुआ करता था । घर से मेन रोड के ज्यादातर शास्त्री मार्केट के लिए निकलने पर
हमारे दो स्टॉप अवश्य होते थे गुड बुक्स और फिरायालाल । फिरायालाल का मुख्य
आकर्षण था लाजवाब सॉफ्टी आइस क्रीम । मेरी बहू रानी अभी तक मेरे बेटे को ताने
देती है की इतनी तारीफ तो कर दी कभी तो खिलाओ फिरायालाल की सॉफ्टी ।
गुड बुक्स बच्चों को बहुत पसंद था । हम लोग भी उन्हें उत्साहित करते रहते
। यहाँ स्टेशनरी, किताबे, कॉमिक्स, नोवेल्स और कई आवशयक चीजे मिल जाती थी मेरे
बच्चे तो कभी कभी पूरी कॉमिक्स बुक वहीं खड़े खड़े पढ़ भी लेते कई नाम और याद रहे
हैं जैसे गुड बुक्स के बगल में स्थित शिमला चाट हाउस, उसके सामने शीतल छाया (जहां
अब राज अस्पताल है) जहाँ का दोसा हमें अच्छा लगता था, पंजाब स्वीट्स (जहाँ मै और
मेरा मित्र सुधांशू अक्सर गाजर हलवा खाने जाया करते थे), हैव मोर नन वेज के लिए
प्रसिद्ध था, भारत बेकरी, चुंग-वाह और कई और जगहें भी लोकप्रिय थी । कुछ तब भी थे
और बदले स्वरुप में अब भी हैं । राजेन्द्र चौक के पास स्थित युवराज और इसका
रेस्टॉरेंट एलोरा एक समय में राँची के सबसे पॉश होटल हुआ करता था, अब रेडिसन हैं
।
जहाँ पहले फिरायालाल के पास स्थित शास्त्री मार्किट कपड़े और रेडीमेड खरीदने की
लोकप्रिय जगह थी अब दस -बारह मॉल हैं राँची में - चर्च काम्प्लेक्स, स्प्रिंग
सिटी, JD HI स्ट्रीट, ग्लैक्सिआ मॉल, न्युक्लियस मॉल, रिलाएन्स फ्रेश -स्मार्ट
स्टोर्स, बिग बाजार, क्लब काम्प्लेक्स, मेपल प्लाजा, सैनिक बाजार और भी कई मॉल ।
कई पुराने सिनेमा हॉल और पेट्रोल पंप के जगहों पर मॉल और होटल बन गए हैं ।
टैक्सी स्टैंड और बस अड्डा
मैं ६० के दशक में कई बार आया । जब १९६६ में कॉलेज ट्रिप में आया तब राँची के केंद्र स्थल में था टैक्सी स्टैंड जो आज भी है (काली मंदिर - बहु बाजार और मेन रोड के चौक के पास) तब काफी बड़ा सा था टैक्सी स्टैंड क्योंकि इतनी बड़ी बड़ी दुकाने इसके आस पास जो नहीं थी । दो दुकानें जो तब देखा था और अब भी याद हैं वो हैं आज के सर्जना चौक के पास स्थित कलेवालाय और चुरुवाला क्योंकि हमने यहाँ नाश्ता जो किया था । एम्बेसडर कार शेयर टैक्सी में चलती थी रामगढ, चास, धनबाद, पुरलिया और टाटा तक के लिए मिल जाती थी और टैक्सी में इतने पैसेंजर बैठाये जाते की इसने कुछ जोक्स को जन्म दे डाला । शेयर टैक्सी और बस राँची से बाहर जाने के साधन थे जबकि रिक्शा शहर के अंदर के आने जाने के साधन थे । ऑटो रिक्शा तब राँची में नहीं चलते थे । फिरायालाल चौक और आज के सर्जना चौक के बीच एक बस स्टैंड था और पटना से आने वाली बसें आज के ओल्ड हज़ारीबाग रोड (कोकर लालपुर, प्लाजा सिनेमा) होते हुए फिरायालाल चौक पर ही रुकती थी । तब बिहार स्टेट ट्रांसपोर्ट का बस स्टैंड ओवर ब्रिज था में था या नहीं याद नहीं पर प्राइवेट बसें फिरायालाल चौक से खुला करती थी । रातू रोड में भी एक बस अड्डा था (शायद अब भी