Tuesday, March 12, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ८ (भरत की चित्रकूट यात्रा )

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥

मैं पिछले छः ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

भरत गुरु वशिष्ठ, माताओ और अन्य अयोध्या वासियों के साथ गंगा तट श्रीवेंगपुर पहुंच गए हैं। शंका निवारण के बाद निषाद राज गुह उनकी सेवा में लगे हैं। अब आगे।

भरत , शत्रुघ्न और अन्य का प्रयाग पहुंचना और गंगा और जमुना के संगम पर प्रार्थना

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥

निषाद राज के अगुवाई में सभी माताओं की पालकियां चली गयी , शत्रुघ्न को बुला उनके साथ कर दिया और ब्राह्मणों से साथ गुरु वशिष्ठ चल पड़े। भरत जी ने गंगा जी को प्रणाम किया और पैदल चल पड़े और न के पीछे पीछे रथ लिए घोड़े बिना सवार के ही चले जा रहे है । (सभी सुसेवक उन्हें रथारूढ़ होने को कहते है तब भारत जी कहते है राम भैया तो पैदल ही गए है तो मैं क्यों नहीं )



भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥
झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥

भरत जी श्रीवैनगपुर से चल कर सीताराम सीतराम कहते कहते उमंग अनुराग के साथ प्रयाग तीसरे पहर पहुँच गए । उनके चरणों में छाले पड़ गए और वे छाले कमल की कली पर पड़े ओस की बूंदों से चमकती हों। भरतजी पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सकल समाज दुःखी हो गया।



चित्रकूट धाम (विकिपीडिया के सौजन्य से )

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥

(त्रिवेणी संगम के श्वेत (गंगाजी ) और श्याम (यमुना जी ) में स्नान कर ) भरत जी त्रिवेणी जी की प्रार्थना करते है "श्री रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें, पर श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन-दिन बढ़ता ही रहे। हमे यही आशीष वरदान दीजिये।" त्रिवेणी जी कहते है "हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो। श्री रामचंद्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है। "

सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥

भरत - भरद्वाज संवाद

ग्राम में श्री रामचन्द्रजी के सुंदर गुण समूहों को सुनते हुए वे मुनिवर भरद्वाजजी के पास आए। मुनि ने भरतजी को दण्डवत प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा। मुनिश्रेष्ठ ने दौड़कर भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो संकोच के घर में घुस जाना चाहते है। (भरद्वाज जी अनेक प्रकार से भरत जी को समझते है।)

तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥

भरद्वाज जी भरत को समझते है इसमें (राम वनगमन में ) भी तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज करते तो भी तुम्हारा दोष न होता और यह सुनकर श्री रामचन्द्रजी को भी संतोष ही होता। हे भरत! सुनो, श्री रामचन्द्र के मन में तुम्हारे समान प्रेम पात्र दूसरा कोई नहीं है। इसी प्रकार लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तीनों की अत्यंत प्रेम भरी सराहना करते सारी रात बीती ।

इंद्र-बृहस्पति संवाद

देवतागण प्रभु का वनगमन ही चाहते थे तांकि दुराचारी रावण का संहार हो। इस कारण ही देवी सरस्वती ने मंथरा की बुद्धि भ्रष्ट की थी और राम को अंततः वनवास मिला था। भरत राम को कहीं वापस अयोध्या ले जाने में सफल न हो जाये यह चिंता इंद्र को भी थी।

देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥

भरतजी के प्रेम के प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया कहीं इनके प्रेमवश हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए (और राम लौट न जाएँ ) । संसार भले को लिए भला और बुरे को बुरा दिखता है । उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो।

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥

राम संकोची है और भरत प्रेम के समुद्र , कहीं भरत की बात मान लौट न जाये। कुछ जतन (छल) कीजिये - कहीं बानी बात बिगड़ न जाये। (छल इंद्र का चरित्र रहा है इसलिए उन्हें ऐसी बात सूझी )।

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥

इंद्र के वचन सुन गुरु मुस्कुराने लगते है, हजारो नयन युक्त इंद्र ज्ञान रूपी नेत्र रहित है। वे कहते है जो माया के स्वामी के सेवक के ऊपर कोई माया करता है तो वह उसके ऊपर ही आ पड़ती है। हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ श्री रामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाएगा॥

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥

प्रभु श्री रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है। देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

भरतजी चित्रकूट के मार्ग में

भरत जी इसी प्रकार चित्रकूट के मार्ग में बढ़ते चले जा रहे थे ।

एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥

इसी प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी रोमांचित हो जाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है। उनके प्रेम पूर्ण वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरतजी यमुनाजी के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आये कृष्ण वर्ण यमुना जल को देख प्रभु राम का स्मरण होने लगा।

रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥

रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि को दिखाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते हैं। सब लोग श्री रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल को पास देखकर रात को वहीं रह गए। रात बीतने पर श्री रघुनाथजी को प्रेम करने वाले भरतजी आगे चले।

श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध और राम जी का समझाना इत्यादि अगले भाग में। क्रमशः

Sunday, March 3, 2024

आज दोसा दिवस है !

