बाबाधाम देवघर
देवघर पूर्वी भारत में, झारखंड के राज्य के उत्तरी भाग में स्थित एक देव नगरी हैं । यह एक प्रमुख रेल और सड़क जंक्शन और कृषि व्यापार केंद्र है। यह एक प्राचीन शहर है और भगवान शिव को समर्पित 22 मंदिरों के समूह के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ स्थापित शिव लिंग बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है । बौद्ध धर्म से जुड़े कई प्रचीन स्थान भी पास में हैं। 1596 में, गिद्धौर के राजा पूरन सिंह ने देवघर के वर्तमान मंदिर की पुनःनिर्मान करवाया था। यहाँ एक अस्पताल, तपेदिक क्लिनिक, और कोढ़ी आश्रय और कई कॉलेज (एक शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान सहित) हैं। मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने बिहार की विजय के बाद 1201 में देवघर को अपनी राजधानी बनाया था। यहाँ 1869 में एक नगरपालिका का गठन किया गया था, जो अब एक नगर निगम है 2011 में यहां की जनसँख्या निगम क्षेत्र में 203,123 थी । तीर्थयत्रियों के आने से साल में कई बार बाहर के लोगों से यहां क़ाफी चहल पहल हो जाती हैं और अस्थायी आबादी काफी बढ़ जाती है। सावन महीने में तो प्रमुख तिथियों पर एक लाख से अधिक तीर्थयात्री हर दिन यहाँ आते हैं ।
रावणेश्वर महादेव- महात्म्य
कुबेर के सौतेले भाई श्री लंका के राजा रावण ने एक बार महसूस किया कि उनकी सभी सांसारिक संपत्ति तब तक बेकार हैं जब तक कि उन्होंने कुछ ईश्वरीय चीजें हासिल नहीं कीं। उन्होंने भगवान शिव का "षोडशोपचार पूजन" शुरू किया। प्रसन्न हो कर भगवान शिव ने उन्हें कैलाश आने की अनुमति दे दी। बाद में उन्होंने कठिन तपस्या की और भगवान शिव को प्रसन्न किया। रावण ने शिव जी को लंका चलने का वरदान मांगा। भगवान ने उसे कामना ज्योतिर्लिंग को लंका ले जाने की अनुमति देने पर सहमति व्यक्त की। भगवान शिव ने केवल एक ही शर्त रखी कि लिंग उसी स्थान पर स्थापित हो जायेगा जहां वह उसे नीचे रखेगा। यह महसूस करते हुए कि रावण अजेय हो जाएगा यदि वह शिव लिंग को लंका ले जा सका, देवी पार्वती ने रावण को शिवलिंग को छूने से पहले स्नान करने और आचमन करने के लिए कहा। नहाने के क्रम में गंगा, जमुना आदि नदियों में रावण के पेट में प्रवेश कर गईं। इस बीच चरवाहे बैजू की वेष में भगवान विष्णु रास्ते में उसका इंतजार करने लगे। रावण को पेशाब करने की भयानक इच्छा हुई आखिर उनके अंदर तो नदियों का प्रवेश हो चूका था , लेकिन वह शिव लिंग को नीचे रखना नहीं चाहता था, क्योंकि शिव जी के शर्त के अनुसार लिंग उसी स्थान पर स्थापित हो जाएगा। बैजू को देखकर, रावण ने उसे लिंग उसे थोड़ी देर संभाले रखने के लिए कहा और पेशाब करने चला गया। उसने पेशाब करने के लिए बहुत लंबा समय लिया और बैजू ने धैर्य खोने के बाद शिव लिंग को नीचे रख दिया। भगवान शिव की शर्तों के अनुसार ज्योतिर्लिंग उसी स्थान पर स्थापित हो गया और इसीलिए इसके नाम - बैजनाथ धाम, बैद्यनाथ धाम या रावणेश्वर महादेव पड़ गया। यद्यपि रावण शिव लिंग को लंका नहीं ले जा सका, लेकिन उसने सभी महत्वपूर्ण नदियों के पवित्र जल से चंद्रकूप नामक एक कुएं को भर दिया। यह भी कहा जाता है कि रावण पहला कांवरिया था जिसने हरिद्वार से कांवर ला कर भगवान की पूजा की थी। रावण ने जहाँ मुत्र त्याग किया वहाँ एक तालाब बन गया था और क्योंकि यह वास्तव में गंगा का जल ही था इसे शिवगंगा नाम दिया गया।