हैं) जहाँ से पलामू के लिए बस मिलती थी । शहर में लोकल बसें भी चलती थी और उसीसे हम धुर्वा गए थे HEC देखने । HEC की बात निकली है तो बता दे वहां देखे बड़ी बड़ी मशीनों से हम आश्चर्य में आ गए थे, हम अपने कॉलेज के वर्कशॉप से compare जो करने लगे थे । जो एक और बात हमे याद रह गई वो थी HEC कैंटीन में मिलने वाले दस पैसे के एक प्लेट समोसा । बस अड्डा राँची में अभी कांटा टोली के पास है और इससे पहले सैनिक बाजार वाले जगह पर भी कुछ दिनों तक था ।
Ranchi Railway Station Now and then (taken from internet)
Ranchi Main Road 1916 from internet
Ranchi main Road in 2018
राँची का रेलवे स्टेशन में भी काफी बदलाव आया हैं , मैं लिफ्ट और चलंत सीढी की बात नहीं कर रहा, पहले सिर्फ ३ प्लेटफार्म थे और सिर्फ एक फुट ओवर ब्रिज । टिकट खिड़की मिलिट्री MCO ऑफिस के पास थी । आज का एंट्री साइड हॉल या बुकिंग काउंटर तब नहीं थे । प्लेटफार्म पर AH Wheeler के बुक स्टाल के सिवा सिर्फ प्रथम श्रेणी का वेटिंग रूम हुआ करता था जो अक्सर बंद ही रहता । पार्किंग का प्रबंध ना के बराबर था और सिर्फ रिक्शा ही मिलता था बाहर जाने के लिए । ६० के दशक में ट्रेनों में २ टियर स्लीपर कोच लगने लगी थी जिसमे आप साधारण दूसरे दर्जे के टिकट से भी यात्रा कर सकते थे । नीचे के बर्थ पर लोग सीट रिज़र्व करा कर बैठते थे और ऊपर के बर्थ पर जहाँ लोग सामान रखा करते थे सोने के लिए TTE बाबू से मिन्नतें कर के लोग रिजर्व करा लेते थे । कुछ ही गाड़ियाँ चलती थी पटना हटिया एक्प्रेस, हावड़ा एक्सप्रेस और बर्दवान हटिया पैसेंजर। शायद खड़गपुर पैसेंजर भी ।
हवाई अड्डामेकॉन की नौकरी ने मुझे १९७९ के बाद से ही हवाई यात्रा के बहुत अवसर दिए - बैंगलोर या चेन्नई हो कर सालेम जाना हो या फिर विशाखापट्नम। उस ज़माने में हमेशा कोलकाता हो कर जाना पड़ता क्योंकि सिर्फ एक फ्लाइट राँची हो कर जाती थे दिल्ली - लखनऊ- पटना-राँची- कलकत्ता । पर तब एयरपोर्ट छोटा सा था एक एस्बेस्टस शीट से बना शेड जैसा जिसमे सिर्फ इंडियन एयरलाइन्स का काउंटर था । कोई भी आपको हवाई जहाज तक जा कर छोड़ सकता था, बोर्डिंग पास सिर्फ हवाई जहाज के अंदर जाने के पहले ही देखा जाता था । सीमेंट के एक चबूतरे पर आपका सामान आ जाता और एयरलाइन्स वाले सिन्हा जी पूछ पूछ कर और टैग मिला कर सामान आपको थमा देते। तब से दो बार हवाई अड्डा के टर्मिनल बने और बदले गए ।
राँची के सिनेमा घर तब और अब
पहले राँची के सिनेमा हॉल के इतिहास के बारे में कुछ बातें लिखना चाह रहा था ।
इंटरनेट में कुछ खोज निकाला वह मैं लिख रहा हूँ ।"रांची में छगनलाल सरावगी ने
पहली बार 1924 में 'रांची बायोस्कोप' की स्थापना की। कई साल बाद रांची के ऑनरेरी
मजिस्ट्रेट और बांग्ला अभिनेता कमल कृष्ण विश्वास ने बायोस्कोप को खरीद लिया और
उसका नाम रखा 'माया महल'। माया महल को भी रांची का प्रतिष्ठित व्यवसायी घराना