क्या आपको पता है आज ३ मार्च दोसा दिवस है ? एक food app की सूचना आई कि आज यानि तीन मार्च , दोसा दिवस है।

दोसे के कई प्रकार है अब - सिर्फ प्लेन और मसाला दोसा ही नहीं मिलते इनके सिवा भी बहुत प्रकार के दोसे मिलते है। सादा दोसा , मसाला दोसा , मैसूर मसाला दोसा , रवा दोसा , कर्नाटकी स्पंज दोसा ,नीर दोसा (मंगलौर का ),पेसरट्टु (मूग दोसा ), अड़ाई दोसा , पनीर दोसा , बाजरा दोसा, अंडा दोसा , ओट्स दोसा , रागी दोसा , चना दोसा, उत्तपम आदि करीब २२ प्रकार के दोसा गूगल करने पर मिल जाता है। इनमे स्टैण्डर्ड प्लेन या मसाला दोसा, रवा दोसा , पेसरट्टु , अड़ा दोसा अक्सर मेरे घर पर बन ही जाता है।


JFWonline से साभार उद्धृत

आज दोसा दिवस पर मुझे अपने तीन ब्लॉग याद आ रहे है। जिसमें दोसा के विषय में मैंने आप बीती और कहानियां लिखी हैं। उनके कुछ भाग पुनः प्रस्तुत है। मैंने सबसे पहले डोसा या दोसा शायद १९६५ में ही खाई थी वह था मसाला डोसा । दक्ष्णि भारतीय व्यंजनों में सिर्फ डोसा ही तब उत्तर भारत में लोकप्रिय थे , समोसा बांकी दक्षिण भारतीय व्यंजनों जैसे इडली , उपमा पर भारी पड़ते थे और उत्तर भारत में हर जगह मिलते भी नहीं थे। मैंने अपने नौकरी जीवन के कई साल दक्षिण भारत में बिताये और अब लगभग सभी व्यंजन - डोसा , इडली , उत्तपम , उपमा , पायसम , बड़ा इत्यादि मुझे भाता है। कॉलेज में किये केरल ट्रिप में केले के पत्ते पर भात पर रसम परोस देने पर संभाल नहीं पाते थे पर रसम पीना अच्छा लगता था। सांभर तो अच्छा लगता ही था , नारियल - चना दाल मूंगफली की चटनी बहुत पसंद आती थी, है । बाद में आंध्र की अत्यंत तीखी चटनी ( लाल वाली ) और कर्णाटक के स्पेशल चटनी भी चखने का मौका मिला था। बंगलुरु में पूरन पोली भी खाने को मिला पर पता चला यह एक महाराष्ट्रियन डिश है। अब आईये मेरे पुराने ब्लॉग के कुछ अंश शेयर करता हूँ।

दोसा से मेरा पहला परिचय

मैंने पटना के एक प्रसिद्द तकनिकी संस्थान में दाखिला ले लिया था और हॉस्टल के उन्मुक्त जीवन का आनंद ले रहा था। मेस का खाना अत्यंत पसंद आता। पर जैसे जैसे समय बीता हॉस्टल के रूटीन खाने से ऊबने लगे और कभी कभी सोडा फाउंटेन (तब पटना का प्रसिद्द रेस्टोरेंट था) जा कर कुछ खा लेते । पहली बार मसाला दोसा इसी जगह खाई थी। । सोडा फाउंटेन में पहली बार होटल मैं बैठ कर आइस क्रीम खाई थी । तब सोडा फाउंटेन में बाहर लॉन में ही टेबल कुर्सी लगे होते और अंदर बैठ कर गर्मी खाने के बजाय हम बाहर ही बैठना पसंद करते क्योंकि हम शाम को ही सिनेमा जाने क्रम में ही यहाँ जाते । मसाला डोसा बहुत ही अच्छा लगा और बाहर जब भी खाने का मौका मिलता मसला डोसा फर्स्ट चॉइस होता । तब पता नहीं था मैं अपने नौकरी के कई साल दक्षिण भारत में बिताने वाला था ।

सालेम - तमिलनाडु (तमिल का अल्प ज्ञान)

अपने नौकरी जीवन में कोई एक - डेढ़ साल मुझे सालेम (तमिलनाडु ) में बिताने का मौका मिला। यहाँ से कई जगह घूमने भी गए जैसे मेट्टूर , यरकौड। चेन्नई तो आते जाते रुकना ही पड़ता था। वह की कई यादों में से एक मेरे एक पुराने ब्लॉग से।


एक बार हमारे वरिष्ठ सहकर्मी श्री डी.डी. सिन्हा सालेम आये। उस समय मैं अकेला ही था सालेम में। सालेम में मेरे सहकर्मी Vdyanathan या Nair जो दूभाषिए का काम कर देते थे और जिनके बदौलत हम तमिल, मलयलम फिल्म देेख लेते थेे, राँची गए हुए थे। एक रविवार हम स्टेशन के पास के सिनेमा हॉल 'रमना' में एक हिन्दी फ़िल्म देखने गए थे। इंटरवल में हम पुरुष शौचालय खोजने लगे। मैंने चैनैई (तब मद्रास) के लोकल बसों में लेडीज सीट के ऊपर लिखा देखा था पेनकाल् (பெண்கள்) । सिनेमा हाल में जब मैने एक शौचालय के ऊपर कुछ और ही लिखा देखा तो उसी को पुरुष शौचालय समझ बैठे और हम दोंनो अंदर चले गए। उस दिन पिटते-पिटते बचे।

एक बार हम दोनों शहर केे बीचों बीच स्थित वसंत विहार रेस्टुरेंट में गऐ। मैंने अपने तमिल ज्ञान को उपयोग में लाते हुए वेटर से पूछा तैयर बड़ा एरक् (दही बड़ा है?) । वेटर यह सोच कर की मुझे तमिल आती है अपने फ्लो में मेनू आइटम्स तमिल में बोलने लगा? मेरे पल्ले कुछ न पड़ा तो मैंने फिर पूछा तैयर बड़ा एरक् ? वह फिर तमिल में कुछ कह कर चला गया। शायद यह कह रहा होगा कि जो बताया बस वही है, श्री डीडी सिन्हा ने फिर कहाँ अब मेरा  इशारों ( Sign Language) का कमाल देखो। उन्होंने हाथ हिला कर वेटर को बुलाया। वे बोले 'मसाला दोसा' और दो ऊँगली दिखाई और वेटर दो दोसा ले आया। फिर कॉफी भी इसी तरह मंगाई गई।

