मेरे वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक दिनों में पत्नी जी ने नेपाल के जीवन, तीज त्योहारों के बारे में कई बातें बताई थी। उनमें कई रस्मों रिवाज बाद में हमारे परिवार का के रीति रिवाजों में भी शामिल हो गई जैसे किसीके घर से जाते समय पूजा घर में टीका लगाना और उनके हाथ में कुछ फल और कुछ पैसे रखना। दरवाजे पर पानी भरा कलश रखना और निकलते समय उसमें पैसा डालना। दशहरा यानि दसई के दिन बड़े लोगों द्वारा छोटों को टीका लगाना और पैसे देना। इत्यादि।
हरतालिका तीज भी नेपाल में धूम धाम से मनाया जाता है। उसमे एक प्रथा दर खाने की है। हिंदू महिलाओं के महान त्योहार तीज के पहले दिन को दर खाना दिवस कहा जाता है। सनातन हिंदू धर्म की नेपाली महिलाएं इस दिन से विशेष तैयारियों के साथ तीज मनाना शुरू कर देती हैं।विवाहित महिलाएँ अपने पति की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती हैं और अविवाहित महिलाएँ सुयोग्य पति की कामना करती हैं और कल के व्रत के उद्देश्य से इस दिन घर पर दूध से बनी मिठाइयाँ बनाकर खाने की प्रथा है। आजकल कई महिलाएं एक जगह इकट्ठा होकर एक पार्टी जैसा करती , आज इनके यहां कल उनके यहां।
दिवाली के पांच दिवसीय पर्व को नेपाल में तिहार यानि त्यौहार कहते है। इस दिन एक प्रथा होती है लड़किया और लड़के ग्रुप में घर घर भैलो और देउसी गा कर नाच कर लोगो को आशीर्वाद देने की। घर वाले बदले में फल, मिठाइयां और पैसे देकर विदा करते है। आज मेरा ब्लॉग इसी प्रथा के बारे में बताने का है।
भैलो और देउसी
नेपाल के पारंपरिक लोक गीत हैं जो नेपाल में तिहाड़ त्योहार के साथ-साथ दार्जिलिंग पहाड़ियों, सिक्किम, असम और भारत के कुछ अन्य हिस्सों में गोरखाली प्रवासी लोगों के बीच गाए जाते हैं। बच्चों के साथ-साथ वयस्क भी गीत गाकर और नृत्य करके देउसी/भैलो का प्रदर्शन करते हैं और अपने समुदाय के विभिन्न घरों में जाते हैं, धन, मिठाइयाँ और भोजन इकट्ठा करते हैं और समृद्धि के लिए आशीर्वाद देते हैं।
भैलो आम तौर पर लक्ष्मी पूजा की रात को लड़कियों और महिलाओं द्वारा किया जाता है जबकि देउसी अगली रात को लड़कों और पुरुषों द्वारा किया जाता है। भैलो करने वाली लड़कियों को भैलिनी कहा जाता है और देउसी करने वाले लड़कों को देउसी कहा जाता है। इन गीतों के अंत में घर का मालिक भोजन परोसता है और देउसी/भैलो गायकों और नर्तकियों को पैसे देता है। बदले में, देउसी/भैलो टीम सौभाग्य और समृद्धि का आशीर्वाद देती है।
इस प्रथा के मुख्यतः तीन कहानियां प्रचलित है जो जगह और जाति समूहों के अनुसार मानी जाती है।
पहले कहानी वामन और दानव राजा बलि के कथा से प्रेरित है । हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद के पौत्र थे राजा बालि । तीनों लोक के स्वामी राजा बलि बहुत पराक्रमी थे और प्रजा वत्सल भी। उन्होंने अपने पराक्रम से तीनो लोक को जीत लिया। तब इंद्र के प्रर्थना और देवों को देवलोक वापस दिलाने के लिए श्री विष्णु ५२ अंगुल के बौने वामन का रूप धर राजा बलि ९९ वें यज्ञ में पहुचें। इस यज्ञ के बाद बलि का इंद्र होना निश्चित था। वामन ने दानवीर बलि से तीन पग धरती के दान की कामना की। वामन के छोटे पैरों को देख तीन पग धरती का दान बलि को अपने यश के अनुरूप नहीं लगा और उन्होंने बहुत सारी गाएं और धरती के साथ धन का दान का प्रस्ताव रखा पर वामन ब्राह्मण अपनी तीन पग वाली बात पर अडिग रहे। बलि ने गंगा जल हाथ में लेकर तीन पग धरती दान कर दिए। तब श्री विष्णु अपने विशाल रूप में प्रकट हुए और दो पग में स्वर्ग और धरती दोनों नाप लिए। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सर प्रस्तुत कर दिया। विष्णु ने उसे सदा के लिए उसे पाताल भेज दिया जहां वह अब भी राज करता है। बलि सात चिरंजीवियों में से एक है। विष्णु ने बलि को वर्ष में एक बार अपने राज्य की प्रिय प्रजा के बीच वापस धरती पर आने का वरदान दिया। राजा बलि पांच दिनों के लिए अपनी प्रिय प्रजा के बीच हर साल वापस आते हैं। इन पांच दिनों को ही यमपञ्चक या तिहार कहा जाता है।
तब लोगों ने महाबली की उदारता के सम्मान में देउसी प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि देउसीरे शब्द की उत्पत्ति नेपाली भाषा में देउ और सर शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है 'देना' और सिर। यानि सर देना , भैलो में भी एक पद्य राजा बलि का उल्लेख करता है। जो ऐसे है।
हरियो गोबरले लिपेको, लक्ष्मी पूजा गरेको
हे! औंसीको बारो, गाई तिहारो भैलो
हामी त्यसै आएनौँ, बलि राजाले पठा'को
हे! औंसीको बारो, गाई तिहारो भैलो
अन्य दो कहानियां जुमला जिले और पाल्पा के मगर जाति में ज्यादा प्रसिद्द है और राजा बलि की कहानी से ही प्रेरित है। बांकी कथाये फिर कभी !
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