Wednesday, August 18, 2021

सुबह की दैनिक पदयात्रा-2

कुछ दिन पहले मैंने मॉर्निंग वाक पर एक ब्लॉग लिखा था । उसमें मैंने अपने कुछ विचार रखे थे जिसमें कुछ शिकायत कुछ नेगेटिव बातें थी । मैंने फिर सोचा की क्या सभी कुछ बुरा ही हैं की कुछ अच्छी चीज़े भी दिखती हैं सुबह सुबह तो कई बातें और दृश्य मेरे सामने आ गए जो बहुत सुन्दर और अच्छे हैं । आज फिर लिखूंगा इन सब बातों के बारे में ।

सबसे पहले जब मैं निकालता हूँ तो हमारे मोहल्ले की गली खाली खाली मिलती हैं । पर हमारे कॉलोनी के शिव मंदिर में कुछ लोग मत्था टेकते मिल जाते हैं या मंदिर में भक्ति भाव से सफाई कर रही एक भक्त । मैं भी झुक कर प्रणाम करता हूँ और बाबा का आशीर्वाद लेने की कोशिश करता हूँ । मन में एक शांति और शुकून के अनुभव सुबह सुबह हो जाता हैं । कोरोना के पहले वेव के समय पुत्र के यहाँ ग्रेटर नॉएडा में था और इसी काल में हमारे सोसाइटी के मंदिर का उद्घाटन हुआ ।

बहुत भव्य सुन्दर राधा कृष्ण मंदिर, जिसमे सभी देवी देवताओं की सुन्दर सजी प्रतिमाएं स्थापित हैं । वहां सुबह मास्क पहन कर ही टहल आता था और इस मंदिर के एक दर्शन अवश्य कर लेता था । यदि मेरी पोती तनु साथ होती तो खींच कर ले जाती । यहाँ रांची में मंदिर से आगे बढ़ते ही सबसे पहले दुकान खोलने वाले बर्मन दादा मिलते हैं और नज़र मिलने पर गुड मॉर्निंग अवश्य करते हैं ।

आगे जा कर मै अक्सर बायें मुड़ता हूँ और मिठाई दुकान से आगे बढ़ते ही वो मिलता है। फटेहाल एक बड़ा सा बोरा कंधे पर ऊठाए यह कूड़े में क्या ढ़ूढ़ रह है ? अक्सर ऐसे लोगों को देख कर हम नज़र अंदाज कर देंतें है।

नहीं यह कोई भिखारी नही, न हीं यह कूड़े से बचा-खुचा खाना खोज रहा है पर कई कुुत्ते इसे competetor समझ भूंक भी रहे होते है जिसके वह बचे जूठे खाने का सामान फेंक कर शांत कर देता है और वही कुत्ते पूंछ हिला कर आभार प्रकट करने लगते है। पर ये क्या कर रहा है? मेरा जवाब है यह हम पर उपकार कर रहा है। प्लास्टिक waste, बोतले इकठ्ठा कर उसके recycling process का ये आदमी एक अहम हिस्सा है। कॉरपोरेशन ने हरे नीले डब्बे (waste bins) हर जगह लगा रखा है तांकि recycle होने वाला कचरा अलग हो सके। पर सच्चाई यह है कि ऐसा होता नहीं है। समाज के सबसे नीचे तबके का ये शख्श हमारे वातावरण को बचाने में बहुत बड़ा योगदान कर हम पर उपकार ही तो कर रहा है। एसी जगहों पर जाकर फेकीं बोतले यह उंठा लाता है जहाँ हमारे बच्चे महंगे बॉल चले जाने पर भी न जाय। अभी जब बहुत ज्यादा वर्षा हो रही है ये आदमी नालियों को clogg करने वाले प्लास्टिक बोतलों को निकाल रहा है। इन्हे मेरा सलाम !
इसी तरह कभी कभी दो आदिवासी महिलाये ढाकेश्वरी रेस्टोरेंट के चूल्हे के राख से जलने लायक कोयला ढूंढ निकलते मिल जाते हैं । मैंने पाया हैं हमारे आदिवासी भाई बहन लोग कुछ भी बर्बाद नहीं होने देते । बिजली वाले ओवरहेड लाइन से सटे बृक्षों की काट छांट कर कटी डाली पत्ते को यु ही छोड़ कर चले गए तो ये हो लोग कुछ हद तक उसका इस्तेमाल कर लेते है और रोड की सफाई हो जाती वह अलग ।