बुधिया परिवार ने खरीद लिया और एसएन गांगुली को लीज पर दे दिया। एसएन गांगुली ने
माया महल का नाम बदल कर रूपाश्री कर दिया। यह लंबे समय तक अपने नाम के साथ रहा।
उस समय रांची के एक और प्रतिष्ठित व्यवसायी गुल मुहम्मद ने रूपाश्री से दो कदम
आगे एक सिनेमा हॉल की स्थापना की। नाम रखा, गुल सिनेमा। इसमें भी मूक फिल्में
दिखाई जाती थीं। गुल मोहम्मद पेशावर के रहने वाले पठान थे। बाद में इस सिनेमा हॉल
को रतनलाल सूरजमल के परिवार ने खरीद लिया। इसी जगह पर सज-धजकर रतन टाकीज का 1937
में उद्घाटन हुआ। इस सिनेमा हॉल को भी एसएन गांगुली को लीज पर दे दिया गया। 1937
में जब रतन टाकीज का उद्घाटन हुआ तो सवाक फिल्में आने लगीं। इस टाकीज में पहली
फिल्म 'अछूत कन्या' दिखाई गई। जाने-माने लेखक डा. श्रवणकुमार गोस्वामी कहते हैं
कि इस फिल्म को देखने के लिए काफी संख्या में दर्शक आए थे।"
राँची में कई
सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल थे - सुजाता (2 स्क्रीन), वेलफेयर, रतन टॉकीज, राजश्री,
विष्णु, प्लाज़ा और संध्या । धीरे धीरे कुछ और सिनेमा हॉल खुले थे उपहार, वसुंधरा
और मिनाक्षी । धीरे धीरे सुजाता और प्लाजा को छोड़ कर सभी बंद हो गए और उनकी जगह
पर खुले नए मॉल या मल्टीप्लेक्स। वेलफेयर की जगह पर हैं JD Hi स्ट्रीट मॉल और
सैनिक बाजार । रतन टॉकीज की जगह पर है कोलकाता मॉल, राजश्री की जगह पर भी नयी
दुकाने हैं, विष्णु टॉकीज की जगह पर भी कुछ कंस्ट्रक्शन चल रहा हैं । संध्या
सिनेमा की जगह संध्या टावर / SRS सिनेमा बन गया है ।सुजाता और प्लाजा अभी तक चल
रहा हैं । बाकि तीन हॉल में से मिनाक्षी रेनोवेट हो रहा है । उपहार सिनेमा की जगह
पर ग्लैक्सिया मॉल / पॉपकॉर्न सिनेमा बन गया है और फिलहाल वसुंधरा हॉल बंद पड़ा है
। कई और भी नए मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल्स खुल गए हैं जैसे फन सिनेमा, ऑयलेक्स, JD
HI street मॉल (Glitz ), PVR , पॉपकॉर्न सिनेमा, पैंडोरा 7D वैगेरह
पहाड़ी मंदिर की सिढ़िया, अब ज्यादा रंगीन और सुविधाजनक
रांची के आकर्षण तब और अब
राँची में कुछ जगहें शुरू से मौजूद हैं जो यहाँ के दर्शनीय स्थान हैं जहाँ हम 80s में फिरायालाल के अलावा भी घूमने जाया करते थे जैसे पहाड़ी मंदिर, टैगोर हिल, जग्गनाथ मदिर, बड़ी तालाब, कांके डैम, हटिया डैम । ऐसे पास स्थित झरने तो हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहे हैं जिसमे हुंडरू, जोन्हा और दसम सबसे सुगम और नज़दीक हैं । लेकिन अब कई नई जगहें हैं घूमने के लिए जैसे रॉक गार्डन, मछली घर, नक्षत्र वन, विश्व स्तरीय क्रिकेट स्टेडियम, फन कैसल एंड लेक, बिरसा जू, एक्वेरियम पार्क, ऑड्रे हाउस और पतरातू वैली ।
रांची के त्यौहार
मैंने तीन शहरों के दुर्गा पूजा पर एक ब्लॉग लिखा था जिसमें एक शहर था राँची और उस ब्लॉग का लिंक नीचे दे रहा हूँ ।
राँची की दुर्गा पूजा