मुख्य मंदिर में स्थित शक्ति पीठ को हृदय पीठ कहा जाता है। देवी सती के पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान शिव उनके शव को दुख और शोक में ले कर जा रहे थे तब देवी का हृदय यहीं गिरा । यहां देवी की पूजा करने से आपके दिल की सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं ऐसी मान्यता है।
देवी सती का दाह संस्कार भी यहीं हुआ और इस जगह को इस कारण चिता भूमि भी कहते है।
कांवर यात्रा
इस यात्रा को बोल-बम यात्रा के नाम से भी जाना जाता है, इस यात्रा में कांवड़िए पैदल नंगे पांव यात्रा करते हैं, वे स्वयं के नाम का उपयोग भी नहीं करते हैं सभी भगवा रंग के एक जैसा वस्त्र पहनते है, ताकि आर्थिक या जातिगत अंतर यात्रियों में नहीं दिखे । हर एक एक दूसरे को बम के कह कर ही बुलाते । इससे आप अपनी सांसारिक पहचान को भूल जाते हैं। सभी उम्र, लिंग, और यहां तक कि विकलांग भी शिव के प्रति पूर्ण विश्वास के साथ इस कठिन यात्रा में चलते है, शिव को बाबा कह कर बुलाया जाता है और कांवड़ियों को बम। सभी कावड़िया गंगा जल सुल्तान गंज (बिहार राज्य-भारत) से भरते है जहां गंगा उत्तर दिशा की और बहती है । गंगाजी के बीच में एक द्वीप में स्थित शिवधाम अजगैबीनाथ में पूजा के साथ यात्रा शुरू होती है और बाबाधाम, देवघर या बैद्यनाथधाम पर समाप्त होता है। शिव कृपा से मैं चार बार सफलता पुर्वक इस यात्रा पर गया हूँ और चारों बार अपने बहनोई संतोष बम के साथ गया जो एक अनुभवी कांवड़िया है। एक बार मेरी पत्नी भी साथ गई थी। हाँ मेरा पहला प्रयास असफल रहा था, जब मै अकेले गया था और अनुभवहीनता के कारण दोपहर की धूप में गर्म सड़क पर ही निकल पड़ा था। दस कि०मि० चलने के बाद ही पैर में कष्टकर छाले निकल आए थे। जिससे मैने पानी निकालवा कर पट्टी तो करवा तो ली थी पर जब रोड को छोड़ कच्चे रास्ते पर चलने की बारी आई तो मैने जल को एक शिवालय में चढ़ा कर बस पकड़ना ही उचित समझा। यदि आप एक ग्रुप में हो तो ऐसी हालत में अन्य सदस्य आपकी हिम्मत बढ़ाते है और आप यात्रा पूरी कर पाते है। अपने तीसरी यात्रा में हमारे एक ग्रुप सदस्य जो थे तो अनुभवी पर औरों से काफी तेज चल रहे थे और पैरों में छाले पड़ गए, पर ग्रुप में थे और उन्होंनें भी यात्रा सफल रही। ग्रुप ने उनके साथ चलने के लिए गति कम जो कर दी और हिम्मत भी बढ़़ाई। मैं हर यात्रा में जाने से पहले १५ से २० दिनों नंगे पांव चलने की प्रैक्टिस कर लेता था । एक बात जो हमने सीखी वह था कभी अपने पर घमंड न करे सबसे पहले मैं पहुँचूगा ऐसी बातें मन में नहीं आने दे ।
डाक कांवड़
डाक बम को जल लेकर २४ घंटे में मंदिर पहुंचना होता है । सुल्तानगंज में टिकट देते है । उजला ड्रेस पहनते है । जल को एक पॉकेटनुमा पट्टी में डाल कर पेट पर बांध लेते है । रास्ते में किसी बात के लिए रुकना नहीं है । खाने के लिए भी नहीं । पानी पी सकते है वो भी चलते चलते । रास्ते में दुकान वाले पानी के गिलास के साथ किसी लड़के को डाक बम के साथ दौड़ा देते है जिससे डाक बम चलते चलते पानी पी लेते है ।
कैसे पहुंचे ?