Saturday, March 2, 2024

मेरी रेल यात्रा और दादा पोता की बातें

हर यात्रा की एक कहानी होती है। और रेल यात्रा पर तो एक उपन्यास लिखा जा सकता है। मैंने रेल यात्रा पर कई ब्लॉग लिखे है और कुछ के लिंक दे रहा हूं।

मेरी हालिया रेल यात्रा रांची से नई दिल्ली की थी। हमें रेल यात्राएं पसंद है, बचपन से ही। मेरा एक पुराना ब्लॉग भी है क्लिक कर देखें। पहले मैंने गरीब रथ में बुकिंग की थी। एक दिन पहले अपने नातियों, पोते-पोतियों के पास पहुंचने के लिए। पर कई आशंकाएं मन में उठने लगी। इससे पहले मैने सिर्फ एक बार 2010 या 2009 में, गरीब रथ -( हटिया -भुवनेश्वर) गरीब रथ से यात्रा की थी। तब ट्रेन में बेडिंग लेने होड़ लगी थी, डब्बे में घुसते ही अटेंडेंट को बेडिंग के लिए बोल देना पड़ा था। बेडिंग के अलग से पैसे लगते थे सो अलग, बेडिंग सबको नहीं मिल पाते थे। यह थी मेरी पहली आशंका, दूसरी आशंका भोजन की थी। दिल्ली गरीब रथ का स्टापेज राजधानी के जैसा ही है और सिर्फ एक स्टेशन बरकाकाना में ही भोजन ले सकते है। मैंने दो तीन दिन सोचता रहा फिर टिकट कैंसिल कर अगले दिन राजधानी में ही टिकट करवा लिया।

विकीपीडिया से साभार

सिनियर सिटिजन कोटा से दोनों आमने-सामने का लोअर बर्थ हमें मिला था। जब उम्र कम थी तब उपर का बर्थ ही पसंद आता था। किसीसे कोई मतलब नहीं आप अपने बर्थ पर आते ही लेट जाओ। लोअर बर्थ पर आप तब तक नहीं ही लेट सकते हो जब तक आपके सहयात्री अपने बर्थ पर न चले जाए। हमसे आगे वाली बर्थों पर दो तीन परिवार जिनमें बच्चे भी थे हल्ला गुल्ला मचाए हुए थे। उनकी बातों से ही पता चला कि वे वैष्णो देवी जा रहे थे। पहले तीर्थ यात्रा में लोग धर्म कर्म की बातें किया करते थे, धर्म पर ही चर्चा होती थी या कहां ठहरे कब चले आदि बातों पर । अब लोग तीर्थ यात्रा में खूब मस्ती करते है । शायद कुछ लोगों को मेरी बात पसंद न आये , भई कोई हर्ज नहीं मस्ती करने में यदि वह मर्यादा में रहे। तीन चार बच्चे भी मजे ले रहे थे और मस्ती में उन्होंने रात में दही नीचे गिरा दिया और सुबह नाश्ते की ट्रे पलट दिया। यानि डब्बे की ऐसी तैसी कर दी। खैर बच्चों की तो हर ख़ता मुआफ। खेल, मजाक, चुहलबाज़ी और हल्ला गुल्ला से लेकर "मुझे मुर्गा नहीं पसंद, मुझे अंडा पसंद है। मैंने बतख नहीं खाई पर कबूतर खाया है इत्यादि बातें अगले सुबह मेरे कानों में पड़ रहे थे। खैर हिंदुओं में धर्म कर्म एक व्यक्तिगत बात है। आप जैसे चाहे पुजा पाठ तीर्थ यात्रा करें। दक्षिण में टिफिन जैसे इडली खाने से आपका व्रत नहीं टूटता, उत्तर भारत में नवरात्र में सेंधा नमक वाला खाना फलाहारी माना जाता है पर बिहार में फलाहार और उपवास रखना कठिन है।

शाम का नाश्ता और डिनर के बाद मैंने बिछावन लगाने की जल्दी दिखाई और उपर के बर्थ वाले यात्रियों को हमारा बर्थ छोड़ देने को मजबूर कर दिया। मैं फिर भी आईसक्रीम के इंतजार में जागता रहा। धीरे धीरे सभी यात्री अपने अपने बर्थ पर चले गए।‌ बत्तियां बुझ गई। तीर्थ यात्री परिवारों से धीरे धीरे खुसफुसाहट में बात करने की आवाज आने लगी। बीच बीच में दबी आवाज के साथ ठी ठी हंसने की आवाज मुझे सोने नहीं दे रहे थे।