रांची स्टेशन पंडाल २०१४ | रांची स्टेशन पंडाल २०१३ |
राँची के त्यहारों में जिस दो त्यहारों की मैं इस ब्लॉग में वर्णन करने वाला हूँ
वो हैं दुर्गा पूजा और रथ यात्रा । ऐसे सरहुल, रामनवमी भी बड़े शान से मनाया जाता
हैं यहां । राँची में दुर्गा पूजा का मतलब होता है भव्य पंडाल । ८० के दशक में
दिन में रोड पर कार लेकर निकलना मुश्किल होता था रास्ते बहुत जगह बंद जो कर दिए
जाते थे। इसलिए पंडाल घूमने के लिए हम सुबह ४ बजे निकल पड़ते थे बस स्टैंड, स्टेशन
का पंडाल देखते हुए हम कांटाटोली होते हुए सर्कुलर रोड, कचहरी, भुतहा तालाब अपर
बाजार में कही पार्क करते थे और बकरी बाजार का पंडाल देख कार ही दम लेते थे ।
अक्सर बकरी बाजार का पंडाल सबसे भव्य और आकर्षक होता । एक बार एक औटो वाले 10-11
बजे जब पूजा की भीड़ peak पर थी ने गलियों से घुमाते रातू रोड के प्रमुख पंडाल
"RR SPORTING CLUB" के पीछे ले आया और हम लोग कई खूबसूरत पंडाल घूम पाऐ। मेकॉन
कालोनी की पुजा में काफी समय पंडाल मे गुजारते फुचका, दोसा खाते बिता देते।
दूसरा प्रमुख त्योहार जो राँची का signature त्योहार है वह है रथ यात्रा, जो
बिल्कुल पुरी के रथ यात्रा जैसे ही मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष यहां जून या
जुलाई के महीने में पुरी की तरह ही रथयात्रा का आयोजन किया जाता है।तिथि के
अनुसार आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि को प्रतिवर्ष रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया
जाता है।रांची में रथयात्रा की परंपरा 326 सालों से चली आ रही है। उन दिनों
छोटानागपुर में नागवंशी राजाओं का शासन था। राजधानी रांची के जगन्नाथपुर में बने
भगवान जगन्नाथ के भव्य मंदिर से हर साल जुन-जुलाई के महीने में रथयात्रा का आयोजन
किया जाता है। इस मंदिर का निर्माण बड़कागढ़ के महाराजा ठाकुर रामशाही के चौथे
बेटे ठाकुर ऐनीनाथ शाहदेव ने 25 दिसंबर, 1691 में कराया था। मंदिर का जो वर्तमान
स्वरूप दिखता है, वह 1991 में जीर्णोद्धार किया हुआ स्वरुप है। वर्तमान मंदिर
पुरी के जगन्नाथ मंदिर के स्थापत्य की तर्ज पर बनाया गया है। गर्भ गृह के आगे भोग
गृह है। भोग गृह के पहले गरुड़ मंदिर हैं, जहां बीच में गरुड़जी विराजमान हैं।
गरुड़ मंदिर के आगे चौकीदार मंदिर है। ये चारों मंदिर एक साथ बनाए गए थे। रथ
यात्रा जग्गनाथ मंदिर से शुरू होती है और भगवान के विग्रहों को लकड़ी के रथ पर रख
कर लोगों द्वारा रस्से से खींच कर करीब ५०० मीटर स्थित मौसी की बाड़ी तक ले जाया
जाता हैं । भगवान वह दस दिन रहते हैं और फिर घूरती रथ यात्रा होती हैं और भगवान
वापस जग्गनाथ मंदिर जाते हैं । रथ यात्रा में बहुत भीड़ होती है और बहुत सारे
स्टाल और झूले लग जाते हैं । सभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट खचा खच बड़े मिलेंगे इस दिन ।
गांव के हस्त शिल्प और जरूरी सामान एक आकर्षण की वास्तु होती हैं ।