सुबह सुबह कोयला सायकल पर लाने वाले बहुत सारे मिलते है। कहते है ये चोरी का कोयला ला कर शहरों में बेचते है। ज्यादातर बंद पड़े खदानों से जान जोखिम में डाल कर लाया होता है यह कोयला। आखिर क्या मजबूरी है जो ये लोग ऐसा काम करते है और सोचिये २०-२२ बोरे यानि करीब ८००-९०० किलो तक कोयला लेकर चलते हैं । इसके लिए सायकल को थोड़ा मॉडिफाई कर लेते हैं । कोयला सायकल पर लेकर 40-70 किलोमीटर चढाई वाले रास्ते में लेकर आना और वापस जाना । रास्ते में पुलिस वाले से निपटना भी । आमदनी का कोई अच्छा जरिया हो तो कौन ऐसा काम करेगा । एक दिन मैंने बड़ा अच्छा नज़ारा देखा । अक्सर सायकल वाले हमारे मोड़ पर उतर कर सायकल चलाते है क्योंकि आगे चढ़ाई है । पर उस दिन करीब ५-६ सायकल वाले एक दूसरे साइकिल को रस्सी से बांध कर एक मोटर सायकल वाले के पीछे के रोड से बांध रखा था और वह एक ट्रेन की तरह चले जा रहे थे । कैसे स्टार्ट करते होंगे ये मैं अबतक सोच रहा हूँ ।

२०१६-२०१७ में सुबह जब टहलने निकालता था तब एक गली से घूम कर डिबडीह फ्लाईओवर के नीचे नीचे ही टहल लेता था । २०१५ में मेरे दिल में धड़की की एक बीमारी हो गयी थे premature ventricular contraction । सीधे शब्दों में दिल की धड़कन synchronized नहीं थी । तब दिल्ली में इलाज करवाया थे पर चढाई चढ़ने में दिक्कत लगती और मैं नीचे नीचे ही टहल लेता था । मैंने देखा रोड पर तीन जगहों पर चॉक या ईट के टुकड़े से एक ही शब्द बड़े बड़े अक्षरों से कोई लिख डालता था । फिर एक दिन मैंने उसे लिखते हुए देखा । मैंने सोचा क्यों न इससे बात करूं । उसका नाम अब याद नहीं पर वो एक आदिवासी युवक था । लिखना पढ़ना सीख चूका था । कितना तक पढ़ा था तो नहीं पूछा पर वो जरूर अलग था । थोड़ा पागल सा । मैंने पूछा भाई यह रोज़ रोज़ क्यों लिखते हो ? उसका उत्तर कुछ अचंभित करने वाला था । "सर यह बिरसा राजपथ है । रोज़ मुख्यमंत्री और राज्यपाल इधर से गुजरते हैं कभी तो पढ़ेंगे और कुछ करेंगे । उस दिन कुछ उसने "PASS " लिखा था । पर RICE , MEAL वैगेरह वह पहले लिख चुका था । सोच कर देखे तो ये आदमी अपनी या अपनों की कुछ परेशानियाँ सरकार तक पहुंचना चाह रहा था । जैसा स्पष्ट था इसका यह प्रयास सफल होता नहीं दिख रहा था । इसबार कोरोना के बाद मैं दिल्ली से वापस आया तो कहीं कुछ लिखा कई दिनों तक नहीं दिखा । मैंने सोचा शायद थक कर लिखना छोड़ दिया होगा । पर ३-४ दिन पहले यानी १३ अगस्त २०२१ को मैंने फिर सड़क पर लिखा पाया " डॉलर " । मैं अब तक सोच रहा हूँ उसने डॉलर क्यों लिखा इस बार ?