रात में इग्यारह बजे होंगे, सभी लोग लगभग सो चुके थे। गया स्टेशन पर सभी गाड़ियां रूकती है। हमारी राजधानी ट्रेन भी रुकी। पैसेंजर के चढ़ने उतरने के शोर से मेरी अभी अभी लगी नींद टूट गई। दो लोग चढ़े एक बुजुर्ग और एक जवान आदमी, और लोगों का चढ़ना तो याद नहीं पर इन दोनों का चढ़ना याद रह गया। वे अपना बर्थ ढ़ूंढ रहे थे। जवान लड़का मोबाइल का टार्च जलाकर सभी बर्थ का नंबर पढ़ने लगे- हमारे बर्थ पर दो बार आया । हमने उसे बर्थ खोजने में मदद करनी चाही और बर्थ कहाँ है बताने की कोशिश की पर जवान आदमी बुजुर्ग को चढ़ाने आया था और उतरने की हड़बड़ी में था और मेरी बातों को नज़र अंदाज़ कर चला गया । जब बुजुर्ग भी हमारे बर्थ का नंबर पढ़ने आया तब उसे मैंने बताया कि उसका नीचे का बर्थ है मेरे बर्थ के बगल वाला है यानी पार्टीशन के उस तरफ तब उसे बर्थ मिला।‌ अफ़सोस उसके ही बर्थ पर आराम से सोऐ सज्जन, जिससे वह पहले बर्थ नंबर बता कर पूछ रहा था ने उसे मदद नहीं की थी लेकिन जब उसने अपना बर्थ न० पता कर लिया तब उन्होंने बर्थ खाली कर दिया। शायद बुजुर्ग की एसी कोच में अकेले यह पहली यात्रा थी। चादर मांगने उन्हें सहयात्रियों ने उपर रखे बेडिंग के पैकेट दिखा दिया , पर वह सारे चादर का पैकेट उतारने लगा और लोग के बताने पर कि सिर्फ एक पैकेट उतारो उसे समझ आया। वह अपना चादर बिछा ही रहा था की एक फ़ोन आ गया। वह तेज आवाज़ में बात करने लगे। लोग या तो आदतन‌ तेज बोलते हैं या जब खुद ऊंचा सुनते हो तब। फोन उनके बेगम का ही होगा। सभी डिस्टर्ब हो रहे थे पर उनकी बातों से मैं अंदाज़ लगाने लगा था क्या बात हो रही होगी।
बेगम : सलाम वालेकुम
बुज़ुर्ग (little annoyed) : वालेकुम
बेगम (लगभग डांटते हुए): ट्रैन में चढ़ कर फ़ोन क्यों नहीं किये , कोई फिक्रमंद है, आपको क्यों याद‌ होगा।
बज़ुर्ग : रूको ,सुनो, सुनो
बेगम (थोड़ा शांत हो कर): ठीक से बैठ गए ?
बुज़ुर्ग (complaing) : अभी अभी तो सीट मिलल है , रात का टाईम है , अँधेरा है , बत्ती बंद है और सभी लोग सो रहे है और तुमरा फ़ोन आ गया थोड़ा शबर तो कर लेते अभी बिछावन लगा ही रहे थे।
बेगम की कुछ और डांट पड़ी और‌ नसीहत हिदायत भी - "सामान ठीक से रख लिए - अब्दुल (शायद बेटा होगा जहाँ बुज़ुर्ग जा रहे होगें) को फ़ोन किये की नहीं ?
बेगम फ़ोन रखने तो तैयार नहीं , बुज़ुर्ग भी क्या करें ? बिछावन बिछाए , बीबी को सफाई दे या बेटा को फ़ोन करे। आस पास के सभी लोगों को तो जगा ही चुके थे। अल्लाह हाफिज कह अभी फ़ोन रखे ही थे की शायद पोते का फ़ोन आ गया। पोता इतनी जोर से बोल रहा था की मुझे भी सुनाई से रहा था। शायद ५-६ साल का होगा। बुजुर्ग के आवाज में तुरंत एक मिठास आ जाती है।
पोता : कब आओगे ?
दादा :बाबु ट्रेन में है। बेटा तुम्हारे पास ही आ रहे है। यह दो डायलॉग कई बार चला।
दादा : तुम्हारी दादी है न, गया वाली दादी, वो तुम्हारे लिए मिठाई दिहिन है। और भी कई चीज़ दिए है। सुबह से पहुंचते तब देंगे हां । अब पापा को फोन दो। पोता पापा को नहीं देता फ़ोन और कब आ रहे हो और क्या ला रहे हो के प्रश्न कई बार पूछता है। मिठाई खुद मत खा जाना भी कहता है। कई बार खुदा हाफ़िज़ कहने पर भी पोता फोन नहीं रखता और दादा भी फोन नहीं काटना चाह रहे होंगे। बाकि पैसेंजर (मैं भी) फोन बंद होने का इंतजार कर रहे थे, कि कब शोर बंद हो और हम सोएं। बहुत मुश्किल से शायद ५-६ मिनट बाद दादा अपने पोते को अल्लाह हाफिज कह पाए। मैं उनकी बात सुन रहा था। और सोच रहा था मैं भी नाती - पोते के पास ही जा रहा हूँ। यह भी दादा पोता का यह रिश्ता सभी के लिए एक जैसा है - शायद । Grand parents are a child's first friend and grand children are any person's last friend (, probably) ! पता नहीं पश्चिमी देशों में कैसा होता होगा यह रिश्ता ?
अभी इस कहानी को विराम देता हूं।‌ आशा है राम कथा पर मेरे ब्लॉग सिरिज के अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा आप करेंगे।

Tuesday, February 27, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ७ - भरत का राम से मिलने जाना

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

मैं पिछले छः ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

पिछले ब्लॉग में मैंने लिखा था कैसे भरत ननिहल से लौटते है और दशरथ की मृत्यु पर विलाप करते है और गुरू के याद दिलाने पर उनकी अंत्योष्टि करते है और फिर चित्रकूट जा कर राम को लौटा लाने का प्रस्ताव रखते है और गुरुआज्ञा से प्रस्थान की तैयारी करते है :

कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहि राजू॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥

तिलक का सब सामान ले चलो। वन में ही मुनि वशिष्ठजी श्री रामचन्द्रजी को राज्य देंगे, जल्दी चलो। यह सुनकर मंत्रियों ने वंदना की और तुरंत घोड़े, रथ और हाथी सजवा दिए ।सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले। नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं।

सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।

विश्वासपात्र सेवकों के भरोसे नगर छोड़ और सबको आदरपूर्वक रवाना कर,और श्री सीता-रामजी के चरणों को स्मरण करके भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई पैदल ही चले पड़े । उनका स्नेह -अनुराग देखकर सब लोग घोड़े, हाथी, रथों को छोड़कर, उनसे उतरकर पैदल चलने लगे। तब माता कौसल्याजी भरत के पास जाकर और अपनी पालकी उनके समीप खड़ी करके मृदु वाणी से बोलीं-हे बेटा! माताएं तुमहारी बलैया लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ। (नहीं तो) सारा परिवार दुःखी हो जाएगा। तुम यदि पैदल चले से सभी लोग पैदल चलेंगे। शोक के मारे सब कृश यानि दुबले हो गए हैं, और पैदल चलने के योग्य नहीं हैं ।

सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।

माता के चरणों में सर नवा कर दोनों भाई रथ पर चढ़ गए। पहले दिन तमसा नदी और दूसरे दिन गोमती के किनारे निवास किया। कोई दूध पीता है कोई फलाहार करता है और को सिर्फ रात को खाता है । सभी आभूषण भोग विलास छोड़ कर रामचंद्र जी के लिए व्रत नियम रख रहे है ।

कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥

सभी लोग श्रीवेंगपुर पहुंचते है और निषादराज उन्हें देख कर सोचता है क्या कारण है जो भरत वन जा रहे है। जरूर मन में कपट - छल है नहीं तो साथ में सेना क्यों है। समझते है छोटे भाई लक्ष्मण सहित राम को मार कर निष्कंटक राज करूंगा। पहले राजनीति का ख्याल नहीं किया और कलंक लगा ही था अब तो जीवन की भी हानि होगी। सारे देवता भी साथ हो जाए तो भी श्री रामचंद्र को हरा नहीं सकते। भरत जो ऐसा कर रहे है उसमे कोई आश्चर्य नहीं - विष के बेल से अमृतफल नहीं फल सकता ।

दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।।
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।। < br> बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।

निषादराज गुह ने अपने सेवको को कहा सभी नाव डूबा दो किसीको गंगा के पार नहीं जाने देंगें। निषादराज ने अपने वीरो को इकठ्ठा किया और ढोल बजाने को कहा , तभी बाये ओर से छींक आई , अपशगुन हुआ जान एक बूढ़े ने शगुन विचारने को कहा और कहा भरत राम से मिलने जा रहे युद्ध करने नहीं , शगुन कह रहा ही की कोई विरोध नहीं है । निषादराज ने भी सोचा जल्दबाजी में कुछ करना ठीक नहीं है। उसने अपने सेवको को सभी नाव घाट रोक लेने को कह कर कुछ फल मूल , हिरन , मछली आदि भेंट लेकर भरत से मिलने चला।

देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीस ।।
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।। करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ॥

निषादराज ने मुनि वशिष्ठ को देखकर दंडवत प्रणाम किया। राम का मित्र जान मुनिराज ने उसे आशीर्वाद दिया। राम के मित्र है जान कर भरत ने रथ को त्याग दिया। और अनुराग सहित उमंग से चले। निषादराज ने धरती में सर नवा कर उन्हें प्रणाम किया।उनको दंडवत करता देख भरत ने उनके गले से लगा लिया मानों लक्ष्मण जी से ही भेट हो गयी।

लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥

भरत ने जिस तरह स्नेहपूर्वक निषादराज को गले लगाया देख लोग ईर्ष्या पूर्वक कहते है - जिसे नीच माना गया है ओर जिसके छाया को छू लेने पर भी नहाना पड़ता हो उससे राम के छोटे भाई का मिलना - गले लगाने देख पूरा शरीर पुलकित हो गया। जिस राम नाम को जम्हाई में भी लेने से सारा पाप दूर हो जाता है उस गुह को तो श्री राम ने गले लगा लिया ओर उसे कुल समेत पावन कर दिया है।

करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।


विकी मीडिया के सौजन्य से

कर्मनाशा नदी का जल गंगाजी में मिल जाता है, तब उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता? जगत जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए। (कर्मनाशा नदी बिहार के कैमूर से निकल कर UP होते हुए गंगा जी में समां जाती है। इसके जल को पीना तो छोड़ कोई छूता भी नहीं न ही लोग खाना पकाते है ।)

रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥

राम सखा से भरत प्रेम पूर्वक मिलते है और कुशल क्षेम पूछते है। भरत का स्नेह , व्यवहार देख निषाद उसी समय विदेह हो गए यानि उन्हें अपने देह का सुध बुध भूल गया। संकोच , स्नेह मन ने इतना बढ़ गया की वे भरत जी को एकटक देखते रह गए। धीरज धर कर चरण वंदना कर विनती करने लगे। निषाद राज बाद में शत्रुघ्न ओर सभी रानियों के भी मिले ओर रानियों ने उसे लक्ष्मण सामान जान कर आशीर्वाद दिए। फिर गंगा जी की वंदना कर ओर स्नान कर वही रुकने की व्यवस्था की गयी।

इस ब्लॉग में बस इतना ही - आशा है आप अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा करेंगे - राम भरत मिलाप के पहले क्या क्या होता है - उस कथा के लिए।

Saturday, February 24, 2024

उर्मिला का अंतर्द्वंद और त्याग

रामकथा उसके चरित्रों के त्याग से भरी हुई है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का त्याग उनमें सर्वोपरि है, लेकिन लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला का त्याग किसी से कमतर नहीं है। उनकी वेदना इस मामले में विशिष्ट है कि उसमें आंसुओं के निकलने की मनाही भी शामिल है। इसके बाद भी उर्मिला को वह प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसकी वह अधिकारिणी हैं। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास जी तक सभी ने रामकथा का विवेचन किया है। तुलसीदास राम भक्त थे और राम चरित मानस के द्वारा राम भक्ति की अविरल धारा को प्रवाहित करना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपनी रचनाओं में उन्हीं पात्रों को स्थान दिया है। जिनके द्वारा किसी प्रकार राम का चरित्र उजागर होता था। उन्होंने लक्ष्मण,भरत,निषाद,शबरी,हनुमान,विभीषण आदि को राम कथा में प्रथम और विशेष स्थान दिया था। लेकिन मैथिली शरण गुप्त लिखित रामकथा 'साकेत' में उर्मिला के त्याग और सेवा पर प्रकाश डालता है ।‌ लेखिका आशा प्रभात ने अपने उपन्यास `उर्मिला' में लक्ष्मण से दीर्घ और दारुण विरह के समय अपने कर्तव्यों का उदात्त भाव से पालन करने वाली इस अद्भुत नारी के चरित्र को पर्याप्त विस्तार देकर इस कमी को पूरा करने का एक और प्रयास किया है।

