Sunday, October 3, 2021

बैठे ठाले -२


मेरे एक पाठक ने पूछा हैं "कहाँ गायब है ?" लोग miss करते हैं जान कर अच्छा लगा । अभी दो दिन पहले हमारा प्रिय स्वर्णिम आवाज़ अमीन सायानी साहेब सदा के लिए चुप हो गए । उनकी अंदाज़ में कहूँ तो "बहनो और भाइयों" मैंने इंजीनियरिंग पर एक किताब लिखना शुरू किया और मैंने अब जाना कि कितना मुश्किल काम है ये । मैंने बेसिक से हर बात जानने कि कोशिश करता हूँ और मैं तो स्कूल लेवल का मैथमेटिक्स एकदम भूल ही गया हूँ । बच्चों कि पुरानी किताबें लेकर पढ़ रहा हूँ । एक दो किताबे अमेज़न पर आर्डर भी कर दिया हैं । उसमे से एक आ भी गयी है और मैं समझने की कोशिश कर रहा हूँ । जो बाते छात्र जीवन में आसान लगती थी वह अब कठिन लगती हैं । कुछ नए नए सवाल भी उठने लगे है । खैर इन सबों के बीच मैं कुछ पुराने गीत और कविताएं दुहराना चाहते हूँ । सबसे पहले एक हास्य कविता लिख रहा हूँ जो स्कूल के दिनों में पढ़ी थी । किसकी लिखी हैं । पर मज़ा ज़रूर आएगा ।

जुड़ा परिवर्तन
पुरुषों के मन का परिवर्तन
नारी के तन का परिवर्तन
गली गली में घूम रहा हैं
यह खोया खोया परिवर्तन ।
कहाँ गई वो?
कहाँ गई वो ?
पड़ी पीठ पर लहराती बलखाती चोटी
कवियों के रुई से दिल में
आग लगाने वाली चोटी
साढ़े पांच फुटी युवती के पीछे
छह फुट वाली चोटी
दईया दईया
ए कलयुग के श्याम कन्हैया
तूने कैसा जादू मारा
रीढ़ बनी कश्मीर चीर कर
चोटी एक हुआ बंटवारा
एक पीठ पर दो दो नागिन
लेती ज़हर भरी अंगराई
दोनों के है डंक एक से
एक सरीखी चाल
बहन दोनों माँ जाई ।
परिवर्तन जूड़ा परिवर्तन
दोनों चोटी गायब
पीठ हैं एकदम खाली
बालों में गणतंत्र समाया
जनता मिल कर एक हुई अब सर के पीछे
जूड़ा कहलाया
जूड़े के दस भेद भेद के भेद अनेकों ।
दलबंदी हो गयी दशा अब सिर की देखो ।
चील घोसला बैया का घर ।
मक्खी छत्ता रूसी छप्पड़ ।
अंक आठ का डबल आठ का
हुक्का टाइप मुक्का टाइप
फ्रेंच रोल अर्थात परस्पर गुथ्थम गुथ्था
सर के पीछे उग आया हो जैसे कुकरमत्ता
पोनीटेल अर्थात पूंछ टट्टू की
युवती के मन भाई
फिर फैशन की आंधी आई
घूंघर वाले बाल हो गए छोटे छोटे
ऐसी बड़ी एकता आई
नहीं बता सकता हैं कोई
शीश देख कर कौन मर्द हैं कौन लुगाई
परिवर्तन अद्भुत परिवर्तन
पश्चिम की कैंची ने
पूरब के बालों का कर डाला कर्तन
कटा बन नई सभ्यता का ये नक्शा पास हो गया
चली पश्चिमी हवा देश में सर का सत्यानाश हो गया
बालों का यह हाल देख बूढ़े कवि रोये
अब न घिरेगी गालों पे लट
कमल नयन को भौरे कैसे छू पाएंगे
काले बांसों के झुरमुट में
खंजन कहाँ खेल पाएंगे
घटा कहाँ घुमड़ेगी
बिजली चमकेगी बालों के बल में
कहाँ छुपेगा चाँद डेढ़ इंची बादल में