बिहार में स्थित सुल्तानगंज पूर्वी रेलवे के साहिबगंज लूप लाइन का एक स्टेशन है । यहाँ गंगा उत्तर दिशा में बहती है । उत्तर वहिनी गंगा का जल उत्तम माना गया है और देवघर के सबसे नजदीक इसी जगह में गंगा उत्तर वाहिनी हैं। बीच गंगा जी में एक छोटे द्वीप पर अजगैबीनाथ महदेव का मंदिर भी है। हम ट्रेन से गए थे किउल जंकशन से भागलपूर की ओर जाने वाली ट्रेन सुल्तानगंज हो कर हो जाती हैं और हम किउल गए और अपने ग्रुप के बम लोगों के साथ (जो मिथिला क्षेत्र के मधुबनी से आ रहे थे) सामिल हो गए । रोड से भी आप सुल्तानगंज जा सकते है मुंगेर, भागलपुर या लखीसराय हो कर । रास्ते का एक मानचित्र यहा दे रहा हूँ ।
कांवड़ यात्रा का रुट
सुल्तानगंज से कमराई ............................ 7.5 km
कमराई से मासूमगंज ……………………… 1.7 km
मासूमगंज .से असरगंज …………………… 4.2 km
असरगंज से तारापुर ………………………… 6.8 km
तारापुर से बिहमा …………………………… 2.2 km
बिहमा से मानिआ (रामपुर हो कर) धर्मशाला ....6.8 km
मानिया धर्मशाला से कुमरसार नदी ...........….... 6 km
कुमरसार से मधुकरपुर………….………........... 5 km
मधुकरपुर से शिवलोक ……….....………….. 1.5 km
शिवलोक से चंदननगर ................................. 2.4 km
चंदननगर से जिलेबीया मोर ...............................2 km
जिलेबीया मोर से सुइया ....……….….………... 9 km
सुइया से अबरखा धर्मशाला …......…….….…..6.7 km
अबरखा धर्मशाला से कटोरिया ….….………...7.4 km
कटोरिया से इनारावरण …….……………...... 9.5 km
इनारावरण से गोरयारी धर्मशाला.. ...................7.2 km
गोरयारी धर्मशाला से पटनिया धर्मशला…………. 5 km
पटनिया धर्मशाला से कलकतिया धर्मशाला…...… 3 km
कलकतिया धर्मशाला से भूतबंगला ………..…….5 km
भूतबंगलासे दर्शनिया .धर्मशाला…………………1 km
दर्शनिया धर्मशाला से बाबा बैद्यनाथ मंदिर …….... 1 km
यात्रा पर कब जाएँ
कांवड़ यात्रा में यूं तो पूरे साल लोग जाते हैं । मेरे बाबा जी मामू तो अक्टूबर में जाना पसंद करतें थे, पर वो सारा राशन साथ ले जाते और रास्तें में अपना खाना खुद बनाते । यात्रा पर जाने का सही समय हैं सावन का महीना । जहाँ और महीनों में रास्ता एक दम सूना रहता है एक्का दुक्का कांवरियें ही जाते हैं कोई दुकान भी नहीं सजती वहीं सावन में सबसे जयादा लोग जाते है । खाने पीने की दुकानें भी सज जाती, समाजिक संस्थाओं के तम्बू मुफ्त सहायत के लिए लग जाते है। सरकार की और से भी कई इंतजाम किये जाते हैं जैसे रास्तें पर बालू मिटटी डाल देना, उपचार केंद्र लगाना वैगेरह । पर सावन में भीड़ ज्यादा होने से मंदिर में जल चढ़ाने में काफी दिक्कत होती हैं । मैंने ज्यादा बार सावन शुरू होने के पहले या तुरंत बाद यात्रा की हैं । इससे रास्तें भी सूना नहीं रहती और कुछ कुछ दुकानें भी सज जाती हैं और मंदिर में भी भीड़ की दिक्कत नहीं होती है।
कैसा कांवड़ ख़रीदे