एक पुरानी बात भी मुझे याद आ गई जो Morning Walk के समय घटी थी 2016-2017 में । जाड़े का समय था। तब फ्लाई ओवर के पास एक Covered बस स्टॉप हुआ करता था। एक दिन एक पागल वहाँ सोया दिखा । फटे हाल सिर्फ एक टी शर्ट और एक फटा चिटा पैंट में। जाड़े में ठिठुरता वह कचरे में कुछ ढूंढ कर खा रहा था। शायद इसे घर वाले कांके के पागलखाने में छोड़ कर चले गए हो और पागलखाने वालों ने इसे भटकने को छोड़ दिया हो। ऐसे उसके पास जा कर कुछ पूछने की हिम्मत तो नहीं थी पर कुछ मदद करने की इच्छा प्रबल हो रही थी। खैर अगले दिन morning walk में मै कुुछ खाने की चीजें बिस्कुट, ब्रेड लेकर चला पर उसको नजदीक जा कर देने की हिम्मत नहीं हुई और मैने पैकेट को फुटपाथ पर रख कर उसको इशारा कर आगे बढ़ गया। जब मै वापस लौटा तो यह देख कर संतोष हुआ वह बिस्कुट खा रहा था। अगले दिन खाने के चीजों के साथ एक पुराना शर्ट और पैजामा भी रख लिया ठंढ बहुत थी, और कपड़े की सख्त जरूरत थी उसे। मैने फुटपाथ पर रख दिया। वापसी में देखा उसने किसी तरह शर्ट तो पहन लिया पर पजामें का नाड़ा बांधना उसे नही आ रहा था। मै इसमें कोई मदद नहीं कर सकता था उसके पास कौन जाय ? खैर उसे खाना देने का सिलसिला कुछ दिन और चला पर एक दिन वह वहाँ नहीं था। मैने आसपास देखा कहीं नहीं था वह। मैने सोचा कल शायद लौट आए। उस दिन का छोड़ा खाना तो कुत्ते ले गए पर वो अगले कई दिन नहीं दिखा। फिर एक दिन बस स्टॉप तोड़ दिया गया। किसी VVIP के आने के पहले होने वाले Beautification के लिए । और वो असहाय फिर कभी नहीं दिखा। क्या ऐसे Destitutes के लिए कोई योजना है समाज या सरकार के पास ?

अगला दृश्य जो रोज मेरा ध्यान आकर्षित करता है वो है प्लास्टिक से बने रोजमर्रा की वस्तुए, खिलौने, बॉल वैगेरह सायकल से लेकर आते लोगों का समुह। मै रोज सोचता किस मेले में बेचने ले जाते होगे यह सब रोज। एक दिन जब मै पुल के सबसे ऊंची जगह पर था तब एक सायकल वाले ने थक कर सायकल रोकी । मै अपने उत्सुकता को रोक न पाया और पूंछ बैठा "भैया अभी तो कोई मेला लगा हुआ नही है तो कहाँ बेचोगे यह सब। " उसने बताया वह घर घर घूम कर बेचता है ये सामान। तकरीबन सभी सामान के दाम एक ही थे छोटा हो तब भी 20 और बहुत बड़ा हो तब भी बीस। बचपन में एक ठेला वाला आता था और हर एक माल 6 आना में बेचता था। बिल्कुल डॉलर स्टोर के तर्ज पर।

कुछ दिनो पहले एक ऐसा सायकल वाला हमारे कॉलनी में भी आया । तब पता चला हर एक माल 20 रू के आलावा भी कुछ बड़े सामान भी बेचते है ये लोग। हमने भी एक जोड़ी प्लास्टिक का मोढ़ा 300 रू में खरीदा ।

एक और चीज और दिखती है वह है निरंतरता का प्रतीक ट्रेन। दो ट्रैक गुजरता है डिबडिह flyover के पास और नीचे से राँची राऊरकेला लाईन और लोहरदगा राँचीं लाईन। कोरोना के कारण अभी ट्रेन की संखया कम है पर कुछ बढ़िया ट्रेनें अब चलने लगी है। कभी कभी मैं ट्रेन की whistle सुनने पर उसकी प्रतिक्षा करता हूं और माल गाड़ी हुई तो उसके डब्बे गिनने लगता हूँ।

आज यहीं रुकता हूँ। अपने अनुभव आगे भी अवश्य साझा करूंगा।

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