राम चरित मानस में राम विवाह के समय उर्मिला का जिक्र आता है।

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥

तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया।

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥

सीता जी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुंदर नेत्रों वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया‌।

उर्मिला जनक नंदनी सीता की छोटी बहन थीं। सीता जनक द्वारा दुर्भिक्ष के समय हल जोतते समय सीतामढ़ी के पास पुनौरा गांव में धरती से निकली। उर्मिला जनक जी जैविक बेटी थी। सीता के विवाह के समय ही उर्मिला दशरथ और सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण को ब्याही गई थीं। इनके अंगद और चन्द्रकेतु नाम के दो पुत्र तथा सोमदा नाम की एक पुत्री थी। जब सीता वनगमन को उद्यत हुयी और लक्ष्मण भी माता से वन जाने की आज्ञा मानाने आये उर्मिला ने पति के साथ जाने की इच्छा प्रकट न होने दिया , कहीं पति अपने कर्त्तव्य से विमुख न हो जाए। साकेत में राष्ट्रकवि मैथिलि शरण गुप्त लिखते है की उर्मिला ने भी वन जाने की इच्छा प्रकट की तो लक्ष्मण ने यह कह कर मना कर दिया की उसके साथ जाने से अपने कर्त्तव्य को निभा न पाएंगे। तब उन्होंने पति को आश्वाश्त किया की महाराज और रानियाँ दुखी न हो जाये इसलिए वो अपने आँखों से आंसू भी नहीं निकलने देगी । उर्मिला का अवर्णित , अचर्चित त्याग , महान चरित्र,अखंड पतिव्रत और स्नेह की चर्चा रामायण में अपेक्षित थी पर वह हो न सका।

मैथिलि शरण गुप्त के साकेत का नवम सर्ग उर्मिला के विरह वेदना चित्रित करता है । उर्मिला कहती है :

मिथिला मेरा मूल है और अयोध्या फूल,
चित्रकूट को क्या कहूँ, रह जाती हूँ भूल!

मिथिला तो मेरा जन्मस्थान है और अयोध्या मेरे फैलने फूलने का स्थान , पर चित्रकूट को क्या कहूँ ? मै तो भूल जाती हूँ । स्मरण रहे चित्रकूट क्षेत्र के में ही राम, सीता और लक्ष्मण ने वनवास के ११ साल बिताये।
अयोध्या की राज वधू उर्मिला ने १४ वर्ष हर दिन १६ घंटे सो कर बिताये क्योकि लक्ष्मण से निंद्रा देवी से १४ वर्ष जागने का वरदान ले लिया तांकि वे राम और सीता की रक्षा में २४ घंटे जागे रहे और निंद्रा देवी ने उनके हिस्से की निंद्रा उर्मिला को देदिया। उनके सतीत्व की शक्ति ऐसी थी की मेघनाद की पत्नी सुलोचना जब राम के शिविर में मेघनाद का शीश लेने आई तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा " भ्राता, आप यह मत समझना कि आपने मेरे पति को मारा है। उनका वध करने का पराक्रम किसी में नहीं। यह तो आपकी पत्नी के सतित्व की शक्ति है। अंतर मात्र यह है कि मेरे स्वामी ने असत्य का साथ दिया।

आशा प्रभात के पुस्तक (उर्मिला - अमेज़न पर उपलब्ध) में उर्मिला कहतीं है "आर्य राम , दीदी सीता और सौमित्र संग अरण्य जा चुके है , भवनवासियों को अश्रु के महासमुद्र में डुबों कर और मैं अश्रुशून्य नेत्र लिए द्वार पर एक पाषाण प्रतिमा की तरह जड़ सी खड़ी देखने को विवश हूँ सभी को वेदना में तड़पते , छटपटाते,,। "
अंत में मेरी एक कविता, उर्मिला कहती है:

जाओ कर लो जो मन ठाना
मै बनू नहीं कोई बाधा
न आंसू और न कोई शोक
तप सेवा से सह लूं वियोग
तुम तज गृह करो प्रभु सेवा
मैं तज सुख करूं प्रभु सेवा
-अमिताभ

अभी बस इतना ही। बांकी दोनों अयोध्या की राज वधुओं - मांडवी और श्रुतिकीर्ति पर भी लेख लिखूंगा ।

Thursday, February 22, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ६ (वन गमन ३-२)

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

मैं पिछले चार-पांच ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

कुछ पाठको ‌ने बताया कि राम कथा ब्लॉग लंबा हो जा रहा है अतः मैंने वनगमन - भाग -३ के अपने ब्लॉग को दो भाग में बाँट दिया हूँ। पहला भाग में सुमंत के अयोध्या लौटने से लेकर दशरथ जी के मृत्यु तक की कथा है और दूसरे भाग (यानि इस भाग में भरत का आना और चित्रकूट के लिए प्रस्थान करने तक का प्रसंग है।
सुमंत राम सीता और लक्ष्मण के समझाने पर उन्हें गंगा तट तक पंहुचा कर अयोध्या आये है । उन्होंने बड़ी बुद्धिमता से सभी बातें दशरथ को बताई है लेकिन दशरथ राम जी का वियोग सह न सके और उनकी मृत्यु हो गयी। अब आगे ।

भारत कौशल्या संवाद और दशरथ की अंत्योष्टि


चित्रकूट , विकिपीडिया से साभार
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले- माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्री राम-लक्ष्मण कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

जिसने कुल के कलंक, अपयश के कारण बने और प्रियजनों के द्रोही मुझ जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हुई! सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है ।


वशिष्ठ -भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी

तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥

पतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥
गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी ।।