राँची में मेरा 1978 से लेकर अब तक का सफर
राँची में पहला मकान जो मैंने किराये पर लिया था जो एक HEC कर्मी का नया बना मकान
था और एयरपोर्ट के पास स्थित होटल De Port के पीछे था। तब मेरा ऑफिस बगुरोय
बिल्डिंग, मेन रोड में था और लम्बी दूरी स्कूटर से आना जाना पड़ता था । पर शायद
महीने भर बाद ही मैंने दूसरा मकान कडरू में लिया । कडरू में वक़्त बड़ा अच्छा बीता
क्योंकि कुछ रिश्तेदार निकल आये कुछ दोस्त भी वहीं रहने आ गए । बच्चों का स्कूल
में दाखिला हो गया और छोटी बहन का भी कॉलेज में दाखिला हो गया । याद है विजय
स्कूटर पर पाँच लोग भी यात्रा कर लेते थे । बिटिया सामने खड़ी हो जाती, और छोटी
बहन और मेरी पत्नी जी बेटे को गोद में ले कर मेरे पीछे की सीट पर बैठ जाते ।
तब बोकारो के चौड़े रास्ते के सामने राँची का मैन रोड काफी सकरी लगती क्योंकि तब
रोड के बीच में डिवाइडर नहीं था और ट्रैफिक काफी अनियंत्रित सा होता था । पैडल
रिक्शा का हुजूम अड़े तिरछे चलता था, और हम स्कूटर से भी रिक्शा को ओवरटेक नहीं कर
पाते । इस स्थिति में भी मैं स्कूटर ठीक ठाक चला लेता था और कई बार मेरे दोस्त
मुझे स्कूटर चला कर मैं रोड / फिरायालाल ले जाने के लिए बुला लेते । कुछ सालों
बाद एक डिप्टी कमिश्नर साहेब आये तो उन्होंने मेन रोड में डिवाइडर बनवा दिया । तब
जा कर बेतरतीब ट्रैफिक कुछ तरतीब में आयी और स्कूटर, कार चलना सुगम हो गया । ऑटो
रिक्शा भी अब चलने लगे थे
कडरू में पानी की समस्या होने लगी तभी हमें क्वार्टर भी अलॉट हो गया और हमलोग
मेकॉन / श्यामली या एच यस ऐल कॉलोनी में आ गए । इस कॉलोनी में हम बहुत दिनों तक
रहे और मेरे पुत्री और पुत्र का विवाह भी इसी कॉलोनी में हुआ और मेकॉन कम्युनिटी
हाल हमारे बहुत काम आया ।मेकॉन कॉलोनी एक साफ सुथरी well maintained कॉलोनी है ।
इसमें है एक स्टेडियम (जहां धोनी ने क्रिकेट सीखी) और एक खूबसूरत नर्सरी पार्क
जहाँ मैं अपने बड़े नाती को रोज़ घूमने ले जाता था जब वो कुछ महीनों का था । १९८९
में मैंने एक घर बनवाया जो उस समय एक सूनी जगह थी जहाँ रोड तक नहीं बनी थी, पर अब
एक अत्यंत बिजी रोड के पास हैं । अभी हम वही रहते हैं । जब घर बन रहा था हरमु रोड
अरगोरा चौक तक था और वहा से एक खड़खड़िया रास्ता छोटी (लोहरदगा लाइन तब नैरों गेज
थी) लाईन पर बने un manned level crossing होते डिबडिह और मेकॉन कॉलनी तक जाता था
और अब जो रास्ता डीपीएस स्कूल से डिबडिह फ्लाई ओवर हो कर हरमू तक बना है और बिरसा
राज मार्ग के नाम से प्रसिद्ध है तब नहीं था, और हम मेकॉन कॉलनी से रेलवे लाईन
पार कर खेत हो कर या हिनू नदी पार कर ही अपने under construction घर तक आया जाया
करता था। हम अशोक नगर, अरगोरा डिबडिह के खड़खड़िय रास्ते से जाया करते थे पर
ज्यादा रात होने पर यह रास्ता safe नहीं माना जाता और कडरू होकर ही हम लौटते। अब
यह रास्ता रात दिन चालु रहता है और safe भी है।