अब इसके उलट एक और कविता या नज़्म पेश करता हूँ जो फैज़ अहमद फैज़ ने लिखी है ।
"ये गलियों के आवारा बदनाम कुत्ते
के सौपा गया जिनको ज़ौके गदाई
जहां भर का फटकार सरमाया इनका
जहां भर कि दुत्कार इनकी कमाई
न राहत हैं शब को न चैन सबेरे
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे

ये हर एक कि ठोंकरे खाने वाले
ये फांकों से उकता के मर जाने वाले
ये चाहें तो दुनिया को ज़न्नत बना दे
ये चाहें तो आकाओं के हड्डिया तक चबा ले
कोई इनको अहसास ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

ये‌ कविता वामपंथियों कि आवाज़ बनी । क्रिएटिविटी का ऐसा महत्त्व हैं कि राजकपूर कि आवारा रूस में और आमिर खान कि "दंगल" चीन में बहुत पसंद कि गयी ।

Bollywood Trivia

आज एक गाना सुन रहा था "तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा, तेरे सामने मेरा हाल है। तेरी इक निगाह की बात है मेरी ज़िंदगी का सवाल है।... मेरे दिल जिगर में समा भी जा, रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला । के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जांमुझे ज़िंदगी भी मुहाल है ।" नूतन के साथ एक ऐसे हीरो देखा जिसे शायद पहले कभी न देखा था । गूगल किया तो पता चला यह फिल्म १९५८ की थी " आखिरी दांव " और हीरो का नाम था शेखर । गीत अच्छा था तो लिरिक्स दे रहा हूँ ।

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा
तेरे सामने मेरा हाल है
तेरी इक निगाह की बात है
मेरी ज़िंदगी का सवाल है

मेरी हर ख़ुशी तेरे दम से है
मेरी ज़िंदगी तेरे ग़म से है
तेरे दर्द से रहे बेख़बर
मेरे दिल की कब ये मज़ाल है

तेरे हुस्न पर है मेरी नज़र
मुझे सुबह शाम की क्या ख़बर
मेरी शाम है तेरी जुस्तजू
मेरी सुबह तेरा ख़याल है

मेरे दिल जिगर में समा भी जा
रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला
के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जां
मुझे ज़िंदगी भी मुहाल है

शेखर जी के बारे में दो शब्द

शेखर 50 's के हिंदी फिल्म अभिनेता थे । शेखर - नलिनी जयवंतआंखें (1950) में शेखर को नलिनी जयवंत के साथ पेश किया गया था। उनके नाम की अन्य फिल्मों में आस (1953), हमदर्द (1953), नया घर (1953), आखिरी दाव (१९५८), बैंक प्रबंधक (1959) आदि शामिल हैं।

एक अभिनेता के रूप में शेखर का करियर अचानक छोटा हो गया, क्योंकि उन्होंने फिल्म निर्माता बनने का फैसला किया। उन्होंने छोटे बाबू (1957, आखिरी दाव (1958) और बैंक मैनेजर (1959) का निर्माण किया।

बाद में, उन्होंने फणी मजूमदार के साथ निर्देशक और एन. दत्ता के साथ संगीत निर्देशक के रूप में एक फिल्म 'प्यास' शुरू की। बीना राय को उनके अपोजिट हीरोइन के तौर पर साइन किया गया था। इस फिल्म के लिए वित्त की व्यवस्था करने के लिए, उन्होंने सी ग्रेड फिल्मों को स्वीकार किया, जैसे दिल्ली का दादा शेख मुख्तार और हम मतवाले नौजवान, दोनों 1962 फिल्में। शेखर ने बड़ी मुश्किल से फिल्म को पूरा किया। फिल्म अंततः 1968 में एक नए शीर्षक 'अपना घर अपनी कहानी' के साथ रिलीज हुई। जैसा कि अनुमान था, फिल्म ने दर्शकों को आकर्षित नहीं किया। आर्थिक रूप से बर्बाद, शेखर कनाडा चले गए और बहुत समय पहले वहीं समाप्त हो गए।

बैठे ठाले में आज बस इतना ही ।

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