वशिष्ठजी ने कहा- हे तात! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य को करने का अवसर है, उसे करो। गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिए कहा। वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा अर्थात प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया। वे रानियाँ भी (श्री राम के) दर्शन की अभिलाषा से रह गईं।

रायँ राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा।।
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी।।
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना।।
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई।।

मुनि वशिष्ठ ने भारत को बुला कर सभी तरह से समझाया और कहा राजा ने राज पद तुमको दिया है। पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही श्री रामचन्द्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी । राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे, इसलिए हे तात! पिता के वचनों को प्रमाण (सत्य) करो! राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पालन करो, इसमें तुम्हारी सब तरह भलाई है।

परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी।
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ।।
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।

भरत को पिता की आज्ञा ( भरत का राज्याभिषेक) अनुचित लग रही है जान वशिष्ठ जी बोले , परसुराम ने पिता की आज्ञा मानी और माता को मार डाला , ययाति के पुत्रों ने अपनी जवानी पिता को दे दी , क्योंकि वे पिता की आज्ञा पालन कर रहे थे वे पाप के भागी नहीं हुए और उनका कुछ अपयश भी हो हुआ। उचित अनुचित का विचार त्याग कर जो पिता की आज्ञा पालन करते है वे और यहाँ सुख का और स्वर्ग के भागी बनते है । राज्य संभालो भले रामचंद्र जी के लौट आने पर राज्य उनको सौप देना। भरत अपने को और कुमाता को को सभी अनर्थो का कारण समझ बहुत विलाप करते है और कहते है की यदि मैंने राज्य संभाला तो सभी मुझे ही बुरा कहेगा, मैं अधम हूं लक्ष्मण तो बहुत भाग्यशाली है की उसे राम चंद्र और सीता माता के सेवा का अवसर मिला।

कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हहीं सुत सब कहँ अवलंबा॥

कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं- हे पुत्र! गुरुजी की आज्ञा पथ्य (औषधि समान) रूप है। उनके आज्ञा का आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन करना चाहिए। काल की गति को जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए। श्री रघुनाथजी वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज्य करने चले गए और हे तात! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो। हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मंत्री और सब माताओं के, सबके एक तुम ही सहारे हो।

सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥
म्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥

भरत जी कहते है श्री रघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल , कृपा और स्नेही स्वाभाव के हैं। श्री रामजी ने कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया। मैं यद्यपि टेढ़ा हूँ, पर हूँ तो उनका ही बच्चा और सेवक। आप पंच लोग भी इसी में मेरा कल्याण मानकर सुंदर वाणी से आज्ञा और आशीर्वाद दीजिए, जिसमें मेरी विनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर श्री रामचन्द्रजी राजधानी को लौट आवें।

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥

भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे। मानो वे श्री रामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्री रामवियोग रूपी भीषण विष से सब लोग जले हुए थे। वे मानो बीज सहित मंत्र को सुनते ही जाग उठे। माता, मंत्री, गुरु, नगर के स्त्री-पुरुष सभी स्नेह के कारण बहुत ही व्याकुल हो गए। सब भरतजी को सराह-सराहकर कहते हैं कि आपका शरीर श्री रामप्रेम की साक्षात मूर्ति ही है। सभी उनके साथ राम के पास जाने तो उद्यत भी हो गए।

कहहिं परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥

सभी नगर वासी आपस में कहते हैं, बड़ा काम हुआ। सभी चलने की तैयारी करने लगे। जिसको भी घर की रखवाली के लिए रहन पड़ा उन्हें ऐसा लगता हैं, मानो मेरी गर्दन मारी गई। भरत जी चित्रकूट के लिए चल पड़े सभी नगर वासी भी उनके साथ चल पड़े।

अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥

सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले। नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं।

अगले ब्लॉग में राम भारत मिलाप तक लिखूंगा। उस महत्वपूर्ण क्षण को लिखने के लिए एक या दो ब्लॉग भी कम पड़े इसलिए मैं इस ब्लॉग को अभी समाप्त करता हूँ। आशा है आपको पसंद आएगा और उम्मीद करता हूँ राम भारत मिलाप के ब्लॉग क प्रतीक्षा आप करेंगे।

Monday, February 19, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ५ (वन गमन ३-१)

मैं पिछले चार ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।


आगे पढ़े आज का ब्लॉग "राम का वन गमन मार्ग भाग-३" मानस की चौपाइयों के संग । गणेश वंदना के बाद:

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।

सुमंत का अयोध्या लौटना, सुमंत - दशरथ - सुमंत संवाद और दशरथ की मृत्यु , भरत- शत्रुघ्न का अयोध्या लौटना

श्रीवेंगपुर में मंत्री सुमंत ने महाराज दशरथ की इच्छा श्री राम को बताई थी की महराज ने कहा था सभी को चारदिन वन दिखा लौटा लाना लेकिन राम न माने न ही सीता मानी तब राम जी से मंत्री सुमंत को महाराज का ख्याल रखने के आग्रह के साथ वापस अयोध्या लौटने को मना लिया था । निषादराज ने चार निषाद सुमंत जी के साथ कर दिए। अब आगे।

सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥

व्याकुल और दुःखी सुमंत्रजी सोचते हैं कि श्री राम के बिना जीना धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर नश्वर है तो अभी श्री रामचन्द्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर (प्राण निकल कर ) इसने यश क्यों नहीं ले लिया। ये प्राण अपयश और पाप के कारण बन गए। अब ये प्राण किस कारण कूच नहीं निकलते ? हाय! नीच मन बड़ा अच्छा मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं हो जाते। वे सोचते है जब नगर में सभी नर नारी , दुखी माताएं पूछेंगी राम , सीता और लखन नहीं लौटे तो क्या जवाब दूंगा ?