सुल्तान गंज पहुँचने के बाद सबसे पहला काम कांवड़ खरीदने का होता हैं । कावंडिए तरह तरह से कांवड़ सजाते है । लेकिन कांवड़ मोटी तोर पर दो तरह के होते हैं पहला बहँगी वाला कांवड़ जिसमे एक पतले बांस के फट्टे के दोनों ऒर रस्सी से बने बहँगी तराजू के तरह लटके होते जिस पर गंगा जल से भरे पात्र रख कर यात्रा की जाती हैं। इस तरह का कांवड़ सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं । ये हलके होते हैं और चलने पर लचकते जाते है । दूसरे तरह का कांवड़ को तिरहुतिया कांवड़ कहते है । उत्तर बिहार (तिरहुत क्षेत्र) के कांवरियों में यह ज्यादा लोकप्रिय हैं । इसमें एक पूरे गोल बांस के दोनों ओर बांस से बने बंद टोकरी लगे होते है जिसमें गंगा जल पात्र मिटटी से अच्छी तरह बंद कर रखे जाते हैं । मेरे साथी मिथिला क्षेत्र से थे और तिरहुतिया कांवड़ की खूबियों से वाकिफ थे । एक नज़र में यह कांवड़ भारी लगता है पर इसके फायदे इसे हलके बना देते हैं । बहँगी वाले कांवड़ के बांस पतले होते हैं और कंधे पर इसका बोझ एक ही जगह पड़ता हैं और कंधे छिलने लगते हैं जबकि तिरहुतिया कांवड़ का बोझ मोटे बांस के कारण कंधे पर बोझ एक ही जगह के बजाय बँट जाता है और कंधे नहीं छिलते।
बहँगी वाला कांवड़ | तिरहुतिया कांवड़ |
अपने लाए सामान प्लास्टिक शीट कपडे वैगेरह तिरहुतिया कांवड़ में बांस के टोकरी के ऊपर बांध लिया जाता है जबकि बहँगी कांवड़ के साथ सारे ऐसे सामान आपको अलग से ढोना पड़ता है और कहीं छूट जाने की सम्भावन भी बनी रहती हैं । एक और खूबी हैं की क्योंकि तिरहुतिया कांवड़ में बांस का स्टैंड टोकरियों के नीचे लगे होते हैं आप इसे जमीन पर भी रख सकते हैं और जगह जगह लगे कांवड़ स्टैंड पर रखने का बन्धन नहीं रहता। कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमने तिरहुतिया कांवड़ ही ख़रीदा । इसमें बस एक ही कमी हैं कि इस कांवड़ को जोड़ने में दुकान वाले कुछ समय लगाते हैं ।
साथ में क्या ले जाये
आपको यथासंभव हल्की यात्रा करनी होगी और रास्ते में होने वाली किसी भी बारिश के लिए तैयार रहना होगा। भगवा रंग की पोशाक 2, 2-पतले तौलिये या गमछा । लगभग 2 मीटर लंबा प्लास्टिक शीट जिसे बिछा कर सोने या बारिश से बचने या सामानों को भींगने से बचाने के लिए उपयोग में लाते है, और एक टॉर्च सबसे अच्छा रहेगा। कहना न होगा कि रास्ते के खर्च भी रखना होता है । सावन के दौरान पूरा रास्ता खाने-पीने का सामान बेचने वाली दुकानों से खचाखच भरा रहता है । दिन में हल्का खाना और रात में पूरा खाना खाना बेहतर होता है। रात्रि विश्राम के लिए धर्मशालाएँ हैं या फिर दुकानदार रात्रि विश्राम के लिए कुछ पैसे ले कर एक चौकी या लकड़ी का बिस्तर उपलब्ध करा देते है।
कांवड़ के रास्ते के नियम
पवित्र गंगा जल उत्तर की ओर बहने वाली गंगा से जैसे सुल्तानगंज से ही भरें । आप रास्ते में खा सकते हैं लेकिन कांवड़ उठाने से पहले हाथ धो लें और गंगाजल (इस उद्देश्य के लिए एक छोटे बर्तन में अलग से रखा हुआ) को अपने शरीर पर छिड़कें। कांवड़ को एक कंधे से दूसरे कंधे पर आगे से नहीं बल्कि अपने पीछे घुमाएं। कांवड़ को जमीन पर नहीं रास्ते में जगह जगह बने कांवड़ स्टैंड पर रखें। तिरहुतिया कांवड़ नीचे साफ जगह पर रख सकते हैं । हमेशा कांवड़ से नीचे के स्तर पर बैठें। कांवड़ के पास धूम्रपान, पेशाब या शौच न करें। अगर लघु विश्राम के लिए रुकने कि जगह पर आपको झपकी आ गयी हो या शौच गए हों या अपने भात (उबले चावल ) खाया हो तो कांवड़ को छूने से पहले नहा लें।रात में सोने के पहले कावड़ की आरती भी की जाती हैं ।