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥

मैं कौन सा मुँह लेकर उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारों को कुशल पूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता और श्रीराम का समाचार सुनते ही महाराज जिनका जीवन श्री रघुनाथजी के दर्शन के ही अधीन है,तिनके की तरह शरीर को त्याग देंगे। तमसा नदी के के किनारे पहुंच सुमंत जी ने निषादों को वापस भेज दिया।

सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु।।

अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।।
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा।।

मंत्री का (अकेले) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको भयानक प्रेतों का निवास लगने लगा । अत्यन्त आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं, पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई रुद्ध हो गई है। न कानों से सुनाई पड़ता है और न आँखों से कुछ सूझता है। वे जो भी सामने आता है उस-उससे पूछते हैं मेरे राजा राम कहाँ हैं ?

आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥

भावार्थ:-राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। वे लंबी साँसें लेकर इस प्रकार सोच करते हैं, मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच रहे हों।

भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥

राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे -हे मेरे प्रेमी सखा! श्री राम की कुशल कहो। बताओ, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया। राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेशा सुनाओ।

सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥

सुमंत जी मृदुल बानी से महाराज को ढ़ाढस दिलाते है - आप तो पंडित ज्ञानी है , सुर वीर है , साधु समाज की सेवा करने वाले है। सुख दुःख , हानि लाभ , प्यारों से मिलना बिछुड़ना , यह सब काल कर्म के अधीन है रात दिन और दिन की तरह बरबस होते रहते है। सुमंत जी ने दशरथ से सारी कथा सुनाई कि कैसे पहली रात राम सीता - लक्ष्मण ने तमसा तट पर बिताई और कैसे निषादराज ने सेवा की कैसे वे श्रीवेंगपुर गए और केवट में नाव से उसपार गए और कैसे राम के कहने पर उन्हें लौटना पड़ा।

पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥

राम जी ने सुमंत जी ने आते समय कहा था कि सभी पुरवासियों और कुटुंब वालों से निहोरा करना कि वही मनुष्य हमारा हर तरह से हितकारी है जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें । जब भारत आये तो उससे कहना कि राज पद पाने पर नीति न त्याग दे। प्रजा पालन वचन और मन से करना। सभी माताओं को सामान जानकार उनकी सेवा करें।

मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥
सूत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥

सुमंत कहते है कि मैं अपने क्लेश कि क्या कहूँ। मैं वापस जिन्दा राम का सन्देश ले कर लौट आया हूँ ऐसा कह कर उनका गाला रुंध गया और वे हानि और ग्लानि के वश में हो गया । सुमंत से पुत्र कि बातें सुन कर महाराज पृत्वी पर गिर पड़े। मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। और वह मछली कि तरह तड़पने लगे। राजा के प्राण कंठ में आ गया मानो मणि के बिना सांप , जल के बिना कमल मुरझा गया हो। रानियों के विलाप से नगरवासी सभी दुःख हो गए ।

कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू ।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥

कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुःखी देखकर मन ही मन जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला! तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं-हे नाथ! आप मन में समझ कर विचार कीजिए कि श्री रामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है। अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार खेने वाले हैं। सब प्रियजन कुटुम्बी और प्रजा ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है। पर कुछ काम न आया और अन्ततः राजा कि मृत्यु हो गयी और गई गुरु वशिष्ठ ने भारत को बुलाने को दूत भेजने को कहा। अयोध्या से राम के प्रस्थान के बाद से ही भारत को अपशकुन होने लगे सियार और गदहे उल्टे बोलने लगे। हवा के वेग से चलने वाले घोड़े से भारत चल पड़े । वे चाहते थे कैसे उड़ कर पहुँच जाऊं ।


राजा दशरथ का स्वर्गवास
पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥

अयोध्या पहुंचने पर भारत जी नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं, चुपके से जोहार (वंदना) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है । आशंका होती है कि कोई बुरा समाचार न दे दे । भारत ने देखा पूरा अयोध्या दुखी है पर उसकी माता कैकयी आरती का थाल सजा ले आई।

सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥

सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥

भरतजी ने सब कुशल कह सुनाई। फिर अपने कुल का कुशल-क्षेम भी पूछा । भरतजी ने कहा- कहो, पिताजी कहाँ हैं ? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं ? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं ? पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और मन में शूल के समान चुभने वाले वचन बोली- मैंने मंथरा कि मदद से सारा काम कर लिया था पर विधाता ने थोड़ा काम बिगाड़ दिया और महाराज देवलोक पधार गए ।

चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥

दशरथ को देख भारत विलाप करने लगे हे तात! मैं आपको अंत समय में समय देख भी न सका। और आप मुझे श्री रामजी को सौंप भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे सम्हलकर उठे और बोले- माता!, पिता के मरने का कारण तो बताओ । पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी : मानो मर्म स्थान को चाकू से चीरकर उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से आखिर तक बड़े प्रसन्न मन से सुना दी । राम चंद्र जी का वन जाना जान कर भरत जी पिता के मृत्यु का दुःख भूल गए। और सारे अनर्थ का कारण अपने को जान कर मौन हो गए। पुत्र को व्याकुल देख कैकयी उन्हें समझाती है (जैसे जले पर नमक लगा रही हो) कि महाराज के जाने का दुःख न करो , उन्होंने पुण्य और यश कामा कर उसका पूरा भोग कर लिया है।

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥

राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी साँस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया। हाय! यदि तेरी ऐसी ही दुष्ट इच्छा थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला! अर्थात मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा अहित कर डाला । उसकी बात सुन कर शत्रुघ्न मंथरा को झोटा पकड़ कर घसीटने लगे । और उसका कूबड़ तोड़ डाला।


भारत कौशल्या संवाद और दशरथ की अंत्योष्टि

भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले- माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्री राम-लक्ष्मण कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

जिसने कुल के कलंक, अपयश के कारण बने और प्रियजनों के द्रोही मुझ जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हुई! सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है ।
क्रमशः