उपयोगी सलाह
1. हल्का वजन ले कर चले, प्लास्टिक और टॉर्च ले जाएं।
2. छाया में चलें और सड़क के पक्के हिस्से से बचें।
3. एक निश्चित दूरी पर चलने की योजना इस तरह से बनाएं कि रात्रि विश्राम के लिए धर्मशालाओं पर ग्रुप के सारे सदस्य एक साथ पहुंचें
4.महत्वपूर्ण धर्मशालाएँ हैं - तारापुर, मनिया - (रामपुर), कुमारसर, दलसिंह-सराय, कावँरिया, इनारावरन, गोरीयारी, पटनिया, कलकतिया । दुकानों में भी चौकी का इंतजाम रहता है जहां रात बिताई जा सके ।
5. अपनी क्षमता के अनुसार चलें जैसे कि दिन में 20-30 किमी और अपने शरीर की क्षमता से अधिक न चलें। समूह में चलें और समूह के सदस्यों का ध्यान रखें और उन्हें अकेला न छोड़ें।
6. सामाजिक संगठन के टेंट और दी जाने वाली सेवाओं का उपयोग करें जैसे थके हुए पैरों के लिए गर्म पानी, मुफ्त चाय, नाश्ता, दवा आदि।रास्ते में ज्यादा पानी पिए और हल्का खाएं जैसे चूड़ा, दही।
देवघर / बाबाधाम में
कृपया अहंकार को अपने ऊपर हावी न होने दें। यह बाबा की कृपा है कि आप यात्रा कर सके ।शिवगंगा में स्नान कर मंदिर में प्रवेश करे । आप सीधा जल चढ़ाने मंदिर के अंदर जा सकते है या अपने पांडा द्वारा कराये पूजा के बाद । कई पांडा जी ठहरने जगह भी देते है । आपको भगवान शिव को "जल" चढ़ाने के लिए कतार में लगना होगा। भीड़ से बचने के लिए आप सोमवार या पूर्णिमा आदि के दिन बाबाधाम पहुँचने से बच सकते हैं। आप जल चढ़ाने के बाद देवघर में खोवा पेड़ा और अन्य सामान खरीद सकते हैं पर मैं बताऊ दावे से कह सकता हूँ कि आप सबसे पहले जूते / चप्पल ही खरीदेंगे !
देवघर / बाबाधाम में कहाँ रुके
ज्यादा तर लोग देवघर से कुछ ही दूरी पर स्थित बासुकीनाथ तक जल चढाने भी जाते है और कुछ लोग बंगाल में स्थित सिद्ध तारा पीठ तक भी जाते हैं । कभी कभी ट्रैन या बस को अगले दिन ही पकड़ना संभव होता हैं या देवघर में स्थित अन्य दर्शनीय स्थलों की घूमने का प्रोग्राम बन जाता हैं । ऐसी अवस्था में रात में रुकने की भी आवश्यकता होती हैं । देवघर शहर/ बस अड्डे और जसीडीह रेलवे स्टेशन के पास कई बजट होटल हैं । लक्ज़री होटल भी हैं यहाँ। धर्मशालाएं भी अनगिनत हैं । पहले इतने होटल नहीं थे तो लोग इन्हीं धर्मशालों में या पंडा जी के निवास या हवेली में रुक जाते थे । पहले की अपेक्षा पंडा जी भी अब अपने जजमानों के लिए आरामदेह रूम का प्रबंध रखते हैं जिसमे बाथरूम भी होता हैं । होटल के बारे में जानकारी ऑनलाइन मिल जाएगी पर क्यूंकि कब देवघर पहुंचेंगे या कब जल चढ़ेगा निश्चित नहीं होता होटल बुक कर आना संभव नहीं होता । देवघर से ट्रैन या रोड से घर लौटना संभव हैं । देवघर रेलवे स्टेशन दुमका और जसीडीह के बीच में स्थित हैं । जसीडीह पूर्व रेलवे का प्रमुख जक्शन हैं और हावड़ा - पटना लाइन में स्थित हैं ।
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